Panch Stotra-Gujarati (Devanagari transliteration). Jinchaturvinshatika.

< Previous Page  


Combined PDF/HTML Page 6 of 6

 

Page 93 of 105
PDF/HTML Page 101 of 113
single page version

background image
श्री भूपालकवि प्रणीत
जिनचतुÆवशतिका
(शार्दूलविक्रीडित)
श्रोलीलायतनं महीकुलगृह कीर्तिप्रमोदास्पदं,
वाग्देवीरतिकेतनं जयरमाक्रीडानिधानं महत्
सः स्यात्सर्वमहोत्सवैकभवनं यः प्रार्थितार्थप्रदं,
प्रातः पश्यति कल्पपादपदलच्छायं जिनाड्धिद्वयम् ।।।।
अर्थ :मनोवांछित सिद्धि आपनार तथा कल्पवृक्षना पत्र समान
कांति धारण करनार श्री जिनेन्द्रदेवनां बन्ने चरणोना जे भव्यजीव प्रतिदिन
प्रातःकाळे दर्शन करे छे ते भव्य जीव, लक्ष्मीनुं क्रीडास्थान, पृथ्वीनुं
कुलभवन, यश अने हर्षनुं स्थान, सरस्वतीनुं क्रीडामंदिर, विजयलक्ष्मीनुं
विशाळ क्रीडास्थान, इन्द्रादि द्वारा पूज्य अने समस्त महान महान
उत्सवोनुं स्थान बने छे. १.
(वसंततिलिका)
शान्तं वपुः श्रवणहारि वचश्चरित्रं
सर्वोपकारि तव देव ततः श्रुतज्ञाः
संसारमारवमहास्थलरुन्दसान्द्र
च्छायामहीरुह भवन्तमुपाश्रयन्ते ।।।।
अर्थ :हे जिनेन्द्रदेव! आपनुं शरीर शान्त छे, वचन कर्णोने
प्रिय छे अने आपनुं चारित्र सर्व जीवोनुं कल्याण करे छे तेथी हे
संसाररूपी अत्यंत मोटा मरुस्थल माटे विशाळ सघन छायावृक्ष! ज्ञानीजन
आपनो आश्रय ले छे. २.

Page 94 of 105
PDF/HTML Page 102 of 113
single page version

background image
९४ ][ पंचस्तोत्र
(शार्दूलविक्रीडित)
स्वामिन्नद्य विनिर्गतोऽस्मि जननीगर्भान्धकूपोदरा
दद्योद्घाटितदृष्टिरस्मि फलवज्जन्मास्मि चाद्य स्फु टम्
त्वामद्राक्षमहं यदक्षयपदानन्दाय लोकत्रयी
नेत्रेन्दीवरकाननेन्दुममृतस्यन्द्रिप्रभाचन्द्रिकम् ।।।।
अर्थ :हे त्रिलोकीनाथ! आप त्रणे लोकना जीवोना नेत्ररूपी
कुमुदवनने विकसित करवा माटे चन्द्र समान छो अने आपनी कांतिरूपी
चांदनी अमृत वरसावे छे. मोक्षपदना सुखनी प्राप्ति माटे आवा आपना
दर्शन करीने हुं एम मानुं छुं के हुं, माताना गर्भरूपी अंधारिया कूवामांथी
आजे ज नीकळ्यो छुं, आजे ज मारा नेत्रो खूल्यां छे अने आजे ज मारो
जन्म सफळ थयो छे. ३.
(शार्दूलविक्रीडित)
निःशेषत्रिद्रशेन्दशेखर शिखारत्नप्रदीपावली
सान्द्रीभूतमृगेन्द्रविष्टरतटीमाणिक्यदीपावलिः
क्वेयं श्रीः क्व च निःस्पृहत्वमिदमित्यूहातिगस्त्वादृशः
सर्वज्ञानदृशश्चरित्रमहिमां लोकेश लोकोत्तरः ।।।।
अर्थ :हे त्रिभुवनपति! समस्त इन्द्रोना मुगटना अग्रभागमां
लागेला रत्नरूपी दीपकोनी पंक्तिथी सिंहासननी किनारीओ पर लागेला
मणिमय दीपकोनी पंक्ति जेमां सघन थई गई छे एवी आ समवशरणरूप
विभूति क्यां अने आपनी आ परम उदासीनता क्यां? तेथी हे
त्रिभुवननाथ! आपना जेवा सर्वज्ञानी, सर्वदर्शीओना लोकमां अतिशयताने
पामेल चारित्रनो महिमा तर्कनो विषय नथी. ४.
(शार्दूलविक्रीडित)
राज्यं शासनकारिनाकपति यत्यक्तं तृणावज्ञया
हेलानिर्दलितत्रिलोकमहिमा यन्मोहमल्लो जितः

