इसलिये, यदि इस शास्त्रके अभ्यासकी पूर्ति समयसार, नियमसार, प्रवचनसार आदि अन्य शास्त्रोके अभ्यास द्वारा की जावे तो मुमुक्षुओंको इस शास्त्रके आशय समझनेमें विशेष सुगमता होगी। आचार्यभगवानने सम्यग्ज्ञानकी प्रसिद्धिके हेतुसे तथा मार्गकी प्रभावनाके हेतुसे यह पंचास्तिकायसंग्रह शास्त्र कहा है। हम इसका अध्ययन करके, सर्व द्रव्योंकी स्वतंत्रता समझकरके, नव पदार्थोको यथार्थ समझ करके, चैतन्यगुणमय जीवद्रव्यसामान्यका आश्रय करके, सम्यग्दर्शन–सम्यग्ज्ञान प्रगटा करके, मार्गको प्राप्त करके, भवभ्रमणके दुःखोंका अन्त प्राप्त करें यही भावना है। श्री अमृतचंद्राचार्यदेवने पंचास्तिकायसंग्रहके सम्यक् अवबोधके फलका निम्नोक्त शब्दोमें वर्णन किया हैः–‘जो पुरुष वास्तवमें वस्तुत्त्वका कथन करनेवाले इस ‘पंचास्तिकायसंग्रह’ को अर्थतः अर्थीरूपसे जानकर, इसीमें कहे हुए जीवास्तिकायमें अंतर्गत अपनेको (निज आत्माको) स्वरूपसे अत्यंत विशुद्ध चैतन्यस्वभाववान निश्चित करके, परस्पर कार्यकारणभूत ऐसे अनादि रागद्वेषपरिणाम एवं कर्मबंधकी परंपरासे जिसमें स्वरूपविकार आरोपित है ऐसा अपनेकोे (निज आत्माको) उस काल अनुभवमें आता अवलोक कर, उस समय विवेकज्योति प्रगट होनेसे (अर्थात् अत्यंत विशुद्ध चैतन्यस्वभावका तथा विकारका भेदज्ञान उस काल ही प्रगट प्रवर्तमान होने से) कर्मबंधकी परंपराको प्रवर्तन कराने वाली रागद्वेषपरिणतिको छोड़ता है, वह पुरुष, सचमुच जिसका स्नेह जीर्ण होता जाता है ऐसा, जघन्य स्नेहगुणके संमुख वर्तत परमाणुकी भाँति भावी बंधसे पराङ्मुख वर्तता हुआ, पूर्व बंधसे छूटता हुआ, अग्नितप्त जलकी दुःस्थिति समान जो दुःख उससे परिमुक्त होता है।’ कार्तिक कृष्णा ४, हिंमतलाल जठालाल शाह वि॰ सं॰ २०१३ सोनगढ़ (सौराष्ट्र)