Moksha Shastra-Gujarati (Devanagari transliteration). Sutra: 12-20 (Chapter 1).

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 6 of 36

 

Page 46 of 655
PDF/HTML Page 101 of 710
single page version

अ. १. सूत्र १२-१३] [४३ सन्मुख जे भावश्रुतज्ञान छे (ते जोके केवळज्ञाननी अपेक्षाए परोक्ष छे तोपण) तेने विशेष कथनमां प्रत्यक्ष कह्युं छे.

जो मति अने श्रुत बन्ने मात्र परोक्ष ज होत तो सुख-दुःखादिनुं जे संवेदन (ज्ञान) थाय छे ते पण परोक्ष होत, पण ते संवेदन प्रत्यक्ष छे, एम दरेक जाणे छे. (जुओ, श्री बृहद्-द्रव्यसंग्रह गाथा प-नीचे टीका. हिंदी पानुं १३ थी १प, ईंग्लिश पानुं १७-१८.) उत्सर्ग = सामान्य, General ordinance-सामान्य नियम; अपवाद = खास नियम, Exception-विशेष.

नोंधः– आवुं उत्सर्गकथन ‘ध्यान’ संबंधमां अध्याय ९ सूत्र र७-प७मां कह्युं छे त्यां

अपवादनुं कथन नथी कर्युं. (जुओ, बृहद् द्रव्यसंग्रह गाथा प७ नीचे हिंदी टीका पानुं-र११) ए रीते ज्यां उत्सर्गकथन होय त्यां अपवादकथन गर्भित छे-एम समजवुं. ११.

प्रत्यक्ष प्रमाणना भेद
प्रत्यक्षमन्यत्।। १२।।
अर्थः– [अन्यत्] बाकीनां त्रण अर्थात् अवधि, मनःपर्यय अने केवळज्ञान

[प्रत्यक्षम] प्रत्यक्ष प्रमाण छे.

टीका

अवधिज्ञान अने मनःपर्ययज्ञान विकल-प्रत्यक्ष छे अने केवळज्ञान सकल-प्रत्यक्ष छे. [प्रत्यक्ष = प्रति × अक्ष] ‘अक्ष’नो अर्थ आत्मा छे. आत्मा प्रति जेनो नियम होय एटले पर निमित्त-ईंद्रियो, मन, आलोक, उपदेश वगेरे रहित आत्माने आश्रये जे ऊपजे, जेमां बीजुं कांई निमित्त न होय एवुं ज्ञान ते प्रत्यक्षज्ञान कहेवाय छे. १र.

मतिज्ञाननां बीजां नामो
मतिःस्मृतिःसंज्ञाचिंताभिनिबोधइत्यनर्थांतरम्।। १३।।
अर्थः– [मतिः] मति, [स्मृतिः] स्मृति, [संज्ञा] संज्ञा, [चिंता] चिंता,

[अभिनिबोध] अभिनिबोध, [इति] ईत्यादि [अनर्थांतरम्] अन्य पदार्थो नथी अर्थात् ते मतिज्ञाननां नामांतर छे.

टीका

मतिः– मन अगर ईन्द्रियोथी, वर्तमानकाळवर्ती पदार्थने अवग्रहादिरूप साक्षात् जाणवो ते मति छे.


Page 47 of 655
PDF/HTML Page 102 of 710
single page version

४४] [मोक्षशास्त्र

स्मृतिः– पहेलां जाणेला, सांभळेला के अनुभव करेला पदार्थनुं वर्तमानमां स्मरण आवे ते स्मृति छे.

संज्ञाः– तेनुं बीजुं नाम प्रत्यभिज्ञान छे. वर्तमानमां कोई पदार्थने जोतां ‘आ पदार्थ ते ज छे के जेने पहेलां जोयो हतो,’ ए रीते स्मरण अने प्रत्यक्षना जोडरूप ज्ञानने संज्ञा कहे छे.

चिंताः– चिंतवन ज्ञान अर्थात् कोई चिह्नने देखीने ‘अहीं ते चिह्नवाळो जरूर होवो जोईए’ एवो विचार ते चिंता छे. आ ज्ञानने ऊह, ऊहा, तर्क अथवा व्याप्तिज्ञान पण कहे छे.

अभिनिबोधः– स्वार्थानुमान-अनुमान ए तेनां बीजा नाम छे. सन्मुख चिह्नादि देखी ते चिह्नवाळा पदार्थनो निर्णय करवो ते ‘अभिनिबोध’ छे.

जोके आ बधानो अर्थभेद छे पण प्रसिद्ध रूढिना बळथी ते मतिना नामांतर कहेवाय छे. ते बधांना प्रगट थवामां मतिज्ञानावरण कर्मनो क्षयोपशम निमित्तमात्र छे, ते लक्षमां राखी तेने मतिज्ञाननां नामांतर कहेवामां आवे छे.

आ सूत्र सिद्ध करे छे के जेणे आत्माना स्वरूपनुं यथार्थ ज्ञान कर्युं न होय ते आत्मानुं स्मरण करी शके नहि; केमके स्मृति तो पूर्वे अनुभवेला पदार्थनी ज होय छे तेथी अज्ञानीने प्रभुस्मरण (आत्मस्मरण) होतुं ज नथी; परंतु ‘राग मारो’ एवी पक्कडनुं स्मरण होय छे केमके तेनो तेने अनुभव छे. ए रीते अज्ञानी धर्मना नामे गमे ते कार्यो करे तोपण तेनुं ज्ञान मिथ्या होवाथी तेने धर्मनुं स्मरण थतुं नथी पण रागनी पक्कडनुं स्मरण थाय छे.

संवेदन, बुद्धि, मेधा, प्रतिभा, प्रज्ञा ए वगेरे पण मतिज्ञानना भेदो छे. स्वसंवेदनः– सुखादि अंतरंग विषयोनुं ज्ञान ते स्वसंवेदन छे. बुद्धिः– बोधनमात्रपणुं ते बुद्धि छे, बुद्धि, प्रतिभा, प्रज्ञा ए मतिज्ञाननी तारतम्यता (हीन-अधिकपणुं) सूचक ज्ञानना भेदो छे.

अनुमान बे प्रकारना छे. एक मतिज्ञाननो भेद छे, बीजो श्रुतज्ञाननो भेद छे. साधन देखतां पोताथी साध्यनुं ज्ञान थवुं ते मतिज्ञान छे. बीजाना हेतु अने तर्कना वाक्य सांभळीने जे अनुमानज्ञान थाय ते श्रुतअनुमान छे; चिह्नादि उपरथी ते ज पदार्थनुं अनुमान थवुं ते मतिज्ञान छे, अने चिह्नादि उपरथी बीजा पदार्थनुं अनुमान थवुं ते श्रुतज्ञान छे.


Page 48 of 655
PDF/HTML Page 103 of 710
single page version

अ. १. सूत्र १४] [४प

मतिज्ञाननी उत्पत्ति समये निमित्त
तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्।। १४।।
अर्थः– [इन्द्रियानिन्द्रिय] इन्द्रियो अने मन [तत्] ते मतिज्ञानमां

[निमित्तम्] निमित्त छे.

टीका

इन्द्रिय–आत्मा (इन्द्र=आत्मा) परम ऐश्वर्यरूप प्रवर्ते छे. एम अनुमान करावनारुं शरीरनुं चिह्न.

नोइन्द्रिय–मन; जे सूक्ष्म पुद्गलस्कंध मनोवर्गणा नामथी ओळखाय छे तेनुं बनेलुं शरीरनुं अंतरंगनुं अंग, ते आठ पांखडीना कमळना आकारे हृदयस्थान पासे छे.

