तीर्थं प्राथमिकाः। तथा हीदं श्रद्धेयमिदमश्रद्धेयमयं श्रद्धातेदं श्रद्धानमिदं ज्ञेयमिदमज्ञेयमयं ज्ञातेदं
ज्ञानमिदं चरणीयमिदमचरणीयमयं चरितेदं चरणमिति कर्तव्याकर्तव्यकर्तृकर्मविभा–
गावलोकनोल्लसितपेशलोत्साहाः शनैःशनैर्मोहमल्लमुन्मूलयन्तः, कदाचिदज्ञानान्मदप्रमादतन्त्रतया
शिथिलितात्माधिकारस्यात्मनो
अन्य प्रकारसे नहीं होती]।
[२] यह अश्रद्धेय है, [३] यह श्रद्धा करनेवाला है और [४] यह श्रद्धान है; [१] यह ज्ञेय
[जाननेयोग्य] है, [२] यह अज्ञेय है, [३] यह ज्ञाता है और [४] यह ज्ञान हैे; [१] यह
आचरणीय [आचरण करनेयोग्य] है, [२] यह अनाचरणीय है, [३] यह आचरण करनेवाला है
और [४] यह आचरण है;’–इस प्रकार [१] कर्तव्य [करनेयोग्य], [२] अकर्तव्य, [३] कर्ता और
[४] कर्मरूप विभागोंके अवलोकन द्वारा जिन्हें कोमल उत्साह उल्लसित होता है ऐसे वे [प्राथमिक
जीव] धीरे–धीरे मोहमल्लको [रागादिको] उखाड़ते जाते हैं; कदाचित् अज्ञानके कारण [स्व–
संवेदनज्ञानके अभावके कारण] मद [कषाय] और प्रमादके वश होनेसे अपना आत्म–अधिकार
इस प्रकार उन जीवोंको व्यवहारनयसे साध्य और साधन भिन्न प्रकारके कहे गए हैं। [निश्चयनयसे साध्य और
साधन अभिन्न होते हैं।]
भूमिकामें] आंशिक शुद्धिके साथ–साथ श्रद्धानज्ञानचारित्र सम्बन्धी परावलम्बी विकल्प [भेदरत्नत्रय] होते हैं,
क्योंकि अनादि कालसे जीवोंको जो भेदवासनासे वासित परिणति चली आ रही है उसका तुरन्त ही सर्वथा
नाश होना कठिन है।]