जो जीव इस परमेश्वर परमागममें कहे हुए भावोंको हृदयंगम करेंगे वे अवश्य ही सुखधाम
कारण परमात्माका निर्णय और अनुभव करके, उसमें परिपूर्ण लीनता पाकर, शाश्वत
परमानन्ददशाको प्राप्त करेंगे । जबतक वे भाव हृदयंगत न हों तब तक आत्मानुभवी महात्माके
आश्रय-पूर्वक तत्सबन्धी सूक्ष्म विचार, गहरा अन्तर्शोधन कर्त्तव्य है । जबतक परद्रव्योंसे अपना
सर्वथा भिन्नत्व भासित न हो और अपनी क्षणिक पर्यायोंसे दृष्टि हटकर एकरूप
कारणपरमात्माका दर्शन न हो तबतक चैन लेना योग्य नहीं है । यही परमानन्दप्राप्तिका उपाय
है । टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभदेवके शब्दोंमें इस परमपवित्र परमागमके फलका वर्णन
करके यह उपोद्घात पूर्ण करता हूँ : — ‘‘जो निर्वाणसुन्दरीसे उत्पन्न होनेवाले, परम
वीतरागात्मक, निराबाध, निरन्तर एवं अनंग परमानन्दका देनेवाला है, जो निरतिशय नित्यशुद्ध,
निरंजन निज कारणपरमात्माकी भावनाका कारण है, जो समस्त नयोंके समूहसे सुशोभित है,
जो पंचमगतिके हेतुभूत है तथा जो पाँच इन्द्रियोंके विस्तार रहित देहमात्र – परिग्रहधारी द्वारा रचित
है — ऐसे इस भागवत शास्त्रको जो निश्चयनय और व्यवहारनयके अविरोधसे जानते हैं, वे
महापुरुष — समस्त अध्यात्मशास्त्रोंके हृदयको जाननेवाले और परमानन्दरूप वीतरागसुखके
अभिलाषी — बाह्य – अभ्यंतर चौवीस परिग्रहोंके प्रपंचका परित्याग करके, त्रिकाल – निरुपाधि
स्वरूपमें लीन निज कारणपरमात्माके स्वरूपके श्रद्धान – ज्ञान – आचरणात्मक भेदोपचार –
कल्पनासे निरपेक्ष ऐसे स्वस्थ रत्नत्रयमें परायण वर्तते हुए, शब्दब्रह्मके फलरूप शाश्वत सुखके
भोक्ता होते हैं ।
श्रावण कृष्णा प्रतिपदा,
विक्रम सम्वत् २००७ — हिम्मतलाल जेठालाल शाह
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