Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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६६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
कदाचित् किंचित् किसी कारणसे होते हैं। तथा अरति-शोक-भय-जुगुप्साके बाह्य कारण बन
रहे हैं, इसलिये वे कषायें तीव्र प्रगट होती हैं। तथा वेदोंमें नपुंसकवेद है, सो इच्छा तो
बहुत और स्त्री-पुरुषोंसे रमण करनेका निमित्त नहीं है, इसलिये महा पीड़ित हैं।
इस प्रकार कषायों द्वारा अति दुःखी हैं।
तथा वेदनीयमें असाता ही का उदय है उससे वहाँ अनेक वेदनाओंके निमित्त हैं, शरीरमें
कुष्ठ, कास, श्वासादि अनेक रोग युगपत् पाये जाते हैं और क्षुधा, तृषा ऐसी है कि सर्वका
भक्षण-पान करना चाहते हैं, और वहाँकी मिट्टीका ही भोजन मिलता है, वह मिट्टी भी ऐसी
है कि यदि यहाँ आ जाये तो उसकी दुर्गन्धसे कई कोसोंके मनुष्य मर जायें। और वहाँ शीत,
उष्णता ऐसी है कि यदि लाख योजनका लोहेका गोला हो तो वह भी उनसे भस्म हो जाये।
कहीं शीत है कहीं उष्णता है। तथा पृथ्वी वहाँ शस्त्रोंसे भी महातीक्ष्ण कंटकों सहित है।
उस पृथ्वीमें जो वन हैं वे शस्त्रकी धार समान पत्रादि सहित हैं। नदी ऐसे जल युक्त है कि
जिसका स्पर्श होने पर शरीर खण्ड-खण्ड हो जाये। पवन ऐसा प्रचण्ड है कि उससे शरीर
दग्ध हो जाता है। तथा नारकी एक-दूसरेको अनेक प्रकारसे पीड़ा देते हैं, घानीमें पेलते हैं,
खण्ड-खण्ड कर डालते हैं, हंडियोंमें राँधते हैं, कोड़े मारते हैं, तप्त लोहादिकका स्पर्श कराते
हैं
इत्यादि वेदना उत्पन्न करते हैं। तीसरी पृथ्वी तक असुरकुमार देव जाते हैं। वे स्वयं
पीड़ा देते हैं और परस्पर लड़ाते हैं। ऐसी वेदना होने पर भी शरीर छूटता नहीं है, पारेकी
भाँति खण्ड-खण्ड हो जाने पर भी मिल जाता है।
ऐसी महा पीड़ा है।
तथा साताका निमित्त तो कुछ है नहीं। किसी अंशमें कदाचित् किसीको अपनी मान्यतासे
किसी कारण-अपेक्षा साताका उदय होता है तो वह बलवान नहीं होता। आयु वहाँ बहुत है।
जघन्य आयु दस हजार वर्ष तथा उत्कृष्ट आयु तेतीस सागर है। इतने काल तक वहाँ ऐसे
दुःख सहने पड़ते हैं। वहाँ नामकर्मकी सर्व पापप्रकृतियोंका ही उदय है, एक भी पुण्यप्रकृतिका
उदय नहीं है; उनसे महा दुःखी हैं। तथा गोत्रमें नीच गोत्रका ही उदय है उससे महन्तता
नहीं होती, इसलिये दुःखी ही हैं।
इस प्रकार नरकगतिमें महा दुःख जानना।
तिर्यंच गतिके दुःख
तथा तिर्यंचगतिमें बहुत लब्घि-अपर्याप्त जीव हैं। उनकी तो उच्छ्वासके अठारहवें भाग-
मात्र आयु है। तथा कितने ही पर्याप्त भी छोटे जीव हैं, परन्तु उनकी शक्ति प्रगट भासित
नहीं होती। उनके दुःख एकेन्द्रियवत् जानना; ज्ञानादिकका विशेष है सो विशेष जानना।
तथा बड़े पर्याप्त जीव कितने ही सम्मूर्च्छन हैं, कितने ही गर्भज हैं। उनमें ज्ञानादिक प्रगट