मतिज्ञान थवामां इन्द्रिय-मन निमित्त थाय छे एम आ सूत्रमां कह्युं छे, ते परद्रव्योना थता ज्ञाननी अपेक्षाए कह्युं छे एम समजवुं. अंदर स्वलक्षमां मन- इन्द्रिय निमित्त नथी. जीव तेनाथी (मन-इन्द्रियना अवलंबनथी) अंशे जुदो पडे त्यारे स्वतंत्रतत्त्वनुं ज्ञान करी तेमां ठरी शके छे. [समयसार-प्रवचनो भाग १ पानुं-प१३]

इन्द्रियोनो धर्म तो ए छे के स्पर्श, रस, गंध, वर्णने जाणवामां निमित्त थाय; आत्मामां ते नथी तेथी स्वलक्षमां इन्द्रियो निमित्त नथी. मननो धर्म ए छे के- अनेक विकल्पमां ते निमित्त थाय, ते विकल्प पण अहीं (स्वलक्षमां) नथी. जे ज्ञान इन्द्रियो द्वारा तथा मनद्वारा प्रवर्ततुं ते ज ज्ञान निजअनुभवमां वर्ते छे; ए रीते आ मतिज्ञानमां मन-इन्द्रिय निमित्त नथी. आ ज्ञान अतीन्द्रिय छे. मननो विषय मूर्तिक-अमूर्तिक पदार्थो छे तेथी मन संबंधी परिणाम स्वरूप विषे एकाग्र थई अन्य चिंतवननो निरोध करे छे ए कारणे तेने (उपचारथी) मनद्वारा थयुं कहेवामां आवे छे. [मोक्षमार्ग प्रकाशक पानुं ३४प-३४६] आवो अनुभव चोथा गुणस्थानथी ज थाय छे. [मो. मा. प्र. पानुं-३४९]

आ सूत्रमां मतिज्ञानने इन्द्रिय-मन निमित्त छे एम जणाव्युं छे, पण मतिज्ञानमां जणाता अर्थ (वस्तु) अने प्रकाश (अजवाळुं, आलोक) ने निमित्त कह्यां नथी; तेनुं कारण ए छे के अर्थ अने प्रकाश मतिज्ञानमां निमित्त नथी. तेमने निमित्त मानवां ए भूल छे. आ विषय खास समजवा जेवो होवाथी ते श्री प्रमेयरत्नमाळा हिंदी पानुं प० थी पप मांथी अहीं टूंकमां आपवामां आवे छेः-


Page 49 of 655
PDF/HTML Page 104 of 710
single page version

४६] [मोक्षशास्त्र

प्रश्नः– सांव्यवहारिक मतिज्ञाननुं निमित्तकारण इंद्रियादि कह्युं तेम (ज्ञेय) पदार्थ अने अजवाळाने निमित्तकारण केम कह्यां नथी?

प्रश्नकारनी दलीलः– अर्थ-वस्तुथी पण ज्ञान ऊपजे छे; अने प्रकाशथी पण ज्ञान ऊपजे छे; तेने निमित्त कहेवामां न आवे तो बधां निमित्तकारणो आवी जतां नथी, तेथी सूत्र अपूर्ण रहे छे.

समाधानः– आचार्य भगवान कहे छे के-
नार्थालोकौकारणं परिच्छेद्यत्वात्तमोवत्।।
(बीजो समुद्देश)

अर्थः– अर्थ (वस्तु) अने आलोक (प्रकाश) ए बन्ने सांव्यवहारिक प्रत्यक्षनुं कारण नथी, पण ते मात्र परिच्छेद्य (ज्ञेय-जाणवा योग्य) छे, जेम अंधकार ज्ञेय छे तेम ज ते ज्ञेय छे.

आ न्याय समजाववा माटे त्यारपछी सातमुं सूत्र आप्युं छे तेमां जणाव्युं छे के-अर्थ अने आलोक होय त्यारे ज्ञान ऊपजे ज अने न होय त्यारे न ऊपजे एवो नियम नथी. तेनां द्रष्टांतोः-

द्रष्टांत–(१)ः– एक माणसना माथा उपर मच्छरनो समूह ऊडतो हतो पण बीजाए तेने वाळनो झूमखो दीठो-जाण्यो; अहीं अर्थ (वस्तु) ज्ञाननुं कारण न थयुं,

द्रष्टांत–(र)ः– अंधारामां बिलाडी, चोर, रातना चरनारा वगेरे देखे छे, तेथी ज्ञान थवामां प्रकाश कारण आव्युं नहि.

उपर द्रष्टांत १ मां तो मच्छरोनो समूह हतो छतां ज्ञान तो केश (वाळ) ना झूमखानुं थयुं; जो अर्थ ज्ञाननुं कारण होय तो केशना झूमखानुं ज्ञान केम थयुं अने मच्छरोना समूहनुं ज्ञान केम न थयुं? अने द्रष्टांत र मां बिलाडी आदिने अंधारामां ज्ञान थयुं; जो प्रकाश ज्ञाननुं कारण होय तो तेने अंधारामां ज्ञान केम थयुं?

प्रश्नः– त्यारे आ मतिज्ञान शुं कारणे थाय छे? उत्तरः– क्षायोपशमिक ज्ञान (उघाड) नी योग्यताने अनुसरीने ज्ञान थाय छे; ज्ञान थवानुं ए कारण छे. ज्ञानना ते उघाडने अनुसरीने आ ज्ञान थाय छे, वस्तुने अनुसरीने थतुं नथी, तेथी वस्तु ज्ञान थवामां निमित्तकारण नथी एम समजवुं. आगळ सूत्र ९ मां आ न्याय सिद्ध कर्यो छे.

जेम दीपक घट वगेरे पदार्थोथी ऊपजतो नथी तोपण ते अर्थनो प्रकाशक छे. [सूत्र-८]


Page 50 of 655
PDF/HTML Page 105 of 710
single page version

अ. १. सूत्र १४] [४७

जे ज्ञाननी क्षयोपशमलक्षणयोग्यता छे ते ज विषय प्रत्ये नियमरूप ज्ञान थवानुं कारण छे-एम समजवुं. [सूत्र ९]

ज्यारे आत्माने मतिज्ञान थाय छे त्यारे इन्द्रिय अने मन ए बन्ने निमित्तमात्र छे, ते मात्र एटलुं बतावे छे के ‘आत्मा’ उपादान छे. निमित्त पोतामां (निमित्तमां) सोए सो टका कार्य करे छे पण उपादानमां ते अंशमात्र कार्य करतुं नथी. निमित्त पर द्रव्य छे, आत्मा तेनाथी जुदुं द्रव्य छे; तेथी आत्मामां (उपादानमां) तेनो (निमित्तनो) अत्यंत अभाव छे. एक द्रव्य बीजा द्रव्यना क्षेत्रमां पेसी शकतुं नथी, तेथी निमित्त उपादानने कांई करी शके नहि; उपादान पोतामां पोतानुं कार्य पोताथी सोए सो टका करे छे. मतिज्ञान ते परोक्षज्ञान छे एम ११ मा सूत्रमां कह्युं छे;-परोक्षज्ञान होवाथी ते ज्ञान वखते निमित्तनी पोताथी पोताने कारणे हाजरी होय छे. ते हाजर रहेलुं निमित्त केवा प्रकारनुं होय छे तेनुं ज्ञान कराववा माटे आ सूत्र कह्युं छे, पण ‘निमित्त आत्मामां कांई पण करी शके छे’ एम बताववा आ सूत्र कह्युं नथी. जो निमित्त आत्मामां कांई करतुं होय तो निमित्त पोते ज उपादान थई जाय.

वळी ‘निमित्त’ ए पण उपादानने कारणे मात्र आरोप छे; जो जीव चक्षु द्वारा ज्ञान करे तो चक्षु उपर निमित्तनो आरोप आवे, अने जो जीव बीजी इन्द्रीय के मन द्वारा ज्ञान करे तो तेना उपर निमित्तनो आरोप आवे.

एक द्रव्य परमां अकिंचित्कर छे अर्थात् कांई करी शकतुं नथी. अन्य द्रव्यनो अन्य द्रव्यमां प्रवेश छे ज नहि; अन्य द्रव्य अन्य द्रव्यना पर्यायनो उत्पादक छे ज नहि; केमके दरेक वस्तु पोताना अंतरंगमां अत्यंत (संपूर्ण) प्रकाशे छे, परमां लेशमात्र नहि; तेथी निमित्तभूत वस्तु उपादानभूत वस्तुने कांई करी शके नहि. उपादानमां निमित्तनी द्रव्ये-क्षेत्रे-काळे अने भावे नास्ति छे, अने निमित्तमां उपादाननी द्रव्ये-क्षेत्रे-काळे अने भावे नास्ति छे; एटले एकबीजानुं शुं करी शके? जो एक वस्तु बीजी वस्तुनुं कांई करे तो वस्तु पोतानुं वस्तुपणुं ज खोई बेसे पण तेम बने ज नहि.

[निमित्त=संयोगरूप कारणः उपादान=वस्तुनी सहज शक्ति.] सूत्र १०नी

टीकामां निमित्त-उपादान संबंधी खुलासो कर्यो छे माटे त्यांथी वांची समजी लेवो.

