Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


Page 232 of 350
PDF/HTML Page 260 of 378

 

background image
-
२४२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
शास्त्रमें ऐसा कहा है कि चारित्रमें ‘सम्यक्’ पद है; वह अज्ञानपूर्वक आचरणकी
निवृत्तिके अर्थ है; इसलिये प्रथम तत्त्वज्ञान हो और पश्चात् चारित्र हो सो सम्यक्चारित्र नाम
पाता है। जैसे
कोई किसान बीज तो बोये नहीं और अन्य साधन करे तो अन्न प्राप्ति
कैसे हो? घास-फू स ही होगा; उसी प्रकार अज्ञानी तत्त्वज्ञानका तो अभ्यास करे नहीं और
अन्य साधन करे तो मोक्षप्राप्ति कैसे हो? देवपद आदि ही होंगे।
वहाँ कितने ही जीव तो ऐसे हैं जो तत्त्वादिकके भली-भाँति नाम भी नहीं जानते,
केवल व्रतादिकमें ही प्रवर्तते हैं। कितने ही जीव ऐसे हैं जो पूर्वोक्त प्रकार सम्यग्दर्शन-ज्ञानका
अयथार्थ साधन करके व्रतादिमें प्रवर्तते हैं। यद्यपि वे व्रतादिकका यथार्थ आचरण करते हैं
तथापि यथार्थ श्रद्धान-ज्ञान बिना सर्व आचरण मिथ्याचारित्र ही है।
यही समयसार कलशमें कहा हैः
क्लिश्यन्तां स्वयमेव दुष्करतरैर्मोक्षोन्मुखैः कर्मभिः
क्लिश्यन्तां च परे महाव्रततपोभारेण भग्नाश्चिरम्
साक्षान्मोक्षमिदं निरामयपदं संवेद्यमानं स्वयं
ज्ञानं ज्ञानगुणं बिना कथमपि प्राप्तुं क्षमन्ते न हि
।।१४२।।
अर्थःमोक्षसे पराड्मुख ऐसे अति दुस्तर पंचाग्नि तपनादि कार्यों द्वारा आप ही क्लेश
करते हैं तो करो; तथा अन्य कितने ही जीव महाव्रत और तपके भारसे चिरकालपर्यन्त क्षीण
होते हुए क्लेश करते हैं तो करो; परन्तु यह साक्षात् मोक्षस्वरूप सर्वरोगरहित पद, जो अपने
आप अनुभवमें आये ऐसा ज्ञानस्वभाव, वह तो ज्ञानगुणके बिना अन्य किसी भी प्रकारसे
प्राप्त करनेमें समर्थ नहीं है।
तथा पंचास्तिकायमें जहाँ अंतमें व्यवहाराभासीका कथन किया है वहाँ तेरह प्रकारका
चारित्र होने पर भी उसका मोक्षमार्गमें निषेध किया है।
तथा प्रवचनसारमें आत्मज्ञानशून्य संयमभावको अकार्यकारी कहा है।
तथा इहीं ग्रन्थोंमें व अन्य परमात्मप्रकाशादि शास्त्रोंमें इस प्रयोजनके लिये जहाँ-तहाँ
निरूपण है।
इसलिये पहले तत्त्वज्ञान होने पर ही आचरण कार्यकारी है।
यहाँ कोई जाने कि बाह्यमें तो अणुव्रत-महाव्रतादि साधते हैं? परन्तु अन्तरंग परिणाम
नहीं हैं और स्वर्गादिककी वांछासे साधते हैं,सो इस प्रकार साधनेसे पापबन्ध होता है।