कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
अथ धर्माधर्मद्रव्यास्तिकायव्याख्यानम्।
लेगागाढं पुट्ठं पिहुलमसंखादियपदेसं।। ८३।।
लेकावगाढः स्पृष्टः पृथुलोऽसंख्यातप्रदेशः।। ८३।।
धर्मस्वरूपाख्यानमेतत्।
धर्मो हि स्पर्शरसगंधवर्णानामत्यंताभावादमूर्तस्वभावः। त्त एव चाशब्दः। स्कल– लोकाकाशाभिव्याप्यावस्थितत्वाल्लोकावगाढः। अयुतसिद्धप्रदेशत्वात् स्पष्टः। स्वभावादेव सर्वतो विस्तृतत्वात्पृथुलः। निश्चयनयेनैकप्रदेशोऽपि व्यवहारनयेनासंख्यातप्रदेश इति।। ८३।। -----------------------------------------------------------------------------
अब धर्मद्रव्यास्तिकाय और अधर्मद्रव्यास्तिकायका व्याख्यान है।
अन्वयार्थः– [धर्मास्तिकायः] धर्मास्तिकाय [अस्पर्शः] अस्पर्श, [अरसः] अरस, [अवर्णगंधः] अगन्ध, अवर्ण और [अशब्दः] अशब्द है; [लोकावगाढः] लोकव्यापक हैः [स्पृष्टः] अखण्ड, [पृथुलः] विशाल और [असंख्यातप्रदेशः] असंख्यातप्रदेशी है।
टीकाः– यह, धर्मके [धर्मास्तिकायके] स्वरूपका कथन है।
स्पर्श, रस, गंध और वर्णका अत्यन्त अभाव होनेसे धर्म [धर्मास्तिकाय] वास्तवमें अमूर्तस्वभाववाला है; और इसीलिये अशब्द है; समस्त लोकाकाशमें व्याप्त होकर रहनेसे लोकव्यापक है; १अयुतसिद्ध प्रदेशवाला होनेसे अखण्ड है; स्वभावसे ही सर्वतः विस्तृत होनेसे विशाल है; निश्चयनयसे ‘एकप्रदेशी’ होन पर भी व्यवहारनयसे असंख्यातप्रदेशी है।। ८३।। -------------------------------------------------------------------------- १। युतसिद्ध=जुड़े हुए; संयोगसिद्ध। [धर्मास्तिकायमें भिन्न–भिन्न प्रदेशोंका संयोग हुआ है ऐसा नहीं है, इसलिये उसमें बीचमें व्यवधान–अन्तर–अवकाश नहीं है ; इसलिये धर्मास्तिकाय अखण्ड है।] २। एकप्रदेशी=अविभाज्य–एकक्षेत्रवाला। [निश्चयनयसे धर्मास्तिकाय अविभाज्य–एकपदार्थ होनेसे अविभाज्य–
लोकावगाही, अखंड छे, विस्तृत, असंख्यप्रदेश। ८३।