उपादान–निमित्त कारणो
दरेक कार्यमां बे कारणो होय छे-(१) उपादान, (र) निमित्त. तेमां उपादान तो

Page 51 of 655
PDF/HTML Page 106 of 710
single page version

४८] [मोक्षशास्त्र निश्चय (खरुं) कारण छे अने निमित्त ते व्यवहारकारण छे एटले के ते (ज्यारे उपादान कार्य करतुं होय त्यारे तेने) अनुकूळ हाजररूप होय छे. कार्य वखते निमित्त होय छे पण उपादानमां ते कंई कार्य करी शकतुं नथी तेथी तेने ‘व्यवहारकारण’ कहेवामां आवे छे. कार्य थाय त्यारे निमित्तनी हाजरीना बे प्रकार छेः (१) खरेखर हाजरी, (र) कल्पित हाजरी. ज्यारे छद्मस्थ जीव विकार करे त्यारे द्रव्यकर्मनो उदय हाजररूप होय ज, त्यां द्रव्यकर्मनो उदय ते विकारनुं खरेखर हाजरीरूप निमित्तकारण छे, (जो जीव विकार न करे तो ते ज द्रव्यकर्मनी निर्जरा थई कहेवाय छे,) तथा जीव विकार करे त्यारे नोकर्मनी हाजरी खरेखर होय अथवा कल्पनारूप होय.

निमित्त होतुं ज नथी एम कही कोई निमित्तना अस्तित्वनो नकार करे त्यारे, ‘उपादान अपूर्ण होय त्यारे निमित्त हाजर होय ज.’ ए बतावाय, पण ए तो निमित्तनुं ज्ञान कराववा माटे छे. तेथी निमित्तनुं ज अस्तित्व जे कबूल न करे तेनुं ज्ञान सम्यग्ज्ञान नथी. अहीं सम्यग्ज्ञाननो विषय होवाथी आचार्यभगवाने निमित्त केवुं होय तेनुं ज्ञान कराव्युं छे. निमित्त उपादानने कांई करे एम जे माने तेनी मान्यता खोटी छे, तेथी तेने सम्यग्दर्शन नथी-एम समजवुं. .।। १४।।

मतिज्ञानना क्रमना भेदो
अवग्रहेहावायधारणाः।। १५।।
अर्थः– [अवग्रह ईहा अवाय धारणाः] अवग्रह, ईहा, अवाय अने धारणा

एम चार भेदो छे.

टीका

अवग्रह-चेतनामां जे थोडो विशेषाकार भासवा लागे छे ते पहेलां थनारुं ज्ञान-तेने ‘अवग्रह’ कहे छे. विषय अने विषयी (विषय करनार) नुं योग्य स्थानमां आव्या पछी आद्यग्रहण ते अवग्रह छे. स्व अने पर बन्नेनो (जे वखते जे विषय होय तेनो) पहेलां अवग्रह थाय छे. [Perception]

ईहा–अवग्रह द्वारा जाणवामां आवेला पदार्थने विशेषरूप जाणवानी चेष्टाने ‘ईहा’ कहे छे. ईहानुं विशेष वर्णन ११मा सूत्रनी नीचे आप्युं छे. [Conception]

अवाय–विशेष चिह्न देखवाथी तेनो निश्चय थई जाय ते अवाय छे. [Judgment] _________________________________________________________________ १ उपस्थित; विद्यमान.


Page 52 of 655
PDF/HTML Page 107 of 710
single page version

अ. १. सूत्र १६] [४९

धारणा– अवायथी निर्णय करेला पदार्थने काळांतरे न भूलवो ते धारणा छे. [Retention]

आत्माना अवग्रह–ईहा–अवाय अने धारणा

जीवने अनादिथी पोताना स्वरूपनी भ्रमणा छे, माटे प्रथम आत्मज्ञानी पुरुष पासेथी आत्मानुं स्वरूप सांभळीने, युक्तिद्वारा आत्मा ज्ञानस्वभावी छे एवो निर्णय करवो... पछी-

पर पदार्थनी प्रसिद्धिनां कारणो जे इन्द्रिय द्वारा तथा मन द्वारा प्रवर्तती बुद्धि तेने मर्यादामां लावीने एटले पर पदार्थो तरफथी पोतानुं लक्ष खेंची आत्मा पोते ज्यारे स्वसन्मुख लक्ष करे छे त्यारे, प्रथम सामान्य स्थूळपणे आत्मा संबंधी ज्ञान थयुं; ते आत्मानो अर्थावग्रह थयो. पछी विचारना निर्णय तरफ वळ्‌यो ते ईहा, निर्णय थयो ते अवाय अर्थात् ईहाथी जाणेला आत्मामां आ ते ज छे, अन्य नथी एवा मजबूत ज्ञानने अवाय कहे छे. आत्मा संबंधी काळांतरमां संशय तथा विस्मरण न थाय तेने धारणा कहे छे. त्यां सुधी तो परोक्ष एवा मतिज्ञानमां धारणा सुधीनो छेल्लो भेद थयो. पछी आ आत्मा अनंत ज्ञानानंद शांतिस्वरूपे छे तेम मतिमांथी लंबातुं तार्किक ज्ञान ते श्रुतज्ञान छे. अंदर स्वलक्षमां मन-इन्द्रिय निमित्त नथी. जीव तेनाथी अंशे जुदो पडे त्यारे स्वतंत्र तत्त्वनुं ज्ञान करी तेमां ठरी शके छे.

अवग्रह के ईहा थाय परंतु जो ते लक्ष चालु न रहे तो आत्मानो निर्णय न थाय एटले के अवायज्ञान न थाय, माटे अवायनी खास जरूर छे. आ ज्ञान थती वखते विकल्प, राग, मन के परवस्तु तरफ लक्ष होतुं ज नथी, पण स्वसन्मुख लक्ष होय छे.

सम्यग्द्रष्टिने पोतानुं (आत्मानुं) ज्ञान थती वखते आ चारे प्रकारनुं ज्ञान थाय छे. धारणा ए स्मृति छे; जे आत्माने सम्यग्ज्ञान अप्रतिहत भावे थयुं होय तेने आत्मानुं ज्ञान धारणारूपे रह्या ज करे छे. ।। १प।।

अवग्रहादिना विषयभूत पदार्थ
बहुबहुविधक्षिप्रानिःसृतानुक्तध्रुवाणां सेतराणांय।। १६।।
अर्थः– [बहु] बहु [बहुविध] बहु प्रकार [क्षिप्र] क्षिप्र-जलदी, [अनिःसृत]

अनिसृत, [अनुक्त] अनुक्त, [ध्रुवाणां] ध्रुव, [सइतराणाम्] तेमना ऊलटा भेदो


Page 53 of 655
PDF/HTML Page 108 of 710
single page version

प०] [मोक्षशास्त्र सहित अर्थात् एक, एकविध, अक्षिप्र, निःसृत, उक्त अने अध्रुव एम बार प्रकारना पदार्थोनुं अवग्रह, ईहादिरूप ज्ञान थाय छे.

टीका

१. बहु–एकी साथे घणा पदार्थोनुं अथवा घणा जथ्थानुं अवग्रहादि थवुं (जेम लोकोनां टोळांनुं अथवा खडनी गंजीनुं), घणा पदार्थो ज्ञानगोचर थवा.

र. एक– अल्प अथवा एक पदार्थनुं ज्ञान थवुं (जेम-एक माणसनुं अथवा पाणीना प्यालानुं), थोडा पदार्थ ज्ञानगोचर थवा.

३. बहुविध– घणा प्रकारना पदार्थोनुं अवग्रहादि ज्ञान थवुं (जेम कूतरा साथेनो माणस अथवा घउं-चणा-चोखा वगेरे घणी जातना पदार्थो), युगपत् घणा प्रकारना पदार्थो ज्ञानगोचर थवा.

४. एकविध– एक प्रकारना पदार्थोनुं ज्ञान थवुं (जेम-एक जातना घउंनुं ज्ञान); एक प्रकारना पदार्थो ज्ञानगोचर थवा.

प. क्षिप्र– शीघ्रताथी पदार्थनुं ज्ञान थवुं. ६. अक्षिप्र– कोई पदार्थने धीरे धीरे घणा वखते जाणवो-चिरग्रहण. ७. अनिःसृत– एक भागना ज्ञानथी सर्वभागनुं ज्ञान थवुं (जेम बहार नीकळेली सूंढने देखी पाणीमां डूबेला पूरा हाथीनुं ज्ञान थवुं), एक भाग अव्यक्त रह्या छतां ज्ञानगोचर थवुं.

८. निःसृत– बहार नीकळेला प्रगट पदार्थोनुं ज्ञान थवुं, पूर्ण व्यक्त होय तेवा पदार्थनुं ज्ञानगोचर थवुं.

९. अनुक्त– (नहि कहेल) -जे वस्तुनुं वर्णन आप्युं नथी तेने जाणवी, जेनुं वर्णन न सांभळवा छतां पदार्थ ज्ञानगोचर थवो.

