चारित्रमपि निश्चयज्ञानदर्शनात्मककारणपरमात्मनि अविचलस्थितिरेव । अस्य तु नियम- शब्दस्य निर्वाणकारणस्य विपरीतपरिहारार्थत्वेन सारमिति भणितं भवति ।
परमात्मामां अविचळ स्थिति ( – निश्चळपणे लीन रहेवुं) ते ज चारित्र छे. आ ज्ञान- दर्शनचारित्रस्वरूप नियम निर्वाणनुं १कारण छे. ते ‘नियम’ शब्दने २विपरीतना परिहार अर्थे ‘सार’ शब्द जोडवामां आव्यो छे.
[हवे त्रीजी गाथानी टीका पूर्ण करतां श्लोक कहेवामां आवे छेः] [श्लोकार्थः — ] ए रीते हुं विपरीत विनाना ( – विकल्परहित) ३अनुत्तम रत्नत्रयनो आश्रय करीने मुक्तिरूपी स्त्रीथी उद्भवता अनंग ( – अशरीरी, अतीन्द्रिय, आत्मिक) सुखने प्राप्त करुं छुं. १०.
अन्वयार्थः — [नियमः] (रत्नत्रयरूप) नियम [मोक्षोपायः] मोक्षनो उपाय छे; [तस्य
१. कारणना जेवुं ज कार्य थाय छे; तेथी स्वरूपमां स्थिरता करवानो अभ्यास ज खरेखर अनंत काळ सुधी स्वरूपमां स्थिर रही जवानो उपाय छे.
२. विपरीत=विरुद्ध. [व्यवहाररत्नत्रयरूप विकल्पोने — पराश्रित भावोने — बातल करीने मात्र निर्विकल्प ज्ञानदर्शनचारित्रनो ज — शुद्धरत्नत्रयनो ज — स्वीकार करवा अर्थे ‘नियम’ साथे ‘सार’ शब्द जोड्यो छे.]
३. अनुत्तम=जेनाथी बीजुं कांई उत्तम नथी एवुं; सर्वोत्तम; सर्वश्रेष्ठ.
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