Panchastikay Sangrah (Hindi). Shlok: 2-3.

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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
दुर्निवारनयानीकविरोधध्वंसनौषधिः।
स्यात्कारजीविता जीयाज्जैनी सिद्धान्तपद्धतिः।। २।।
सम्यग्ज्ञानामलज्योतिर्जननी द्विनयाश्रया।
अथातः समयव्याख्या संक्षेपेणाऽभिधीयते।। ३।।
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[अब टीकाकार आचार्यदेव श्लोक द्वारा जिनवाणीकी स्तुति करते हैंः––]
[श्लोकार्थः–] स्यात्कार जिसका जीवन है ऐसी जैनी [–जिनभगवानकी] सिद्धांतपद्धति –
जो कि दुर्निवार नयसमूहके विरोधका नाश करनेवाली औषधि है वह– जयवंत हो। [२]
[अब टीकाकार आचार्यदेव श्लोक द्वारा इस पंचास्तिकायसंग्रह नामक शास्त्रकी टीका रचने की
प्रतिज्ञा करते हैं]
[श्लोकार्थः–] अब यहाँसे, जो सम्यग्ज्ञानरूपी निर्मल ज्योतिकी जननी है ऐसी द्विनयाश्रित
[दो नयोंका आश्रय करनारी] समयव्याख्या [पंचास्तिकायसंग्रह नामक शास्त्रकी समयव्याख्या नामक
टीका] संक्षेपसे कही जाती है। [३]
[अब, तीन श्लोकों द्वारा टीकाकार आचार्यदेव अत्यन्त संक्षेपमें यह बतलाते हैं कि इस
पंचास्तिकायसंग्रह नामक शास्त्रमें किन–किन विषयोंका निरूपण हैः–––]
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१ ़ ‘स्यात्’ पद जिनदेवकी सिद्धान्तपद्धतिका जीवन है। [स्यात् = कथंचित; किसी अपेक्षासे; किसी प्रकारसे।]

२ ़ दुर्निवार = निवारण करना कठिन; टालना कठिन।

३ ़ प्रत्येक वस्तु नित्यत्व, अनित्यत्व आदि अनेक अन्तमय [धर्ममय] है। वस्तुकी सर्वथा नित्यता तथा सर्वथा
अनित्यता माननेमें पूर्ण विरोध आनेपर भी, कथंचित [अर्थात् द्रव्य–अपेक्षासे] नित्यता और कथंचित [अर्थात्
पर्याय– अपेक्षासे] अनित्यता माननेमें किंचित विरोध नहींं आता–ऐसा जिनवाणी स्पष्ट समझाती है। इसप्रकार
जिनभगवानकी वाणी स्याद्वाद द्वारा [अपेक्षा–कथनसे] वस्तुका परम यथार्थ निरूपण करके, नित्यत्व–
अनित्यत्वादि धर्मोंमें [तथा उन–उन धर्मोंको बतलानेवाले नयोंमें] अविरोध [सुमेल] अबाधितरूपसे सिद्ध
करती है और उन धर्मोंके बिना वस्तुकी निष्पत्ति ही नहीं हो सकती ऐसा निर्बाधरूपसे स्थापित करती है।

४ ़ समयव्याख्या = समयकी व्याख्या; पंचास्तिकायकी व्याख्या; द्रव्यकी व्याख्या; पदार्थकी व्याख्या।
[व्याख्या = व्याख्यान; स्पष्ट कथन; विवरण; स्पष्टीकरण।]