१०. उक्त– कहेला पदार्थनुं ज्ञान थवुं, वर्णन सांभळ्‌या पछी पदार्थ ज्ञानगोचर थवो.

११. ध्रुव– घणा काळ सुधी ज्ञान एवुं ने एवुं रहेवुं, द्रढतावाळुं ज्ञान. १र. अध्रुव– जे क्षणे क्षणे हीन-अधिक थाय तेवुं ज्ञान, अस्थिर ज्ञान. आ बधा भेदो सम्यक्मतिज्ञानना छे. जेने सम्यग्ज्ञान थयुं होय ते जाणे छे के- आत्मा खरेखर पोताना ज्ञान पर्यायने जाणे छे, पर तो ते ज्ञाननुं निमित्तमात्र छे. ‘परने जाण्युं’ एम कहेवुं ते व्यवहार छे. जो ‘परने जाणे छे’ एम परमार्थद्रष्टिए


Page 54 of 655
PDF/HTML Page 109 of 710
single page version

अ. १. सूत्र १६] [प१ कहीए तो ते खोटुं छे, केमके तेम थतां आत्मा अने पर (ज्ञान अने ज्ञेय) बन्ने एक थई जाय; केमके “जेनुं जे होय ते ते ज होय” तेथी खरेखर ‘पुद्गलनुं ज्ञान’ छे एम कहीए तो ज्ञान पुद्गलरूप-ज्ञेयरूप थई जाय, माटे निमित्त संबंधी पोताना ज्ञानना पर्यायने आत्मा जाणे छे एम समजवुं (जुओ, श्री समयसार गाथा ३प६ थी ३६प पानुं ४र३ थी ४३०).

प्रश्नः– अनुक्त विषय श्रोत्रज्ञाननो विषय केम संभवे? उत्तरः– श्रोत्रज्ञानमां ‘अनुक्त’ नो अर्थ ‘ईषत् (थोडुं) अनुक्त’ करवो जोईए; अने ‘उक्त’ नो अर्थ ‘विस्तारथी लक्षणादि द्वारा वर्णन कर्युं छे’ एवो करवो, के जेथी नाममात्र सांभळतां ज जीवने विशद (विस्ताररूप) ज्ञान थई जाय तो ते जीवने अनुक्तज्ञान ज थयुं एम कहेवुं जोईए; ते ज प्रमाणे बीजी इन्द्रियो द्वारा अनुक्तनुं ज्ञान ज थाय छे एम समजवुं.

प्रश्नः– नेत्रज्ञानमां ‘उक्त’ विषय केम संभवे? उत्तरः– कोई वस्तुने विस्तारथी सांभळी लीधी होय अने पछी ते देखवामां आवे तो ते समयनुं नेत्रज्ञान ‘उक्तज्ञान’ कहेवाय छे. तेम ज श्रोत्र इन्द्रिय सिवायनी बीजी इन्द्रियो द्वारा पण ‘उक्त’ नुं ज्ञान थाय छे.

पश्नः– ‘अनुक्त’ नुं ज्ञान पांच इन्द्रियो द्वारा शी रीते थाय? उत्तरः– श्रोत्र इन्द्रिय सिवाय चार इन्द्रियो द्वारा थतुं ज्ञान हमेशां अनुक्त होय छे. श्रोत्रइन्द्रिय द्वारा अनुक्तनुं ज्ञान केम थाय तेनो खुलासो पहेला उत्तरमां करवामां आव्यो छे.

प्रश्नः– अनिःसृत अने अनुक्त पदार्थोनी साथे श्रोत्र वगेरे इन्द्रियोनो संयोग थाय छे एम अमे देखी शकता नथी माटे अमे ते संयोगनो स्वीकार करी शकता नथी?

उत्तरः– ते पण ठीक नथी; जेम जन्मथी जमीननी अंदर राखवामां आवेलो पुरुष कोई कारणे बहार नीकळे तो तेने घटपटादि समस्त पदार्थोनो आभास थाय छे, परंतु ‘आ घट छे, आ पट छे’ इत्यादि जे विशेषज्ञान तेने थाय छे ते तेने परना उपदेशथी ज थाय छे, ते स्वयं तेवुं ज्ञान करी शकतो नथी; तेवी रीते सूक्ष्म अवयवोनी साथे जे इन्द्रियोनो भिडाव थाय छे अने तेनाथी अवग्रहादि ज्ञान थाय छे ते विशेष ज्ञान पण वीतरागना उपदेशथी ज जाणवामां आवे छे, आपणी अंदर एवुं सामर्थ्य नथी के आपणे स्वयं जाणी शकीए; माटे केवळज्ञानीना उपदेशथी ज्यारे अनिःसृत अने अनुक्त पदार्थोना अवग्रह वगेरे सिद्ध छे त्यारे तेनो अभाव कदी कही शकाय नहि.


Page 55 of 655
PDF/HTML Page 110 of 710
single page version

प२] [मोक्षशास्त्र

दरेक इन्द्रिय द्वारा थता आ बार प्रकारना मतिज्ञाननो खुलासो
१–श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा

बहु–एक–तत (तांतनो शब्द), वितत (तालनो शब्द), घन (कांसाना वाधनो शब्द) अने सुषिर (वांसळी आदिनो शब्द) वगेरे शब्दोनुं एक साथे अवग्रह-ज्ञान थाय छे, तेमां तत वगेरे जुदा जुदा शब्दोनुं ग्रहण अवग्रहथी थतुं नथी पण तेना समुदायरूप सामान्यने ते ग्रहण करे छे, एवो अर्थ अहीं समजवो; अहीं बहु पदार्थनो अवग्रह थयो.

प्रश्नः– संभिन्न संश्रोतृऋद्धिना धारक जीवने तत वगेरे शब्दे-शब्दनुं स्पष्टपणे भिन्नभिन्न रूपथी ज्ञान होय छे तो तेने आ अवग्रहज्ञान होवानुं बाधित छे?

उत्तरः– ते बराबर नथी; सामान्य मनुष्यनी माफक तेने पण क्रमथी ज ज्ञान थाय छे, माटे तेने पण अवग्रहज्ञान थाय छे; जे जीवने विशुद्ध ज्ञान मंद होय तेने तत आदि शब्दोमांथी कोई एक शब्दनो अवग्रह थाय छे; आ एक पदार्थनो अवग्रह थयो.

बहुविध–एकविध–उपरना दष्टांतमां ‘तत’ आदि शब्दोमां हरेक शब्दना बे, त्रण, चार, संख्यात, असंख्यात के अनंत भेदोने जीव ग्रहण करे छे त्यारे तेने ‘बहुविध’ पदार्थनो अवग्रह थाय छे.

विशुद्धता मंद रहेतां जीव तत आदि शब्दोमांथी कोई एक प्रकारना शब्दने ग्रहण करे छे तेने ‘एकविध’ पदार्थोनो अवग्रह थाय छे.

क्षिप्र–अक्षिप्र–विशुद्धिना बळथी कोई जीव घणो शीघ्र शब्दने ग्रहण करे छे तेने ‘क्षिप्र’ अवग्रह कहेवामां आवे छे.

विशुद्धिनी मंदता होवाथी शब्दने ग्रहण करवामां जीवने ढील थाय छे तेने ‘अक्षिप्र’ अवग्रह कहेवामां आवे छे.

अनिःसृत–निःसृत–विशुद्धिना बळथी जीव ज्यारे कह्या विना अथवा बताव्या विना शब्दने ग्रहण करे छे त्यारे तेने ‘अनिःसृत पदार्थनो अवग्रह कहेवामां आवे छे.

विशुद्धिनी मंदताने लीधे मोढामांथी नीकळेला शब्दने जीव ग्रहण करे छे त्यारे ‘निःसृत’ पदार्थनो अवग्रह थयो कहेवामां आवे छे.

शंकाः– मोढेथी पूरा शब्दना नीकळवाने ‘निःसृत’ कह्यो, अने ‘उक्त’नो अर्थ पण ते ज थाय छे तो पछी बेमांथी एक भेद कहेवो जोईए, बन्ने केम कहो छो?


Page 56 of 655
PDF/HTML Page 111 of 710
single page version

अ. १. सूत्र १६] [प३

समाधानः– ज्यां कोई अन्यना कहेवाथी शब्दनुं ग्रहण थाय छे, जेमके- कोईए ‘गो’ शब्दनुं एवुं उच्चारण कर्युं के ‘अहीं आ गो शब्द छे,’ ते उपरथी जे ज्ञान थाय छे ते ‘उक्त’ ज्ञान छे; अने ते प्रमाणे अन्यना बताव्या विना शब्द सामे होय तेनुं ‘आ अमुक शब्द छे’ एम ज्ञान थवुं ते निःसृत ज्ञान छे.

