भक्ति एटले भजवुं. कोने भजवुं? पोताना स्वरूपने
भजवुं. मारुं स्वरूप निर्मळ अने निर्विकारी — सिद्ध जेवुं — छे
तेनुं यथार्थ भान करीने तेने भजवुं ते ज निश्चय भक्ति छे, ने
ते ज परमार्थ स्तुति छे. नीचली भूमिकामां देव-शास्त्र-गुरुनी
भक्तिनो भाव आवे ते व्यवहार छे, शुभ राग छे. कोई कहेशे
के आ वात अघरी पडे छे. पण भाई! अनंता धर्मात्मा क्षणमां
भिन्न तत्त्वोनुं भान करी, स्वरूपमां ठरी — स्वरूपनी निश्चय
भक्ति करी — मोक्ष गया छे, वर्तमानमां केटलाक जाय छे अने
भविष्यमां अनंता जीवो तेवी ज रीते जशे.
गुरुदेवश्रीनां वचनामृत बोल नं. १२
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अंतरमां तुं तारा आत्मा साथे प्रयोजन राख अने बहारमां
देव-शास्त्र-गुरु साथे; बस, अन्य साथे तारे शुं प्रयोजन छे?
जे व्यवहारे साधनरूप कहेवाय छे, जेमनुं आलंबन
साधकने आव्या विना रहेतुं नथी — एवां देव-शास्त्र-गुरुना
आलंबनरूप शुभ भाव ते पण परमार्थे हेय छे, तो पछी अन्य
पदार्थो के अशुभ भावोनी तो वात ज शी? तेमनाथी तारे शुं
प्रयोजन छे?
आत्मानी मुख्यतापूर्वक देव-शास्त्र-गुरुनुं आलंबन साधकने
आवे छे. मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवे पण कह्युं छे के ‘हे
जिनेंद्र! हुं गमे ते स्थळे होउं पण फरीफरीने आपनां
पादपंकजनी भक्ति हो’! — आवा भाव साधकदशामां आवे छे,
अने साथे साथे आत्मानी मुख्यता तो सतत रह्या ज करे छे.
बहेनश्रीनां वचनामृत बोल नं. ३४२
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