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छठवाँ अधिकार ][ १७३
दानादिक देते हैं; सो जिस प्रकार हिरनादिक स्वयमेव गमनादिक करते हैं, और पुरुषके दायें-
बायें आने पर सुख-दुःख होनेके आगामी ज्ञानको कारण होते हैं, कुछ सुख-दुःख देनेको समर्थ
नहीं हैं; उसी प्रकार ग्रहादिक स्वयमेव गमनादिक करते हैं, और प्राणीके यथासम्भव योगको
प्राप्त होने पर सुख-दुःख होनेके आगामी ज्ञानको कारण होते हैं, कुछ सुख-दुःख देनेके समर्थ
नहीं हैं। कोई तो उनका पूजनादि करते हैं इनको भी इष्ट नहीं होता; कोई नहीं करता
उसके भी इष्ट होता है; इसलिये उनका पूजनादि करना मिथ्याभाव है।
यहाँ कोई कहे — देना तो पुण्य है सो भला ही है?
उत्तरः — धर्मके अर्थ देना पुण्य है। यह तो दुःखके भयसे व सुखके लोभसे देते
हैं, इसलिये पाप ही है।
इत्यादिक अनेक प्रकारसे ज्योतिषी देवोंको पूजते हैं सो मिथ्या है।
तथा देवी-दहाड़ी आदि हैं; वे कितनी ही तो व्यन्तरी व ज्योतिषिनी हैं, उनका अन्यथा
स्वरूप मानकर पूजनादि करते हैं। कितनी ही कल्पित हैं; सो उनकी कल्पना करके पूजनादि
करते हैं।
इस प्रकार व्यन्तरादिकके पूजनेका निषेध किया।
क्षेत्रपाल, पद्मावती आदि पूजनेका निषेध
यहाँ कोई कहे — क्षेत्रपाल, दहाड़ी, पद्मावती आदि देवी, यक्ष-यक्षिणी आदि जो
जिनमतका अनुसरण करते हैं उनके पूजनादि करनेमें दोष नहीं है?
उत्तरः — जिनमतमें संयम धारण करनेसे पूज्यपना होता है; और देवोंके संयम होता
ही नहीं। तथा इनको सम्यक्त्वी मानकर पूजते हैं सो भवनत्रिकमें सम्यक्त्वकी भी मुख्यता
नहीं है। यदि सम्यक्त्वसे ही पूजते हैं तो सर्वार्थसिद्धिके देव, लौकान्तिक देव उन्हें ही क्यों
न पूजें? फि र कहोगे — इनके जिनभक्ति विशेष है; भक्तिकी विशेषता सौधर्म इन्द्रके भी है,
वह सम्यग्दृष्टि भी है; उसे छोड़कर इन्हें किसलिये पूजें? फि र यदि कहोगे — जिस प्रकार
राजाके प्रतिहारादिक हैं, उसी प्रकार तीर्थंकरके क्षेत्रपालादिक हैं; परन्तु समवसरणादिमें इनका
अधिकार नहीं है, यह तो झूठी मान्यता है। तथा जिस प्रकार प्रतिहारादिकके मिलाने पर
राजासे मिलते हैं; उसी प्रकार यह तीर्थंकरसे नहीं मिलाते। वहाँ तो जिसके भक्ति हो वही
तीर्थंकरके दर्शनादिक करता है, कुछ किसीके आधीन नहीं है।
तथा देखो अज्ञानता! आयुधादि सहित रौद्रस्वरूप है जिनका, उनकी गा-गाकर भक्ति