अनुक्त–उक्त–जे वखते समस्त शब्दनुं उच्चारण करवामां न आव्युं होय, पण मोढामांथी एक वर्ण नीकळतां ज विशुद्वताना बळवडे अभिप्राय मात्रथी समस्त शब्दने कोई अन्यना कह्या वगर ग्रहण करी ले के ‘ते आ कहेवा मागे छे’ -ते समये तेने ‘अनुक्त’ पदार्थनो अवग्रह थयो कहेवाय छे.

विशुद्धिनी मंदताथी जे समये समस्त शब्द कहे त्यारे कोई अन्यना कहेवा उपरथी जीव ग्रहण करे छे ते समये ‘उक्त’ पदार्थनो अवग्रह थयो कहेवाय छे. अथवा-

तंत्री वा मृदंगादिकमां क्यो स्वर गावामां आवशे तेनो स्वर-संचार कर्यो न होय ते पहेलां ज केवळ ते वाजिंत्रमां गावामां आवनार स्वरनो मिलाप थाय ते ज समये जीवने विशुद्धिना बळथी एवुं ज्ञान थई जाय के ‘ते आ स्वर वाजिंत्रमां वगाडशे,’ ते ज समये ‘अनुक्त’ पदार्थनो अवग्रह थाय छे.

विशुद्धिनी मंदताने कारणे वाजिंत्रो द्वारा ते स्वरने गावामां आवे ते समये जाणवो ते ‘उक्त’ पदार्थनो अवग्रह छे.

ध्रुव–अधुव–विशुद्धिना बळथी जीवे जे प्रकारे प्रथम समयमां शब्दने ग्रहण कर्यो ते प्रकारे निश्चयरूपथी केटलोक काळ ग्रहण करवानुं चालु रहे- तेमां किंचित् मात्र पण ओछुं-अधिक न थाय ते ‘ध्रुव’ पदार्थनो अवग्रह छे.

वारंवार थता संकलेश तथा विशुद्ध परिणामोरूप कारणोथी जीवने श्रोत्रेन्द्रियादिकनुं कांईक आवरण अने कांईक उघाड (क्षयोपशम) पण रहे छे, एवी रीते श्रोत्रेन्द्रियादिना आवरणनी क्षयोपशमरूप विशुद्धिनी कांईक प्रकर्ष अने कांईक अप्रकर्ष दशा रहे छे, ते वखते अधिकता-हीनताथी जाणवाने कारणे कांईक चल- विचलपणुं रहे छे तेथी ते ‘अध्रवु’ पदार्थनो अवग्रह कहेवायछे; तथा क्यारेक तत वगेरे घणा शब्दोनुं ग्रहण करवुं, कयारेक थोडानुं, कयारेक घणानुं, कयारेक घणा प्रकारना शब्दोनुं ग्रहण करवुं, कयारेक एक प्रकारनुं, कयारेक जलदी, कयारेक ढीलथी, क्यारेक अनिःसृत शब्दनुं ग्रहण करवुं, क्यारेक निःसृतनुं, क्यारेक अनुक्त शब्दनुं ग्रहण करवुं, कयारेक उक्तनुं- एमजे चल-विचलपणे शब्दनुं ग्रहण करवुं ते सर्वे ‘अध्रुवावग्रह’नो विषय छे.


Page 57 of 655
PDF/HTML Page 112 of 710
single page version

प४] [मोक्षशास्त्र

शंका–समाधान

शंकाः–‘बहु’ शब्दोना अवग्रहमां तत आदि शब्दोनुं ग्रहण मान्युं अने ‘बहुविध’ शब्दोना अवग्रहमां पण तत आदि शब्दोनुं ग्रहण मान्युं तो तेमां शुं फेर छे?

उत्तरः– जेम वाचाळतारहित कोई विद्वान घणा शास्त्रोना विशेष विशेष अर्थ करतो नथी अने एक सामान्य (संक्षेप) अर्थ ज प्रतिपादन करे छे, अन्य विद्वान घणा शास्त्रोमां रहेला एकबीजाथी फेर बतावनारा घणा प्रकारना अर्थोने प्रतिपादन करे छे. तेम बहु अने बहुविध बन्ने प्रकारना अवग्रहमां सामान्यरूपे तत आदि शब्दोनुं ग्रहण छे तोपण जे अवग्रहमां तत आदि शब्दोना एक बे, चार, संख्यात, असंख्यात के अंनत प्रकारना भेदोनुं ग्रहण छे अर्थात् अनेक प्रकारना भेद- प्रभेदयुक्त तत आदि शब्दोनुं ग्रहण छे ते बहुविध-बहु प्रकारना शब्दोने ग्रहण करवावाळो अवग्रह कहेवाय छे; अने जे अवग्रहमां भेद-प्रभेद रहित सामान्यरूपथी तत आदि शब्दोनुं ग्रहण छे ते बहु शब्दोनो अवग्रह कहेवाय छे.

२. चक्षु–इन्द्रिय द्वारा

बहु–एक-जे समये विशुद्विना बळथी जीव धोळा, काळा लीला आदि वर्णोने (रंगोने) ग्रहण करे छे ते समये तेने ‘बहु’ पदार्थोनो अवग्रह थाय छे. जे समये मंदताना कारणे जीव एक वर्णने ग्रहण करे छे ते समये तेने ‘एक’ पदार्थनो अवग्रह थाय छे.

बहुविध–एकविध–जे समये विशुद्विना बळथी जीव शुक्ल-कृष्णादि हरेक वर्णना बे, त्रण, चार, संख्यात, असंख्यात अने अनंत भेद-प्रभेदोने ग्रहण करे छे ते समये तेने ‘बहुविध’ पदार्थनो अवग्रह थाय छे.

जे समये मंदताना कारणे जीव शुक्ल, कृष्णादि वर्णोमांथी एक प्रकारना वर्णने ग्रहण करे छे ते समये तेने ‘एकविध’ पदार्थनो अवग्रह थाय छे.

क्षिप्र–अक्षिप्र–जे समये तीव्र क्षयोपशम (विशुद्वि) ना बळथी जीव शुक्लादिवर्णने जलदी ग्रहण करे छे ते समये तेने ‘क्षिप्र’ पदार्थनो अवग्रह छे.

विशुद्विनी मंदताना कारणे जे समये ढीलथी पदार्थने ग्रहण करे छे ते समये तेने ‘अक्षिप्र’ पदार्थनो अवग्रह थाय छे.

अनिःसृत–निःसृत–जे समये विशुद्विना बळे जीव कोई पचरंगी वस्त्र, कामळी, चित्र वगेरेना एकवार कोई भागमांथी पांच रंगने देखे छे ते समये जोके शेष भागनुं पचरंगीपणुं तेने दीठुं नथी तथा ते समये तेनी सामे आखुुं वस्त्र खुल्लुं कर्या वगरनुं


Page 58 of 655
PDF/HTML Page 113 of 710
single page version

अ. १. सूत्र १६] [पप ज राख्युं छे तोपण ते वस्त्रना समस्त भागोने पचरंगीपणुं छे एम ते ग्रहण करे छे ते ‘अनिःसृत’ पदार्थनो अवग्रह छे.

जे समये विशुद्विनी मंदताने कारणे जीवनी सामे बहार काढीने राखेल पचरंगी वस्त्रना पांचे रंगोने जीव ग्रहण करे छे ते समये तेने ‘निःसृत’ पदार्थनो अवग्रह थाय छे.

३–४–प. घ्राणेन्द्रिय. रसनेन्द्रिय अने स्पर्शनेन्द्रिय

घ्राण, रसना अने स्पर्शन ए त्रण इन्द्रियो द्वारा उपर्युकत बार प्रकारना अवग्रहना भेदो श्रोत्र अने चक्षु इन्द्वियनी माफक समजी लेवा.

ईहा, अवाय अने धारणा

चालु सूत्रनुं मथाळुं ‘अवग्रहादिना विषयभूत पदार्थ’ एम छे; तेमां अवग्रह आदि कहेतां, जेवी रीते बार भेद अवग्रहना कह्या तेवी ज रीते ईहा, अवाय अने धारणा ज्ञानोनो पण विषय मानवो.