Page 95 of 105
PDF/HTML Page 103 of 113
single page version

background image
जिनचतुर्विंशतिका स्तोत्र ][ ९५
लोकालोकमपि स्वबोधमुकुरस्यान्तः कृतं यत्त्वया,
सैषाश्चर्यपरम्परा जिनवर क्वान्यत्र सम्भाव्यते ।।।।
अर्थ :हे जिनेश्वर! ज्यां इन्द्र आज्ञा मानता हता एवुं राज्य
आपे तृण समान तुच्छ समजीने छोडी दीधुं, त्रणलोकना जीवोनो महिमा
खंडित करनार मोहमल्लने आपे क्षणवारमां जीती लीधो अने पोताना
ज्ञानरूपी दर्पणमां आप संपूर्ण लोकालोकने जाणो,
देखो छो आवी प्रसिद्ध
आश्चर्योनी परंपरा आपना सिवाय बीजा देवोमां क्यां संभवी शके छे?
अर्थात् क्यांय संभवी शकती नथी. ५.
(शार्दूलविक्रीडित)
दानं ज्ञानधनाय दत्तमसकृत्पात्राय सद्वृत्तये
चीर्णान्युग्रतपांसि तेन सुचिरं पूजाश्च बह्वयः कृताः
शीलानां निचयः सहामलगुणैः सर्वः समासादितो
दृष्टस्त्वं जिन येन दृष्टिसुभगः श्रद्धापरेण क्षणम् ।।।।
अर्थ :हे जिननाथ! जे श्रद्धाळु भव्यजीव नेत्रोने आनंद
आपनार श्रद्धापूर्वक एक क्षणवार पण आपना दर्शन कर्या छे तेणे
आत्मज्ञानी अने सदाचारी पात्रने अनेकवार दान आप्युं छे, कठोर तपोनुं
आचरण कर्युं छे, लांबा समय सुधी अनेक पूजाओ करी छे अने निर्मळ
गुणो सहित सर्व शीलव्रतोनी प्राप्ति करी लीधी छे. ६.
(शार्दूलविक्रीडित)
प्रज्ञापारमितः स एव भगवान्पारं स एव श्रुत
स्कन्धाब्धेर्गुणरत्नभूषण इति श्लाध्यः स एव ध्रुवं
नीयन्ते जिन येन कर्णहृदयालङ्कारतां त्वद्गुणाः
संसाराहिविषापहारमणयस्त्रैलोक्यचूडामणे ।।।।
अर्थ :हे त्रिभुवन चूडामणि! श्री जिनेन्द्रदेव! आपना गुण

