कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
किं च स्वभावनिर्वृत्ताभिरेवानंतपरमाणुमयीभिः शब्दयोग्यवर्गणाभिरन्योन्यमनुप्रविश्य समंततोऽभिव्याप्य पूरितेऽपि सकले लोके। यत्र यत्र बहिरङ्गकारणसामग्री समदेति तत्र तत्र ताः शब्दत्वेनस्वयं व्यपरिणमंत इति शब्दस्य नियतमुत्पाद्यत्वात् स्कंधप्रभवत्वमिति।। ७९।। ----------------------------------------------------------------------------- होनेसे वह स्कन्धजन्य हैं, क्योंकि महास्कन्ध परस्पर टकरानेसे शब्द उत्पन्न होता है। पुनश्च यह बात विशेष समझाई जाती हैः– एकदूसरेमें प्रविष्ट होकर सर्वत्र व्याप्त होकर स्थित ऐसी जो स्वभावनिष्पन्न ही [–अपने स्वभावसे ही निर्मित्त], अनन्तपरमाणुमयी शब्दयोग्य–वर्गणाओंसे समस्त लोक भरपूर होने पर भी जहाँ–जहाँ बहिरंगकारण सामग्री उदित होती है वहाँ–वहाँ वे वर्गणाएँ १शब्दरूपसे स्वयं परिणमित होती हैं; इस प्रकार शब्द नित्यतरूपसे [अवश्य] २उत्पाद्य है; इसलिये वह ३स्कन्धजन्य है।। ७९।। -------------------------------------------------------------------------- १। शब्दके दो प्रकार हैंः [१] प्रायोगिक और [२] वैश्रसिक। पुरुषादिके प्रयोगसे उत्पन्न होनेवाले शब्द वह
द्वींन्द्रियादिक जीवोंके शब्दरूप तथा [केवलीभगवानकी] दिव्य ध्वनिरूपसे वह अनक्षरात्मक हैं। अभाषात्मक
शब्द भी द्विविध हैं – प्रायोगिक और वैश्रिसिक। वीणा, ढोल, झांझ, बंसरी आदिसे उत्पन्न होता हुआ
प्रायोगिक है और मेघादिसे उत्पन्न होता हुआ वैश्रसिक है।
२। उत्पाद्य=उत्पन्न कराने योग्य; जिसकी उत्पत्तिमें अन्य कोई निमित्त होता है ऐसा। ३। स्कन्धजन्य=स्कन्धों द्वारा उत्पन्न हो ऐसाः जिसकी उत्पत्तिमें स्कन्ध निमित्त होते हैं ऐसा। [समस्त लोकमें
जिव्हा–ओष्ठ, द्यंटा–मोगरी आदि महास्कन्धोंका टकराना वह बहिरंगकारणसामग्री है अर्थात् शब्दरूप
परिणमनमें वे महास्कन्ध निमित्तभूत हैं इसलिये उस अपेक्षासे [निमित्त–अपेक्षासे] शब्दको व्यवहारसे
स्कन्धजन्य कहा जाता है।]