तथा हि —
(मालिनी)
असति च सति बन्धे शुद्धजीवस्य रूपाद्
रहितमखिलमूर्तद्रव्यजालं विचित्रम् ।
इति जिनपतिवाक्यं वक्ति शुद्धं बुधानां
भुवनविदितमेतद्भव्य जानीहि नित्यम् ।।७०।।
जारिसिया सिद्धप्पा भवमल्लिय जीव तारिसा होंति ।
जरमरणजम्ममुक्का अट्ठगुणालंकिया जेण ।।४७।।
याद्रशाः सिद्धात्मानो भवमालीना जीवास्ताद्रशा भवन्ति ।
जरामरणजन्ममुक्ता अष्टगुणालंकृता येन ।।४७।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]शुद्धभाव अधिकार[ ९९
तथा पर्यायोंसे युक्त सर्व द्रव्य अत्यन्त भिन्न - भिन्न हैं ) ।’’
और (इन दो गाथाओंकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं ) : —
[श्लोेकार्थ : — ] ‘‘बन्ध हो न हो (अर्थात् बन्धावस्थामें या मोक्षावस्थामें), समस्त
विचित्र मूर्तद्रव्यजाल (अनेकविध मूर्तद्रव्योंका समूह) शुद्ध जीवके रूपसे व्यतिरिक्त है’’
ऐसा जिनदेवका शुद्ध वचन बुधपुरुषोंको कहते हैं । इस भुवनविदितको ( – इस जगतप्रसिद्ध
सत्यको), हे भव्य ! तू सदा जान ।७०।
गाथा : ४७ अन्वयार्थ : — [याद्रशाः ] जैसे [सिद्धात्मानः ] सिद्ध आत्मा हैं
[ताद्रशाः ] वैसे [भवम् आलीनाः जीवाः ] भवलीन (संसारी) जीव [भवन्ति ] हैं, [येन ]
जिससे (वे संसारी जीव सिद्धात्माओंकी भाँति) [जरामरणजन्ममुक्ताः ] जन्म - जरा - मरणसे
रहित और [अष्टगुणालंकृताः ] आठ गुणोंसे अलंकृत हैं ।
है सिद्ध जैसे जीव, त्यों भवलीन संसारी वही ।
गुण आठसे जो है अलंकृत जन्म-मरण-जरा नहीं ।।४७।।