Page 96 of 105
PDF/HTML Page 104 of 113
single page version

background image
९६ ][ पंचस्तोत्र
संसाररूपी सर्पनुं झेर उतारवा माटे मणिस्वरूप छे, जे भव्यजीव ते गुणोनुं
कर्ण अने हृदयना आभूषण बनावे छे अर्थात् धारण करे छे ते ज बुद्धिनो
पार पाम्या छे, ते ज गुणरूपी रत्नोना आभूषणोथी शोभे छे अने ते
ज जीव निश्चयथी प्रशंसाने योग्य छे. ७.
(मालिनी)
जयति दिविजवृन्दान्दोलितैरिन्दुरोचि
र्निचयरुचिमिरुच्चैश्चामरैर्वीज्यमानः
जिनपतिरनुरज्यन्मुक्ति साम्राज्यलक्ष्मी
युवतिनवकटाक्षक्षेपलीलां दधानैः ।।।।
अर्थ :हे भगवान! चन्द्रना किरणो समान निर्मळ कांति
धारण करनार तथा अनुराग करनारी मोक्षनी साम्राज्यलक्ष्मी रूपी
युवतीओनी कटाक्षलीलानी शोभा धारण करनार एवा उन्नत चामर देवो
द्वारा जेमना उपर ढोळवामां आवे छे एवा श्री जिनेन्द्रदेव! आप सदा
जयवंत हो. ८.
(स्रग्धरा)
देवः श्वेतातपत्रत्रयचमरिरूहाशोकभाश्यक्रभाषा
पुष्पौद्यासारसिंहासनसुरपटहैरष्टभिः प्रातिहार्यैः
साश्चर्यैर्भ्राजमानः सुरमनुजसभाम्भोजिनी भानुमाली
पायान्नः पादपीठीकृतसकलजगत्पालमौलिर्जिनेन्द्रः ।।।।
अर्थ :त्रण सफेद छत्र, चामर, अशोकवृक्ष, भामंडळ,
दिव्यध्वनि, पुष्पवृष्टि, सिंहासन अने देवदुंदुभिरूप आश्चर्यकारी आठ
प्रातिहार्योथी शोभता, देव अने मनुष्योनी सभारूपी कमलिनीने विकसित
करवा माटे सूर्यसमान तथा समस्त इन्द्र अने राजाओना मुगटोने पोताना
चरणोनुं आसन बनावनार जिनेन्द्रदेव आपणा सौनी रक्षा करो. ९.

Page 97 of 105
PDF/HTML Page 105 of 113
single page version

background image
जिनचतुर्विंशतिका स्तोत्र ][ ९७
नृत्यत्स्वर्दन्तिदन्ताम्बुरुहवननटन्नाकनारीनिकायः
सद्यस्त्रलोक्ययात्रोत्सवकरनिनदातोद्यन्निलिम्पः
हस्ताम्भोजातलीलाविनिहित सुमनोद्रमरम्यामरस्त्री
काम्यः कल्याणपूजाविधिषु विजयते देव देवागमस्ते ।।१०।।
अर्थ :हे श्री जिनेन्द्रदेव! आपना कल्याण पूजामहोत्सवमां,
नृत्य करता ऐरावत हाथीना दांत उपर रहेल कमलवनमां नृत्य करती
देवांगनाओना समूहथी शोभता, तत्काळ त्रणे लोकमां यात्राना उत्सवनी
ध्वनि करता वाजिंत्रोथी हर्षित थयेला देवोथी सुशोभित अने हस्तकमळोमां
लीलापूर्वक धारण करेली पुष्पोनी माळाओथी मनोहर देवांगनाओ द्वारा
सुन्दर देवोनुं आगमन जयवंत वर्तो. १०.
(शार्दूलविक्रीडित)
चक्षुष्मानहमेव देव भुवने नेत्रामृतस्यन्दिनं
त्वद्वक्त्रेन्दुमतिप्रसाद सुमगैस्तेजोभिरूद्भासितम्
तेनालोकयता मयाऽनतिचिराच्चक्षुः कृतार्थीकृतं
द्रष्टव्यावधिवीक्षणव्यतिकरव्याजृम्भमाणोत्सवम् ।।११।।
अर्थ :हे जिनदेव! नेत्रोमांथी अमृत वरसावनार तथा अत्यंत
प्रसन्नताथी सुन्दर तेजथी सुशोभित आपना मुखचन्द्रने जोता में देखवा
योग्य पदार्थोनी सीमास्वरूप आपना मुखचन्द्रना दर्शनथी परम आनंदने
प्राप्त मारा नेत्रो तत्काळ कृतार्थ कर्या छे तेथी विश्वमां मारा ज नेत्रो
सफळ छे. ११.
(वसंततिलका)
कन्तोः सकान्तमपि मल्लमवैति कश्चि
न्मुग्धो सुकुन्दमरविन्दजमिन्दुमौलिम्
मीघीकृतत्रिदशयोषिदपाङ्गपात
स्तस्य त्वमेव विजयी जिनराज ! मल्ल ।।१२।।

