Panchastikay Sangrah (Hindi). Upsanhar Gatha: 103.

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
१५७
एवं पवयणसारं पंचत्थियसंगहं वियाणित्ता।
जो मुयदि रागदासे सो गाहदि दुक्खपरिमोक्खं।। १०३।।
एवं प्रवचनसांर पञ्चास्तिकायसंग्रहं विज्ञाय।
यो मुञ्चति रागद्वेषौ स गाहते दुःखपरिमोक्षम्।। १०३।।
तदवबोधफलपुरस्सरः पञ्चास्तिकायव्याख्योपसंहारोऽयम्।
न खलु कालकलितपञ्चास्तिकायेभ्योऽन्यत् किमपि सकलेनापि प्रवचनेन प्रतिपाद्यते। ततः
प्रवचनसार एवायं पञ्चास्तिकायसंग्रहः। यो हि नामामुं समस्तवस्तुतत्त्वाभिधायिनमर्थतोऽ–
र्थितयावबुध्यात्रैव जीवास्तिकायांतर्गतमात्मानं स्वरूपेणात्यंतविशुद्धचैतन्यस्वभावं निश्चित्य पर–
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गाथा १०३
अन्वयार्थः– [एवम्] इस प्रकार [प्रवचनसारं] प्रवचनके सारभूत [पञ्चास्तिकायसंग्रहं]
‘पंचास्तिकायसंग्रह’को [विज्ञाय] जानकर [यः] जो [रागद्वेषौ] रागद्वेषको [मुञ्चति] छोड़ता है,
[सः] वह [दुःखपरिमोक्षम् गाहते] दुःखसे परिमुक्त होता है।
टीकाः– यहाँ पंचास्तिकायके अवबोधका फल कहकर पंचास्तिकायके व्याख्यानका उपसंहार
किया गया है।
वास्तवमें सम्पूर्ण [द्वादशांगरूपसे विस्तीर्ण] प्रवचन काल सहित पंचास्तिकायसे अन्य कुछ भी
प्रतिपादित नहीं करता; इसलिये प्रवचनका सार ही यह ‘पंचास्तिकायसंग्रह’ है। जो पुरुष
समस्तवस्तुतत्त्वका कथन करनेवाले इस ‘पंचास्तिकायसंग्रह’ को
अर्थतः अर्थीरूपसे जानकर,
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१। अर्थत=अर्थानुसार; वाच्यका लक्षण करके; वाच्यसापेक्ष; यथार्थ रीतिसे।

२। अर्थीरूपसे=गरजीरूपसे; याचकरूपसे; सेवकरूपसे; कुछ प्राप्त करने के प्रयोजनसे [अर्थात् हितप्राप्तिके
हेतुसे]।
ए रीते प्रवचनसाररूप ‘पंचास्तिसंग्रह’ जाणीने
जे जीव छोडे रागद्वेष, लहे सकलदुखमोक्षने। १०३।