Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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२७४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा जो सम्यक्त्वरहित मुनिलिंग धारण करे, व द्रव्यसे भी कोई प्रतिचार लगाता हो,
उसे मुनि कहते हैं। सो मुनि तो षष्ठादि गुणस्थानवर्ती होने पर होता है; परन्तु पूर्ववत् उपचारसे
उसे मुनि कहा है। समवसरणसभामें मुनियोंकी संख्या कही, वहाँ सर्व ही शुद्ध भावलिंगी
मुनि नहीं थे; परन्तु मुनिलिंग धारण करनेसे सभीको मुनि कहा। इसीप्रकार अन्यत्र जानना।
तथा प्रथमानुयोगमें कोई धर्मबुद्धिसे अनुचित कार्य करे उसकी भी प्रशंसा करते हैं।
जैसेविष्णुकुमारने मुनियोंका उपसर्ग दूर किया सो धर्मानुरागसे किया; परन्तु मुनिपद छोड़कर
यह कार्य करना योग्य नहीं था; क्योंकि ऐसा कार्य तो गृहस्थधर्ममें सम्भव है और गृहस्थधर्मसे
मुनिधर्म ऊँचा है; सो ऊँचा धर्म छोड़कर नीचा धर्म अंगीकार किया वह अयोग्य है; परन्तु
वात्सल्य अंगकी प्रधानतासे विष्णुकुमारजीकी प्रशंसा की है। इस छलसे औरोंको ऊँचा धर्म
छोड़कर नीचा धर्म अंगीकार करना योग्य नहीं है।
तथा जिस प्रकार ग्वालेने मुनिको अग्निसे तपाया, सो करुणासे यह कार्य किया; परन्तु
आये हुए उपसर्गको तो दूर करे, सहज अवस्थामें जो शीतादिकका परीषह होता है, उसे
दूर करने पर रति माननेका कारण होता है और उन्हें रति करना नहीं है, तब उल्टा उपसर्ग
होता है। इसीसे विवेकी उनके शीतादिकका उपचार नहीं करते। ग्वाला अविवेकी था,
करुणासे यह कार्य किया, इसलिये उसकी प्रशंसा की है, परन्तु छलसे औरोंको धर्मपद्धतिमें
जो विरुद्ध हो वह करना योग्य नहीं है।
तथा जैसेवज्रकरण राजाने सिंहोदर राजाको नमन नहीं किया, मुद्रिकामें प्रतिमा रखी;
सो बड़े-बड़े सम्यग्दृष्टि राजादिकको नमन करते हैं, उसमें दोष नहीं है; तथा मुद्रिकामें प्रतिमा
रखनेमें अविनय होती है, यथावत् विधिसे ऐसी प्रतिमा नहीं होती, इसलिये इस कार्यमें दोष
है; परन्तु उसे ऐसा ज्ञान नहीं था, उसे तो धर्मानुरागसे ‘मैं और को नमन नहीं करूँगा’
ऐसी बुद्धि हुई; इसलिये उसकी प्रशंसा की है। परन्तु इस छलसे औरोंको ऐसे कार्य करना
योग्य नहीं है।
तथा कितने ही पुरुषोंने पुत्रादिककी प्राप्तिके अर्थ अथवा रोगकष्टादि दूर करनेके
अर्थ चैत्यालय पूजनादि कार्य किये, स्तोत्रादि किये, नमस्कारमन्त्र स्मरण किया; परन्तु ऐसा
करनेसे तो निःकांक्षितगुणका अभाव होता है, निदानबन्ध नामक आर्तध्यान होता है, पापका
ही प्रयोजन अन्तरंगमें है, इसलिये पापका ही बन्ध होता है; परन्तु मोहित होकर बहुत
पापबन्धका कारण कुदेवादिका तो पूजनादि नहीं किया, इतना उसका गुण ग्रहण करके उसकी
प्रशंसा करते हैं। इस छलसे औरोंको लौकिक कार्योंके अर्थ धर्म-साधन करना युक्त नहीं है।
इसीप्रकार अन्यत्र जानना।