Page 98 of 105
PDF/HTML Page 106 of 113
single page version

background image
९८ ][ पंचस्तोत्र
अर्थ :हे जिनराज! कोई अज्ञानी जीव श्रीकृष्ण, ब्रह्मा अने
महादेवने स्त्री सहित होवा छतां कामविजेता माने छे. परंतु देवांगनाओना
कटाक्षपातने निष्फळ करनार आप ज एकमात्र वास्तवमां ते कामदेवना
विजेता छो. १२.
(मालिनी)
किसलयितमनल्पं त्वद्विलोकाभिलाषा
त्कुसुमितमतिसान्द्रं त्वत्समीपप्रयाणात्
मन फलितममन्दं त्वन्मुखेन्दोरिदानीं
नयनपथमवाप्ताद देव ! पुण्यद्रुमेण ।।१३।।
अर्थ :हे भगवान! मारुं पुण्यरूपी वृक्ष आपना दर्शन करवानी
इच्छाथी बहु ज गाढा पांदडाओथी व्याप्त, आपनी पासे पहोंचवाथी
सघन फूलोथी विकसित थई गयुं अने अत्यारे आपना मुखचन्द्रना साक्षात्
दर्शन करवाथी अतिशय फळोथी व्याप्त थयुं छे अर्थात् आपना दर्शन
अत्यन्त पुण्यनुं कारण छे. १३.
(मालिनी)
त्रिभुवनवनपुष्प्यत्पुष्पकोदण्डदर्प
प्रसरदवनवाम्भोमुक्तिर्सूक्तिप्रसूतिः
स जयति जिनराजव्रातजीमूतसङ्घः
शतमखशिखिनृत्यारम्भनिर्बन्धबन्धुः ।।१४।।
अर्थ :हे प्रभु! त्रण लोकरूपी वनमां वधता कामदेव संबंधी
अभिमानना फेलावरूप दावानळने बुझाववा माटे आपनो सुंदर उपदेश
नूतन जलधारा समान छे अने इन्द्ररूपी मोरना नृत्यने शरू करवामां आप
साक्षात् अग्रेसर बंधु छो, एवा जिनेन्द्र समूहरूप वादळाओनो समुदाय
जयवंत हो. १४.