शंका–समाधान

शंकाः– जे इन्द्रियो पदार्थने स्पर्शीने ज्ञान करावे छे ते पदार्थोना जेटला भागो (अवयवो) साथे संबंध थाय तेटला ज भागोनुं ज्ञान करावी शके, अधिक अवयवोनुं नहि. श्रोत्र, घ्राण, स्पर्शन अने रसना ए चार इन्द्रियो प्राप्यकारी छे, माटे जेटला अवयवोनी साथे ते भिडाय तेटला ज अवयवोनुं ज्ञान करावी शके, अधिकनुं नहि. छतां अनिःसृत अने अनुक्तमां तेम थतुं नथी केमके त्यां पदार्थोनो एक भाग देखी लेवाथी के कहेवाथी समस्त पदार्थनुं ज्ञान मानवामां आवे छे, तेथी श्रोत्र वगेरे चार इन्द्रियोथी जे अनिःसृत तथा अनुक्त पदार्थोनो अवग्रह, इहादिक मान छे ते व्यर्थ छे?

समाधानः– ए शंका ठीक नथी. जेम कीडी आदि जीवोना नाक तथा जीभ साथे गोळ आदि द्रव्योनो भिडाव नथी थतो, तोपण तेनां गंध अने रसनुं ज्ञान कीडी आदिने थाय छे; केमके त्यां अत्यंत सूक्ष्म-जेने आपणे देखी शकता नथी-तेवा गोळ वगेरेना अवयवोनी साथे कीडी आदि जीवोना नाक तथा जीभ इन्द्रियोनो एक बीजा साथे स्वाभाविक संयोगसंबंध रहे छे; ते संबंधमां कोई बीजा पदार्थनी अपेक्षा रहेती नथी, तेथी सूक्ष्म अवयवोनी साथे संबंध रहेवाथी ते प्राप्त थई ने ज पदार्थ ने ग्रहण करे छे. तेवी रीते अनिःसृत अने अनुक्त पदार्थोना अवग्रह वगेरेमां पण अनिःसृत अने अनक्त पदार्थोना सूक्ष्म अवयवोनी साथे श्रोत्र आदि इन्द्रियोनो पोतानी उत्पत्तिमां पर पदार्थोनी अपेक्षा नहि राखवावाळो स्वाभाविक संयोगसंबंध छे, तेथी अनिःसृत अने अनुक्त स्थळो पर पण प्राप्त थईने इन्द्रियो पदार्थोनुं ज्ञान करावे छे, अप्राप्त थईने नहि.


Page 59 of 655
PDF/HTML Page 114 of 710
single page version

प६] [मोक्षशास्त्र

अनुक्त–उक्त–सफेद-काळा अथवा सफेद-पीळा आदि रंगोनी मेळवणी करता कोई पुरुषने देखीने ‘ते आ प्रकारना रंगोने मेळवीने अमुक प्रकारनो रंग तैयार करवानो छे.’-एम, विशुद्धिना बळथी कह्या विना ज जाणी ले छे? ते समये तेने ‘अनुक्त’ पदार्थनो अवग्रह थाय छे; अथाव-

बीजा देशमां बनेला कोई पचरंगी पदार्थने कहेती वखते, कहेनार पुरुष कहेवानो प्रयत्न ज करी रह्यो छे, पण तेना कह्या पहेलां ज, विशुद्धिना बळथी जीव जे समये ते वस्तुना पांच रंगोने जाणी ले छे ते समये तेने पण ‘अनुक्त’ पदार्थनो अवग्रह थाय छे.

विशुद्धिनी मंदताने कारणे पचरंगी पदार्थने कहेवाथी जे समये जीव पांच रंगोने जाणे छे त्यारे तेने ‘उक्त’ पदार्थनो अवग्रह थाय छे.

ध्रुव–अध्रुव–संकलेश परिणाम रहित अने यथायोग्य विशुद्धता सहित जीव जेम पहेलामां पहेलो रंगने जे जे प्रकारे ग्रहण करे छे ते ज प्रकारे निश्चळरूपथी कांईक काळ तेवा रंगने ग्रहण करवानुं बन्युं रहे छे, कांई पण ओछुं-वधारे थतुं नथी, ते वखते तेने ‘ध्रुव’ पदार्थनो अवग्रह थाय छे.

वारंवार थता संकलेश परिणाम अने विशुद्धि परिणामोने कारणे जीवने जे वखते कांईक आवरण रहे छे अने कांईक उघाड पण रहे छे तथा उघाड कंईक उत्कृष्ट कंईक अनुत्कृष्ट एवी बे दशा रहे छे त्यारे, जे समये कांईक हीनता अने कांईक अघिकताने कारणे चल-विचलपणुं रहे छे ते समये तेने ‘अध्रुव’ अवग्रह थाय छे. अथवा-

कृष्ण आदि घणा रंगोने जाणवा अथवा एक रंगने जाणवो, बहुविध रंगोने जाणवा के एकविध रंगने जाणवो, जलदी रंगने जाणवा के ढीलथी जाणवा, अनिःसृत रंगने जाणवो के निःसृत रंगने जाणवो, अनुक्तरूपने जाणवो के उक्तरूपने जाणवो-एवो जे चल-विचलरूपे जीव जाणे छे, ते अध्रुव अवग्रहनो विषय छे.

विशेष समाधान– आगममां कह्युं छे के-चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, रसना, स्पर्शन अने मन-ए छ प्रकारनुं लब्ध्यक्षर श्रुतज्ञान छे. ‘लब्धि’ एटले क्षायोपशमिक (उघाडरूप) शक्ति अने ‘अक्षर’ नो अर्थ अविनाशी छे; जे क्षायोपशमिक शक्तिनो कदी नाश न थाय तेने लब्ध्यक्षर कहेवामां आवे छे, आ उपरथी सिद्ध थई जाय छे के अनिःसृत अने अनुक्त पदार्थोनुं पण अवग्रहादि ज्ञान थाय छे. लब्ध्यक्षर ज्ञान ए श्रुतज्ञाननो घणो सूक्ष्म भेद छे. ज्यारे ए ज्ञानने मानवामां आवे छे त्यारे अनिःसृत अने अनुक्त पदार्थोना अवग्रहादि मानवामां कोई दोष नथी.


Page 60 of 655
PDF/HTML Page 115 of 710
single page version

अ. १. सूत्र १७-१८] [प७

आ सूत्र प्रमाणे मतिज्ञानना भेदोनी संख्या नीचे मुजब छेः-
अवग्रह-ईहा-अवाय अने धारणा ए ४,
पांच इन्द्रिय अने मन ए छ द्वारा उपरना चार प्रकारे ज्ञान, (४×६) = २४
तथा विषयोनी अपेक्षाए बहु-बहुविध आदि १२= [२४×१२] २८८ भेदो

छे. ।। १६।।

अवग्रहादिना विषयभूत पदार्थभेदो जे उपर कह्या
ते भेदो कोना छे?
अर्थस्य ।। १७।।
अर्थः– उपर कहेला बार अथवा र८८ भेदो [अर्थस्य] पदार्थना (द्रव्यना-

वस्तुना) छे.

टीका

आ भेदो व्यक्त पदार्थना कह्या छे; अव्यक्त पदार्थने माटे अढारमुं सूत्र कहेशे. कोई कहे के-‘रूपादि गुणो ज इन्द्रियो द्वारा ग्रहण करी शकाय छे, माटे रूपादि गुणोनो ज अवग्रह थाय छे- नहि के द्रव्योनो.’ आ कहेवुं बराबर नथी- एम अहीं बताव्युं छे. ‘इन्द्रियो द्वारा रूपादि जणाय छे’ एम बोलवानो मात्र व्यवहार छे; रूपादिगुण द्रव्यथी अभिन्न छे तेथी एवो व्यवहार थयो छे के ‘में रूप जोयुं, में गंध सूंघी;’ पण गुण-पर्याय द्रव्यथी जुदा नहि होवाथी पदार्थनुं ज्ञान थाय छे इन्द्रियोनो संबंध पदार्थो साथे थाय छे, मात्र गुण-पर्योयो साथे थतो नथी. ।। १७।।

अवग्रहज्ञानमां विशेषता
व्यञ्जनस्यावग्रह।। १८।।
अर्थः– [व्यञ्जनस्य] अप्रगटरूप शब्दादि पदार्थोनुं [अवग्रह] मात्र

अवग्रह-ज्ञान थाय छे-इहादिक त्रण ज्ञान थतां नथी.

टीका
अवग्रहना बे भेद छे-(१) व्यंजन-अवग्रह (२) अर्थ-अवग्रह.
व्यंजनावग्रहः– अव्यक्त-अप्रगट अर्थना अवग्रहने व्यंजनावग्रह कहे छे.
अर्थावग्रह–व्यक्त-प्रगट पदार्थना अवग्रहने अर्थावग्रह कहे छे.

