कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
इदि जिणवरेहिं भणिदं लोगसहावं सुणंताणं।। ९५।।
इति जिनवरैः भणितं लोकस्वभावं शृण्वताम्।। ९५।।
आकाशस्य गतिस्थितिहेतुत्वनिरासव्याख्योपसंहारोऽयम्।
धर्माधर्मावेव गतिस्थितिकारणे नाकाशमिति।। ९५।।
पुधगुवलद्धिविसेसा करिंति एगत्तमण्णत्तं।। ९६।।
----------------------------------------------------------------------------- होगी और पहले–पहले व्यवस्थापित हुआ लोकका अन्त उत्तरोत्तर वृद्धि पानेसे लोकका अन्त ही टूट जायेगा [अर्थात् पहले–पहले निश्चित हुआ लोकका अन्त फिर–फिर आगे बढ़ते जानेसे लोकका अन्त ही नही बन सकेगा]। इसलिये आकाशमें गति–स्थितिका हेतुत्व नहीं है।। ९४।।
धर्म और अधर्म है, [न आकाशम्] आकाश नहीं है। [इति] ऐसा [लोकस्वभावं शृण्वताम्] लोकस्वभावके श्रोताओंसे [जिनवरैः भणितम्] जिनवरोंने कहा है।
टीकाः– यह, आकाशको गतिस्थितिहेतुत्व होनेके खण्डन सम्बन्धी कथनका उपसंहार है।
धर्म और अधर्म ही गति और स्थितिके कारण हैं, आकाश नहीं।। ९५।। --------------------------------------------------------------------------
भाख्युं जिनोए आम लोकस्वभावना श्रोता प्रति। ९५।
वळी भिन्नभिन्न विशेषथी, एकत्व ने अन्यत्व छे। ९६।