व्यवहारको उपचारमात्र मानकर उसके द्वारा वस्तुका श्रद्धान बराबर किया जावे तो वह कार्यकारी
हो, और यदि निश्चयकी भाँति व्यवहार भी सत्यभूत मानकर ‘वस्तु ऐसी ही है’ ऐसा श्रद्धान किया
जावे तो वह उल्टा अकार्यकारी हो जाये। यही पुरुषार्थसिद्धयुपायमें कहा हैः–
व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति।।
माणवक एव सिंहो यथा भवत्यनवगीतसिंहस्य।
व्यवहार एव हि तथा निश्चयतां यात्यनिश्चयज्ञस्य।।
सच्चे सिंहको न समझता उसे तो बिलाव ही सिंह है, उसी प्रकार जो निश्चयको नहीं समझता
उसके तो व्यवहार ही निश्चयपनेको प्राप्त होता है।