कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
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एते जीवनिकायाः पञ्चविधाः पृथिवीकायिकाद्याः।
मनःपरिणामविरहिता जीवा एकेन्द्रिया भणिताः।। ११२।।
पृथिवीकायिकादीनां पंचानामेकेन्द्रियत्वनियमोऽयम्।
पृथिवीकायिकादयो हि जीवाः स्पर्शनेन्द्रियावरणक्षयोपशमात् शेषेन्द्रियावरणोदये
नोइन्द्रियावरणोदये च सत्येकेन्द्रियाअमनसो भवंतीति।। ११२।।
अंडेसु पवड्ढंता गब्भत्था माणुसा य मुच्छगया।
जारिसया तारिसया जीवा एगेंदिया णेया।। ११३।।
अंडेषु प्रवर्धमाना गर्भस्था मानुषाश्च मूर्च्छां गताः।
याद्रशास्ताद्रशा जीवा एकेन्द्रिया ज्ञेयाः।। ११३।।
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गाथा ११२
अन्वयार्थः– [एते] इन [पृथिवीकायिकाद्याः] पृथ्वीकायिक आदि [पञ्चविधाः] पाँच प्रकारके
[जीवनिकायाः] जीवनिकायोंको [मनःपरिणामविरहिताः] मनपरिणामरहित [एकेन्द्रियाः जीवाः]
एकेन्द्रिय जीव [भणिताः] [सर्वज्ञने] कहा है।
टीकाः– यह, पृथ्वीकायिक आदि पाँच [–पंचविध] जीवोंके एकेन्द्रियपनेका नियम है।
पृथ्वीकायिक आदि जीव, स्पर्शनेन्द्रियके [–भावस्पर्शनेन्द्रियके] आवरणके क्षयोपशमके कारण
तथा शेष इन्द्रियोंके [–चार भावेन्द्रियोंके] आवरणका उदय तथा मनके [–भावमनके] आवरणका
उदय होनेसे, मनरहित एकेन्द्रिय है।। ११२।।
गाथा ११३
अन्वयार्थः– [अंडेषु प्रवर्धमानाः] अंडेमें वृद्धि पानेवाले प्राणी, [गर्भस्थाः] गर्भमें रहे हुए प्राणी
[च] और [मूर्च्छा गताः मानुषाः] मूर्छा प्राप्त मनुष्य, [याद्रशाः] जैसे [बुद्धिपूर्वक व्यापार रहित] हैं,
[ताद्रशाः] वैसे [एकेन्द्रियाः जीवाः] एकेन्द्रिय जीव [ज्ञेयाः] जानना।
टीकाः– यह, एकेन्द्रियोंको चैतन्यका अस्तित्व होने सम्बन्धी द्रष्टान्तका कथन है।
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जेवा जीवो अंडस्थ, मूर्छावस्थ वा गर्भस्थ छे;
तेवा बधा आ पंचविध एकेंद्रि जीवो जाणजे। ११३।