Page 99 of 105
PDF/HTML Page 107 of 113
single page version

background image
जिनचतुर्विंशतिका स्तोत्र ][ ९९
भूपालस्वर्गपालप्रमुखनरसुरश्रेणिनेत्रालिमाला
लीलाचैन्यस्य चैत्यालयमखिलजगत्कौमुदीन्दोर्जिनस्य
उत्तंसीभूतसेवाञ्जलिपुटनलिनीकुङ्मलास्त्रिः परीत्य
श्रीपादच्छाययापस्थितभवदवथुः संश्रितोऽस्मी व मुक्तिम्
।।१५।।
अर्थ :हे स्वामी! आप चक्रवर्ती अने देवेन्द्र जेमां मुख्य छे
एवा मनुष्य अने देवसमूहना नेत्ररूपी भ्रमरोनी क्रीडा माटे चैत्यवृक्ष
समान छो. समस्त संसाररूपी कौमुदी माटे चन्द्र समान छो एवा श्री
जिनेन्द्रदेवना मंदिरनी त्रण प्रदक्षिणा लईने ज्यारे हुं भक्तिथी बन्ने हाथ
जोडुं छुं त्यारे मने एम लागे छे के आपना श्रीचरणनी छायाद्वारा
संसारनो बधो ताप दूर थई गयो छे अने में मुक्तिनी ज प्राप्ति करी
लीधी छे. १५.
(वसंततिलिका)
देव त्वदङ्ध्रिनखमण्डलदर्पणेऽस्मि
न्नर्ध्ये निसर्गरुचिरे चिरदृष्टवक्त्रः
श्रीकीर्तिकान्ति घृतिसङ्गमकारणानि,
भव्यो न कानि लभते शुभमङ्गलानि ।।१६।।
अर्थ :हे जिनदेव! परम पूज्य तथा स्वभावथी ज मनोहर
आपना नखमंडलरूपी दर्पणमां जे भव्यजीव लांबा समय सुधी आपनुं
मुख जुए छे ते लक्ष्मी, कीर्ति, कांति अने धैर्यनी प्राप्तिना कारण
स्वरूप कया कया शुभ मंगलो पामतो नथी? अर्थात् बधा मंगल प्राप्त
करे छे. १६.
(मालिनी)
जयति सुरनरेन्द्रश्रीसुधानिर्झरिण्याः
कुलधरणिधरोऽयं जैनचैत्याभिरामः

Page 100 of 105
PDF/HTML Page 108 of 113
single page version

background image
१०० ][ पंचस्तोत्र
प्रविपुलफलधर्मानोकहाग्रप्रवाल
प्रसरशिखरशुम्मत्केतनः श्रीनिकेतः ।।१७।।
अर्थ :हे जिनेन्द्र भगवान! आपनुं चैत्यालय जयवंत हो. जे
देवेन्द्र अने राजाओनी लक्ष्मीरूपी अमृतझरणांनी उत्पत्ति माटे
कुलाचलस्वरूप छे, अत्यंत गाढ फळवाळा धर्मरूपी वृक्षनी टोच उपर रहेला
पांदडाओना समूहनी अणीनी जेम जेना उपर ध्वज शोभे छे अने जे
लक्ष्मीनुं घर छे. १७.
(मालिनी)
विनमदमरकान्ताकुन्तलाक्रान्तकान्ति
स्फु रितनखमयूखद्योतिताशान्तरालः
दिविजमनुजराजव्रातपूज्यक्रमाब्जो
जयति विजितकर्माराजिजालो जिनेन्द्रः ।।१८।।
अर्थ :जेमने नमस्कार करती देवांगनाओना केशथी व्यापेली
कान्तिथी शोभता चरणोना नखोथी दीप्तिथी दिशाओना बधा भाग
प्रकाशमान छे, जेमना चरणकमळ देवेन्द्र अने नरेन्द्रोना समूहथी पूजवाने
योग्य छे तथा जेमणे कर्म (राग-द्वेषादि भाव) रूपी शत्रुओने जीती लीधा
छे एवा श्री जिनेन्द्रदेव जयवंत हो. १८.
(वसंततिलिका)
सुप्तोत्थितेन सुमुखेन सुमङ्गलाय
दृष्टव्यमस्ति यदि मङ्गलमेव वस्तु
अन्येन किं तदिह नाथ तवैव वक्त्रं
त्रैलोक्यमङ्गलनिकेतनमीक्षणीयम् ।।१९।।
अर्थ :हे नाथ! सुईने उठेला सुंदर मुखवाळा पुरुषे जो
सुमंगलनी प्राप्ति माटे मंगलरूप वस्तु ज होवी जोईए तो बीजानुं शुं

