गाथा : १२६ अन्वयार्थ : — [यः ] जो [स्थावरेषु ] स्थावर [वा ] अथवा
[त्रसेषु ] त्रस [सर्वभूतेषु ] सर्व जीवोंके प्रति [समः ] समभाववाला है, [तस्य ] उसे
[सामायिकं ] सामायिक [स्थायि ] स्थायी है [इति केवलिशासने ] ऐसा केवलीके
शासनमें कहा है
।
टीका : — यहाँ, परम माध्यस्थभाव आदिमें आरूढ़ होकर स्थित परममुमुक्षुका
स्वरूप कहा है ।
जो सहज वैराग्यरूपी महलके शिखरका शिखामणि (अर्थात् परम
सहजवैराग्यवन्त मुनि) विकारके कारणभूत समस्त मोहरागद्वेषके अभावके कारण
भेदकल्पना विमुक्त परम समरसीभाव सहित होनेसे त्रस - स्थावर (समस्त)
जीवनिकायोंके प्रति समभाववाला है, उस परम जिनयोगीश्वरको सामायिक नामका व्रत
सनातन (स्थायी) है ऐसा वीतराग सर्वज्ञके मार्गमें सिद्ध है ।
[अब इस १२६वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज आठ
श्लोक कहते हैं : ]
जो समो सव्वभूदेसु थावरेसु तसेसु वा ।
तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ।।१२६।।
यः समः सर्वभूतेषु स्थावरेषु त्रसेषु वा ।
तस्य सामायिकं स्थायि इति केवलिशासने ।।१२६।।
परममाध्यस्थ्यभावाद्यारूढस्थितस्य परममुमुक्षोः स्वरूपमत्रोक्त म् ।
यः सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणिः विकारकारणनिखिलमोहरागद्वेषाभावाद् भेद-
कल्पनापोढपरमसमरसीभावसनाथत्वात्र्रसस्थावरजीवनिकायेषु समः, तस्य च परमजिन-
योगीश्वरस्य सामायिकाभिधानव्रतं सनातनमिति वीतरागसर्वज्ञमार्गे सिद्धमिति ।
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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
स्थावर तथा त्रस सर्व जीवसमूह प्रति समता लहे ।
स्थायी सामायिक है उसे, यों केवली शासन कहे ।।१२६।।