Page 61 of 655
PDF/HTML Page 116 of 710
single page version

प८] [मोक्षशास्त्र

अर्थावग्रह अने व्यंजनावग्रहनां दष्टांतो

१-चामडीने चोपडी स्पर्शी त्यारे थोडोक वखत (ते वस्तुनुं ज्ञान शरू थवा छतां) ते ज्ञान पोताने प्रगटरूप होतुं नथी, तेथी ते चोपडीनुं ज्ञान जीवने अव्यक्त- अप्रगट होवाथी ते ज्ञानने व्यंजनावग्रह कहेवामां आवे छे.

२- चोपडी उपर द्रष्टि पडतां, प्रथम जे ज्ञान प्रगटरूप थाय छे ते व्यकत अथवा प्रगट पदार्थनो अवग्रह (अर्थावग्रह) कहेवाय छे.

व्यंजनावग्रह चक्षु अने मन सिवायनी चार इन्द्रियो द्वारा होय छे; व्यंजनावग्रह पछी ज्ञान पोताने प्रगटरूप थाय छे तेने अर्थावग्रह कहे छे. चक्षु अने मन द्वारा अर्थावग्रह ज थाय छे.

‘अव्यक्त’ नो अर्थ

जेम एक माटीना कोरा वासणने पाणीना छांटा नाखी भींजाववुं शरू करवामां आवे त्यारे थोडाक छांटा पडवा छतां पण ते एवा सूकाई जाय छे के जोनार ते ठामने भींजाएलुं कही शकता नथी, तोपण युक्तिथी तो ‘ते भीनुं छे’ ए वात मानवी ज पडे छे; तेवी रीते कान, नाक, जीभ अने त्वचा ए चार इन्द्रियो पोताना विषयो साथे भिडावाथी ज्ञान पेदा थई शके छे तेथी प्रथम ज, थोडा वखत सुधी विषयनो मंद संबंध रहेतो होवाथी ज्ञान (थवानी शरूआत थया छतां) प्रगट जणातुं नथी, तोपण विषयनो संबंध शरू थई गयो छे तेथी ज्ञाननुं थवुं पण शरू थई गयुं छे-ए वात युक्तिथी अवश्य मानवी पडे छे. तेने (ते शरू थई गयेला ज्ञान ने) अव्यक्त ज्ञान अथवा व्यंजनावग्रह कहे छे

ज्यारे व्यंजनावग्रहमां विषयनुं स्वरूप ज स्पष्ट जाणवामां नथी आवतुं त्यारे पछी विशेषतानी शंका तथा समाधानरूप इहादिज्ञान तो क्यांथी ज थई शके? तेथी अव्यक्तनो अवग्रहमात्र ज होय छे-इहादिक होतां नथी.

‘व्यक्त’ नो अर्थ’

मन तथा चक्षु द्वारा थतुं ज्ञान विषय साथे भिडाईने (स्पर्शाईने) थतुं नथी पण दूर रहेवाथी ज थाय छे; तेथी मन अने चक्षु द्वारा जे ज्ञान थाय ते ज्ञान ‘व्यक्त’ कहेवाय छे. चक्षु तथा मन द्वारा थतुं ज्ञान अव्यक्त होतुं ज नथी, तेथी ते द्वारा अर्थावग्रह ज थाय छे.

अव्यक्त अने व्यक्तज्ञान
उपर कहेल अव्यक्तज्ञाननुं नाम व्यंजनावग्रह छे. ज्यारथी विषयनी व्यक्तता

Page 62 of 655
PDF/HTML Page 117 of 710
single page version

अ. १. सूत्र १८] [प९ भासवा लागे छे त्यारथी ते ज्ञानने व्यक्तज्ञान कहे छे-तेनुं नाम अर्थावग्रह छे. आ अर्थावग्रह (अर्थ सहित अवग्रह) बधी इन्द्रियो तथा मन द्वारा थाय छे.

ईहा

ते अर्थावग्रह पछी ईहा थाय छे. अर्थावग्रहज्ञानमां कोई पदार्थनी जेटली विशेषता भासी चूकी छे तेनाथी अधिक जाणवानी इच्छा थाय तो ते ज्ञान सत्य (नक्की करवा) तरफ वधारे झूके छे तेने ईहाज्ञान कहेवामां आवे छे; ते (ईहा) सुद्रढ होती नथी. ईहामां प्राप्त थयेल सत्य विषयनो जोके पूर्ण निश्चय नथी होतो तोपण ज्ञाननो अधिकांश त्यां थाय छे. ते (ज्ञानना अधिकांश) विषयना सत्यार्थग्राही ज होय छे, तेथी ईहाने सत्य ज्ञानोमां गणावामां आव्युं छे.

अवाय

‘अवाय’ नो अर्थ निश्चय अथवा निर्णय थाय छे; ईहा पछीना काळ सुधी ईहाना विषय पर लक्ष्य रहे तो ज्ञान सुद्रढ थई जाय छे अने तेने अवाय कहे छे. ज्ञानना अवग्रह, ईहा अने अवाय ए त्रणे भेदोमांथी अवाय उत्कृष्ट अथवा सर्वथी अधिक विशेषज्ञान छे.

धारणा

धारणा ए अवाय पछी थाय छे, परतुं तेमां कांईक अधिक द्रढता उत्पन्न थवा सिवाय बीजी विशेषता नथी. धारणा नी सुद्रढताने कारणे एक एवो संस्कार उत्पन्न थाय छे के जे थई जवाथी पूर्वना अनुभवनुं स्मरण थई शके छे.

एक पछी बीजुं ज्ञान थाय ज के केम?

अवग्रह थया पछी ईहा थाय अगर न पण थाय. अवग्रह पछी ईहा थाय तो एक ईहा ज थई छूटी जाय अने क्यारेक क्यारेक अवाय पण थाय. अवाय थया पछी धारणा थाय अगर न पण थाय.

ईहाज्ञान सत्य के मिथ्या?

जे ज्ञानमां बे विषय एवा आवी पडे के जेमां एक सत्य होय अने बीजो मिथ्या होय, तो (तेवा प्रसंगे) जे अंशनी उपर ज्ञान करवानुं अधिक ध्यान होय तेने अनुसार ए ज्ञानने सत्य के मिथ्या मानी लेवुं जोईए. जेम-एक चंद्रमाने देखतां जो बे चंद्रमानुं ज्ञान थाय अने त्यां जो देखनारनुं लक्ष्य केवळ चंद्रमाने समजी लेवानी तरफ होय तो ते ज्ञानने सत्य मानवुं जोईए, अने जो देखनारनुं लक्ष्य एक-बे संख्या नक्की करवा तरफ होय तो ते ज्ञानने असत्य (मिथ्या) मानवुं जोईए.


Page 63 of 655
PDF/HTML Page 118 of 710
single page version

६०] [मोक्षशास्त्र

आ नियमने अनुसरीने ईहामां ज्ञाननो अधिकांश विषयनो सत्यांशग्राही ज होय छे तेथी ईहाने सत्यज्ञानमां गणवामां आव्युं छे.

‘धारणा’ अने ‘संस्कार’ संबंधी खुलासो

शंका–धारणा नाम कोई उपयोग ज्ञाननुं छे के संस्कारनुं? शंकाकारनी दलीलः– जो उपयोगरूप ज्ञाननुं नाम धारणा होय तो, ते धारणा स्मरणने उत्पन्न करवाने समर्थ नहि थाय, केमके कार्य-कारणरूप पदार्थोमां परस्पर काळनुं अंतर रही शकतुं नथी. धारणा क्यारे थाय छे अने स्मरण क्यारे, तेमां काळनुं मोटुं ज अंतर पडे छे; जो तेने (धारणाने) संस्काररूप मानी स्मरणना समय सुधी विद्यमान मानवानी कल्पना करीए तो ते प्रत्यक्षनोभेद थतो नथी. केमके संस्काररूप ज्ञान पण स्मरणनी अपेक्षाए मलिन छे; स्मरण उपयोगरूप होवाथी पोताना समयमां ते बीजो उपयोग थवा देतुं नथी अने पोते कांईक विशेष ज्ञान उत्पन्न करे छे; परंतु धारणा संस्काररूप होवाथी तेना रहेवा छतां पण अन्य-अन्य अनेक ज्ञानो उत्पन्न थता रहे छे अने स्वयं ते धारणा तो अर्थनुं ज्ञान ज करावी शकती नथी. [आ शंकाकारनी दलील छे, हवे तेनुं समाधान करे छे.)

समाधानः– ‘धारणा’ उपयोगरूप ज्ञाननुं नाम पण छे अने संस्कारनुं पण नाम छे. धारणाने प्रत्यक्ष ज्ञानमां गणी छे अने तेनी उत्पत्ति पण अवायनी पछी ज थाय छे; तेनुं स्वरूप पण अवायनी अपेक्षाए अधिक द्रढरूप छे, तेथी तेने उपयोगरूप ज्ञानमां गर्भित करवुं जोईए.