Page 101 of 105
PDF/HTML Page 109 of 113
single page version

background image
जिनचतुर्विंशतिका स्तोत्र ][ १०१
काम छे? आ लोकमां केवळ आपनुं मुख ज जोवुं जोईए केम के ते त्रण
भुवनना मंगलोनुं घर छे. १९.
(शार्दूलविक्रीडित)
त्वं धर्मोदयतापसाश्रमशुकस्त्वं काव्यबन्धक्रम
क्रीडानन्दनकोकिलस्त्वमुचितः श्रीमल्लिकाषट्पदः
त्वं पुन्नागकथारविन्दसरसी हंसस्त्वमुत्तंसकैः
कैर्भूपाल न धार्यसे गुणमणिस्रिड्मालिभिर्मौलिभिः ।।२०।।
अर्थ :हे पृथ्वीनाथ! आप धर्मना अभ्युदयरूपी तपोवनना
पोपट छो, काव्यरचना निर्माणना अनुक्रमरूप आप ज छो अर्थात्
काव्यरचनानी शोभा आपना चारित्रथी आप ज वधारो छो, क्रीडारूपी
नंदनवनमां आप ज कोयल समान छो, मोक्षलक्ष्मीरूप मालतीना आप
भ्रमर छो, उत्तम पुरुषोनी कथारूप कमल सरोवरना आप हंस छो
अने जेम पोतानी शोभा वधारनार पुरुष माळाओथी शोभता
मुगट पोताना मस्तक उपर धारण करे छे तेवी ज रीते पोते
पोताने उत्तम बनावनार पुरुषो आपने पोताना मस्तक उपर धारण करे
छे. २०.
(मालिनी)
शिवसुखमजरश्रीसङ्गमं चाभिलष्य
स्वमभिनियमयन्ति क्लेशपाशेन केचित्
वयमिह तु वचस्ते भूपतेर्भावयन्त
स्तदुभयमपि शश्वल्लीलया निर्विशामः ।।२१।।
हे भगवान! केटलाय मनुष्यो मोक्षसुख अने देवोनी विभूतिनी
प्राप्ति माटे पोतानी जातने दुःखरूपी बंधनोथी अर्थात् जातजातनी
कठिन तपस्या अने व्रत आदिना कठोर नियमोथी दुःखी करे छे छतां
पण तेमने प्राप्त करी शकता नथी परंतु अमे आ लोकमां हमेशां आप

Page 102 of 105
PDF/HTML Page 110 of 113
single page version

background image
१०२ ][ पंचस्तोत्र
त्रिलोकीनाथना वचनोना रहस्यनी भावना करता अनायासे ज ते बन्नेनी
प्राप्ति करी लईए छीए. २१.
(शार्दूलविक्रीडित)
देवेन्द्रास्तव मज्जनानि विदधुर्देवाङ्गना मङ्गला
न्यापेठुः शरदिन्दुनिर्मलयशो गन्दर्वदेवा जगुः
शेषाश्चापि यथानियोगमखिलाः सेवां सुराश्चक्रिरे
तत्किं देव वयं विदध्म इति नश्चित्तं तु दोलायते ।।२२।।
अर्थ :हे देव! इन्द्रोए आपनो अभिषेक कर्यो, देवांगनाओए
मंगल गीतो गाया. गन्धर्व देवोए शरदॠतुना चन्द्र जेवा निर्मळ यशोगान
कर्या अने बाकीना बधा देवोए नियोग प्रमाणे आपनी सेवा करी. हे
भगवान! हवे अमे आपनी शी सेवा करीए? आ जातना विचारोमां
अमारुं हृदय डोली रह्युं छे. २२.
(शार्दूलविक्रीडित)
देव त्वज्जननाभिषेकसमये रोमाञ्चसत्कंचुकै
दैवेन्द्रैर्यदनर्ति नर्त्तनविधौ लब्धप्रभावैः स्फु टम्
किश्चान्यत्सुर सुरन्दरीकुचतटप्रान्तावनद्धोत्तम
प्रेङ्खदल्लकिनाझंकृतमहो तत्केन संवर्ण्यते ।।२३।।
अर्थ :हे देव! आपना जन्माभिषेक समये तांडव नृत्यमां
प्रभावित थयेला देवेन्द्रोए रोमांचरूपी कचुकी वस्त्र धारण करीने जे भव्य
नृत्य कर्युं हतुं तथा देवांगनाओना स्तनप्रदेश पासे अडेली मधुर ध्वनि
करनारी वीणाना शब्दनी जे झणझणाटी थई हती, अहो! तेनुं वर्णन कोण
करी शके? अर्थात् कोई नहि. २३.
(शार्दूलविक्रीडित)
देव त्वत्प्रतिबिम्बमम्बुजदलस्मेरेक्षणं पश्यतां,
यत्रास्माकमहो महोत्सवरसो दृष्टेरियान् वर्तते

