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सातवाँ अधिकार ][ २०१
जैसे जिसके विषयासक्तपना हो — वह विषयासक्त पुरुषोंकी कथा भी रुचिपूर्वक सुने
व विषयके विशेषको भी जाने व विषयके आचरणमें जो साधन हों उन्हें भी हितरूप माने
व विषयके स्वरूपको भी पहिचाने; उसी प्रकार जिसके आत्मरुचि हुई हो — वह आत्मरुचिके
धारक तीर्थंकरादिके पुराणोंको भी जाने तथा आत्माके विशेष जाननेके लिये गुणस्थानादिकको
भी जाने। तथा आत्म-आचरणमें जो व्रतादिक साधन हैं उनको भी हितरूप माने तथा आत्माके
स्वरूपको भी पहिचाने। इसलिये चारों ही अनुयोग कार्यकारी हैं।
तथा उनका अच्छा ज्ञान होनेके अर्थ शब्द – न्यायशास्त्रादिकको भी जानना चाहिये।
इसलिये अपनी शक्तिके अनुसार सभीका थोड़ा या बहुत अभ्यास करना योग्य है।
फि र वह कहता है — ‘पद्मनन्दि पच्चीसी’१ में ऐसा कहा है कि आत्मस्वरूपसे निकलकर
बाह्य शास्त्रोंमें बुद्धि विचरती है, सो वह बुद्धि व्यभिचारिणी है?
उत्तर : — यह सत्य कहा है। बुद्धि तो आत्माकी है; उसे छोड़कर परद्रव्य – शास्त्रोंमें
अनुरागिनी हुई; उसे व्यभिचारिणी ही कहा जाता है।
परन्तु जैसे स्त्री शीलवती रहे तो योग्य ही है, और न रहा जाय तब उत्तम पुरुषको
छोड़कर चांडालादिकका सेवन करनेसे तो अत्यन्त निन्दनीय होगी; उसी प्रकार बुद्धि
आत्मस्वरूपमें प्रवर्ते तो योग्य ही है, और न रहा जाय तो प्रशस्त शास्त्रादि परद्रव्योंको छोड़कर
अप्रशस्त विषयादिमें लगे तो महानिन्दनीय ही होगी। सो मुनियोंकी भी स्वरूपमें बहुत काल
बुद्धि नहीं रहती, तो तेरी कैसे रहा करे?
इसलिये शास्त्राभ्यासमें उपयोग लगाना योग्य है।
तथा यदि द्रव्यादिकके और गुणस्थानादिकके विचारको विकल्प ठहराता है, सो विकल्प
तो है; परन्तु निर्विकल्प उपयोग न रहे तब इन विकल्पोंको न करे तो अन्य विकल्प होंगे,
वे बहुत रागादि गर्भित होते हैं। तथा निर्विकल्पदशा सदा रहती नहीं है; क्योंकि छद्मस्थका
उपयोग एकरूप उत्कृष्ट रहे तो अन्तर्मुर्हूत रहता है।
तथा तू कहेगा कि मैं आत्मस्वरूपका ही चिंतवन अनेक प्रकार किया करूँगा; सो
सामान्य चिंतवनमें तो अनेक प्रकार बनते नहीं हैं, और विशेष करेगा तो द्रव्य-गुण-पर्याय,
गुणस्थान, मार्गणा, शुद्ध-अशुद्ध अवस्था इत्यादि विचार होगा।
१. बाह्यशास्त्रगहने विहारिणी या मतिर्बहुविकल्पधारिणी।
चित्स्वरूपकुलसद्मनिर्गता सा सती न सदृशी कुयोषिता।।३८।।(सद्बोधचन्द्रोदयः अधिकार)