चित्रविकल्पजालकल्माषितचैतन्यवृत्तयः, समस्तयतिवृत्तसमुदायरूपतपःप्रवृत्तिरूपकर्मकाण्डोड्डम–
राचलिताः, कदाचित्किञ्चिद्रोचमानाः, कदाचित् किञ्चिद्विकल्पयन्तः, कदाचित्किञ्चिदाचरन्तः,
दर्शनाचरणाय कदाचित्प्रशाम्यन्तः, कदाचित्संविजमानाः, कदाचिदनुकम्पमानाः, कदाचिदा–
स्तिक्यमुद्वहन्तः, शङ्काकाङ्क्षाविचिकित्सामूढद्रष्टितानां व्युत्थापननिरोधाय नित्यबद्धपरिकराः,
उपबृंहण स्थितिकरणवात्सल्यप्रभावनां भावयमाना
ऊठने वाले विचित्र [अनेक प्रकारके] विकल्पोंके जाल द्वारा उनकी चैतन्यवृत्ति चित्र–विचित्र होती है
इसलिए और [३] समस्त यति–आचारके समुदायरूप तपमें प्रवर्तनरूप कर्मकाण्डकी धमालमें वे
अचलित रहते हैं इसलिए, [१] कभी किसीको [किसी विषयकी] रुचि करते हैं, [२] कभी
किसीके [ किसी विषयके] विकल्प करते हैं और [३] कभी कुछ आचरण करते हैं; दर्शनाचरण के
लिए–वे कदाचित् प्रशमित होते है, कदाचित् संवेगको प्राप्त होते है, कदाचित् अनुकंपित होते है,
कदाचित् आस्तिकयको धारण करते हैं, शंका, कांक्षा, विचिकित्सा और मूढद्रष्टिताके उत्थानको
रोकनेके लिए नित्य कटिबद्ध रहते हैं, उपबृंहण, स्थिति– करण, वात्सल्य और प्रभावनाको भाते
केवलव्यवहारावलम्बी जीव इस बातकी गहराईसे श्रद्धा न करते हुए अर्थात् ‘वास्तवमें शुभभावरूप साधनसे ही
शुद्धभावरूप साध्य प्राप्त होगा’ ऐसी श्रद्धाका गहराईसे सेवन करते हुए निरन्तर अत्यन्त खेद प्राप्त करते हैं।
[विशेषके लिए २३० वें पृष्ठका पाँचवाँ और २३१ वें पृष्ठका तीसरा तथा चौथा पद टिप्पण देखें।]