Page 103 of 105
PDF/HTML Page 111 of 113
single page version

background image
जिनचतुर्विंशतिका स्तोत्र ][ १०३
साक्षात्तत्र भवन्तमीक्षितवतां कल्याणकाले तदा
देवानामनिमेषलोचनतया वृत्तः सः किं वर्ण्यते ।।२४।।
अर्थ :हे भगवान! विकसित कमलपत्र समान नेत्रवाळा
आपना प्रतिबिंबना दर्शन करीने अहो, अमारा नेत्रोने ज्यां आटलो मोटो
आनंद मळे छे तो पंचकल्याणकना समये पलकार रहित नेत्रोथी साक्षात्
दर्शन करनार देवोना महान आनंदनुं शुं वर्णन करी शकाय? अर्थात् करी
शकातुं नथी. २४.
(शार्दूलविक्रीडित)
दृष्टं धाम रसायनस्य महतां दृष्टं निधीनां पदं
दृष्टं सिद्धरसस्य सद्म सदनं दृष्टं च चिन्तामणेः
किं दृष्टेरथवानुषङ्गिकफलैरभिर्मयाद्य ध्रुवं
दृष्टं मुक्तिविवाहमङ्गलगृहं दृष्टे जिनश्रीगृहे ।।२५।।
अर्थ :हे प्रभो! श्री जिनमंदिरमां आपना दर्शन करता में
रसायणोनुं घर जोई लीधुं, महान महान निधिओनुं स्थान जोई लीधुं,
सिद्ध करेला रसोनी जग्याओ जोई लीधी अने चिन्तामणिनुं घर जोई लीधुं
अथवा आ बधां तो आनुषंगिक (गौण) फळो छे, एमने जोवाथी शुं
लाभ? में तो आज निश्चयथी मुक्तिरूपी कन्याना विवाहमंगलनुं स्थान ज
जोई लीधुं छे. २५.
(शार्दूलविक्रीडित)
दृष्टस्त्वं जिनराजचन्द्र ! विकसद्मूपेन्द्रनेत्रोत्पले
स्नातं त्वन्नुतिचन्द्रिकाभ्भसि भवद्विद्वच्चकोरोत्सवे
नीतश्वाद्य निदाधजः क्लमभरः शान्तिं मया गम्यते
देव ! त्वद्गतचेतसैव भवतो भूयात् पुनदर्शनम् ।।२६।।
अर्थ :हे जिनराजचन्द्र! में आपना दर्शन कर्या तथा भूपेन्द्रोना

Page 104 of 105
PDF/HTML Page 112 of 113
single page version

background image
१०४ ][ पंचस्तोत्र
नेत्रकमळोने विकसावनार अने विद्वानरूपी चकोर पक्षीओने आनंद
आपनार आपनी स्तुतिरूप जळमां स्नान कर्युं तथा संतापजन्य खेदना
समूहनी शान्ति करी. हे जिनेन्द्रदेव! हुं हवे जतां जतां आपमां ज चित्तने
जोडतो थको भावना करुं छुं के फरीथी आपना दर्शन थाव. २६.
ए प्रमाणे श्री भूपाल कविप्रणीत जिनचतुर्विंशतिनी श्री पं.
श्रेयांसकुमारजी शास्त्रीकृत भाषा टीकानो गुजराती अनुवाद समाप्त.