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२३४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
उपमालंकार करते हैं। उसी प्रकार सिद्धसुखको इन्द्रादिसुखसे अनन्तगुना कहा है, वहाँ उनकी
एक जाति नहीं है; परन्तु लोकमें इन्द्रादिसुखकी महिमा है, उससे बहुत महिमा बतलानेके लिये
उपमालंकार करते हैं।
फि र प्रश्न है कि वह सिद्धसुख और इन्द्रादिसुखकी एक जाति जानता है — ऐसा निश्चय
तुमने कैसे किया?
समाधानः — जिस धर्मसाधनका फल स्वर्ग मानता है, उस धर्मसाधनका ही फल मोक्ष
मानता है। कोई जीव इन्द्रादि पद प्राप्त करे, कोई मोक्ष प्राप्त करे, वहाँ उन दोनोंको एक जातिके
धर्मका फल हुआ मानता है। ऐसा तो मानता है कि जिसके साधन थोड़ा होता है वह इन्द्रादि
पद प्राप्त करता है, जिसके सम्पूर्ण साधन हो वह मोक्ष प्राप्त करता है; परन्तु वहाँ धर्मकी जाति
एक जानता है। सो जो कारणकी एक जाति जाने, उसे कार्यकी भी एक जातिका श्रद्धान
अवश्य हो; क्योंकि कारणविशेष होने पर ही कार्यविशेष होता है। इसलिये हमने यह निश्चय
किया कि उसके अभिप्रायमें इन्द्रादिसुख और सिद्धसुखकी एक जातिका श्रद्धान है।
तथा कर्मनिमित्तसे आत्माके औपाधिक भाव थे, उनका अभाव होने पर आप
शुद्धभावरूप केवल आत्मा हुआ। जैसे — परमाणु स्कन्धसे पृथक् होने पर शुद्ध होता है, उसी
प्रकार यह कर्मादिकसे भिन्न होकर शुद्ध होता है। विशेष इतना कि वह दोनों अवस्थामें
दुःखी-सुखी नहीं है; परन्तु आत्मा अशुद्ध अवस्थामें दुःखी था, अब उसका अभाव होनेसे
निराकुल लक्षण अनन्तसुखकी प्राप्ति हुई।
तथा इन्द्रादिकके जो सुख है वह कषायभावोंसे आकुलतारूप है, सो वह परमार्थसे
दुःख ही है; इसलिये उसकी और इसकी एक जाति नहीं है। तथा स्वर्गसुखका कारण
प्रशस्तराग है और मोक्षसुखका कारण वीतरागभाव है; इसलिये कारणमें भी विशेष है; परन्तु
ऐसा भाव इसे भासित नहीं होता।
इसलिये मोक्षका भी इसको सच्चा श्रद्धान नहीं है।
इस प्रकार इसके सच्चा तत्त्वश्रद्धान नहीं है। इसलिये समयसारमें
१ कहा है कि अभव्यको
तत्त्वश्रद्धान होने पर भी मिथ्यादर्शन ही रहता है। तथा प्रवचनसारमें कहा है कि आत्मज्ञानशून्य
तत्त्वार्थश्रद्धान कार्यकारी नहीं है।
तथा व्यवहारदृष्टिसे सम्यग्दर्शनके आठ अंग कहे हैं उनको यह पालता है, पच्चीस
१. गाथा २७६ – २७७ की आत्मख्याति टीका