कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
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१३३
अथ धर्माधर्मद्रव्यास्तिकायव्याख्यानम्।
धम्मत्थिकायमरसं अवण्णगंधं असद्दमप्फासं।
लेगागाढं पुट्ठं पिहुलमसंखादियपदेसं।। ८३।।
धर्मास्तिकायोऽरसोऽवर्णगंधोऽशब्दोऽस्पर्शः।
लेकावगाढः स्पृष्टः पृथुलोऽसंख्यातप्रदेशः।। ८३।।
धर्मस्वरूपाख्यानमेतत्।
धर्मो हि स्पर्शरसगंधवर्णानामत्यंताभावादमूर्तस्वभावः। त्त एव चाशब्दः। स्कल–
लोकाकाशाभिव्याप्यावस्थितत्वाल्लोकावगाढः। अयुतसिद्धप्रदेशत्वात् स्पष्टः। स्वभावादेव सर्वतो
विस्तृतत्वात्पृथुलः। निश्चयनयेनैकप्रदेशोऽपि व्यवहारनयेनासंख्यातप्रदेश इति।। ८३।।
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अब धर्मद्रव्यास्तिकाय और अधर्मद्रव्यास्तिकायका व्याख्यान है।
गाथा ८३
अन्वयार्थः– [धर्मास्तिकायः] धर्मास्तिकाय [अस्पर्शः] अस्पर्श, [अरसः] अरस, [अवर्णगंधः]
अगन्ध, अवर्ण और [अशब्दः] अशब्द है; [लोकावगाढः] लोकव्यापक हैः [स्पृष्टः] अखण्ड,
[पृथुलः] विशाल और [असंख्यातप्रदेशः] असंख्यातप्रदेशी है।
टीकाः– यह, धर्मके [धर्मास्तिकायके] स्वरूपका कथन है।
स्पर्श, रस, गंध और वर्णका अत्यन्त अभाव होनेसे धर्म [धर्मास्तिकाय] वास्तवमें
अमूर्तस्वभाववाला है; और इसीलिये अशब्द है; समस्त लोकाकाशमें व्याप्त होकर रहनेसे लोकव्यापक
है; १अयुतसिद्ध प्रदेशवाला होनेसे अखण्ड है; स्वभावसे ही सर्वतः विस्तृत होनेसे विशाल है;
निश्चयनयसे ‘एकप्रदेशी’ होन पर भी व्यवहारनयसे असंख्यातप्रदेशी है।। ८३।।
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१। युतसिद्ध=जुड़े हुए; संयोगसिद्ध। [धर्मास्तिकायमें भिन्न–भिन्न प्रदेशोंका संयोग हुआ है ऐसा नहीं है, इसलिये
उसमें बीचमें व्यवधान–अन्तर–अवकाश नहीं है ; इसलिये धर्मास्तिकाय अखण्ड है।]
२। एकप्रदेशी=अविभाज्य–एकक्षेत्रवाला। [निश्चयनयसे धर्मास्तिकाय अविभाज्य–एकपदार्थ होनेसे अविभाज्य–
एकक्षेत्रवाला है।]
धर्मास्तिकाय अवर्णगंध, अशब्दरस, अस्पर्श छे;
लोकावगाही, अखंड छे, विस्तृत, असंख्यप्रदेश। ८३।