ते धारणा स्मरणने उत्पन्न करे छे अने कार्यना पूर्व क्षण मां कारण रहेवुं ज जोईए माटे तेने संस्काररूप पण कही शकाय छे. तात्पर्य ए छे के जे स्मरणना समय सुधी रहे छे तेने कोई कोई जग्याए धारणाथी जुदुं गणाव्युं छे अने कोई कोई जग्याए धारणाना नामथी कह्युं छे. धारणा तथा ते संस्कारमां कारण-कार्य संबंध छे. तेथी ज्यां भेदविवक्षा मुख्य होय त्यां जुदां गणवामां आवे छे अने ज्यां अभेद- विवक्षा मुख्य होय त्यां जुदां नहि गणतां केवळ धारणाने ज स्मरणनुं कारण कह्युं छे.

चार भेदोनी विशेषता

ए रीते अवग्रह, ईहा, अवाय अने धारणा ए चार मतिज्ञानना भेदो छे; तेनुं स्वरूप उत्तरोत्तर तरतम-वधारे वधारे शुद्ध होय छे अने तेने पूर्व-पूर्व ज्ञाननुं कार्य समजवुं जोईए. एक विषयनी उत्तरोत्तर विशेषता तेना द्वारा जाणवामां आवे छे, तेथी ते चारे ज्ञानोने एक ज ज्ञानना विशेष प्रकार पण कही शकाय छे. मति-स्मृति


Page 64 of 655
PDF/HTML Page 119 of 710
single page version

अ. १. सूत्र १९-२०] [६१ आदिनी माफक तेमां काळनो असंबंध नथी तथा बुद्धि-मेधादिनी माफक विषयनो असंबंध तेमां नथी. १८.

न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम्।। १९।।
अर्थः– व्यंजनावग्रह [चक्षुः अनिन्द्रियाभ्याम्] नेत्र अने मनथी [न] थतो नथी.
टीका

मतिज्ञानना २८८ भेद १६ मा सूत्रमां आप्या छे. अने व्यंजनावग्रह चार इंद्रियो द्वारा थाय छे तेथी तेना बहु, बहुविध आदि १२ भेद गणातां ४८ भेद थाय छे; ए रीते मतिज्ञानना ३३६ प्रभेद थाय छे. १९.

श्रुतज्ञाननुं वर्णन, उत्पत्तिनो क्रम तथा तेना भेद
श्रुतं मतिपूर्वं द्वयनेकद्वादशभेदम्।। २०।।
अर्थः– [श्रुतम्] श्रुतज्ञान [मतिपूर्वं] मतिज्ञान पूर्वक होय छे- अर्थात् मतिज्ञान

पछी थाय छे; ते श्रुतज्ञान [द्वयनेकद्वादशभेदम्] बे, अनेक अने बार भेदवाळुं छे.

टीका
(१) सम्यग्ज्ञाननो विषय चाले छे [जुओ, सूत्र ९] माटे आ सम्यक्श्रुतज्ञानने

लगतुं सूत्र छे- एम समजवुं. मिथ्याश्रुतज्ञान संबंधमां ३१मुं सूत्र छे.

(२) श्रुतज्ञानः– मतिज्ञानथी ग्रहण करवामां आवेला पदार्थथी, तेनाथी जुदा पदार्थने ग्रहण करनारुं ज्ञान श्रुतज्ञान छे. तेनां दष्टांतोः-

१-सदगुरुनो उपदेश सांभळी, आत्मानुं यथार्थ ज्ञान थवुं-तेमां उपदेश
सांभळवो ते मतिज्ञान छे, पछी विचार करी आत्मानुं भान प्रगट करवुं
ते श्रुतज्ञान छे.
२-शब्दथी घटादि पदार्थोनुं जाणवुं-तेमां ‘घट’ शब्द सांभळवो ते मतिज्ञान
छे अने ते उपरथी घडा पदार्थनुं ज्ञान थवुं ते श्रुतज्ञान छे.
३-धूमाडाथी अग्रिनुं ग्रहण करवुं-तेमां धूमाडो आंखे देखी ज्ञान थयुं ते
मतिज्ञान छे अने धूमाडा उपरथी अग्निनुं अनुमान करवुं ते श्रुतज्ञान छे.
४-एक माणस ‘वहाण’ एवो शब्द सांभळे छे, ते मतिज्ञान छे. पूर्वे
वहाणना गुणो सांभळ्‌या अथवा वांच्या हता ते संबंधी [‘वहाण’ शब्द
सांभळी] जे विचारो उत्पन्न करे छे ते विचारो श्रुतज्ञान छे.

Page 65 of 655
PDF/HTML Page 120 of 710
single page version

६२] [मोक्षशास्त्र (३) मतिज्ञान द्वारा जाणेला विषयनुं अवलंबन लई जे उत्तर तर्कणा (बीजा विषय

संबंधी विचारो) जीव करे छे ते श्रुतज्ञान छे. श्रुतज्ञानना बे प्रकार छे-
१-अक्षरात्मक, २-अनक्षरात्मक. ‘आत्मा’ शब्द सांभळी आत्माना गुणोनुं
हृदयमां प्रगट करवुं ते अक्षरात्मक श्रुतज्ञान छे. अक्षर अने पदार्थने
वाचकवाच्य संबंध छे. ‘वाचक’ ते शब्द छे तेनुं ज्ञान मतिज्ञान छे; अने
तेना निमित्ते ‘वाच्य’नुं ज्ञान थवुं ते श्रुतज्ञान छे. परमार्थे ज्ञान कोई
अक्षर नथी, अक्षर तो जड छे, ते पुद्गलस्कंधनो पर्याय छे; ते निमित्त
मात्र छे. ‘अक्षरात्मक श्रुतज्ञान’ कहेवामां आव्युं ते कार्य मां कारणनो
(निमित्तनो) मात्र उपचार कर्यो छे-एम समजवुं.

(४) श्रुतज्ञान ते ज्ञानगुणनो पर्याय छे, ते थवामां मतिज्ञान निमित्तमात्र छे.

श्रुतज्ञान पहेलां ज्ञानगुणनो मतिज्ञानरूप पर्याय होय छे, अने ते पर्यायनो
व्यय थतां श्रुतज्ञान प्रगटे छे; तेथी मतिज्ञाननो व्यय श्रुतज्ञाननुं निमित्त छे,
ते ‘अभावरूप निमित्त’ छे; एटले के मतिज्ञाननो जे व्यय थाय छे ते
श्रुतज्ञानने उत्पन्न करतुं नथी, श्रुतज्ञान तो पोताना उपादान कारणे उत्पन्न
थाय छे.
[मतिज्ञानथी श्रुतज्ञान अधिक विशुद्ध होय छे.]

(प) प्रश्नः– जगतमां कारणनी समान कार्य थाय छे, तेथी मतिज्ञान समान श्रुतज्ञान

होवुं जोईए?

उत्तरः– उपादान कारणनी समान कार्य थाय छे, पण निमित्तकारण समान कार्य थतुं नथी. जेम घडो थवामां दंड, चक्र, कुंभार, आकाश आदि निमित्त कारणो छे, पण उत्पन्न थयेलो घडो ते दंड, चक्र, कुंभार, आकाश आदिनी समान नथी, भिन्न स्वरूपे ज (माटी स्वरूपे ज) छे. तेम श्रुतज्ञानना उत्पन्न थवामां मति नाम (फक्त नाम) मात्र बाह्य कारण छे, वळी तेनुं स्वरूप श्रुतज्ञानथी भिन्न छे. (६) श्रुतज्ञान एकवार थया पछी विचार लंबाय त्यारे बीजुं श्रुतज्ञान मतिज्ञान

वच्चे आव्या विना पण उत्पन्न थाय छे.
प्रश्नः– तेवा श्रुतज्ञानने
‘मतिपूर्व...’ (मतिपूर्वक) ए सूत्रमां आपेली व्याख्या
केम लागु पडे?
उत्तरः– तेमां पहेलुं श्रुतज्ञान मतिपूर्वक थयुं हतुं तेथी बीजुं श्रुतज्ञान
मतिपूर्वक छे एवो उपचार करी शकाय छे. सूत्रमां
‘पूर्व’ पहेलां ‘साक्षात्’
शब्द वापर्यो नथी, माटे श्रुतज्ञान साक्षात् मतिपूर्वक अने परंपरा मतिपूर्वक-
एम बे प्रकारे थाय छे-एम समजवुं.