Panchastikay Sangrah (Hindi). Shatdravya-panchastikayki samanya vyakhyanroop pithika Gatha: 1.

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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
अथ सूत्रावतारः–
ईदसदवंदियाणं तिहुअणहिदमधुरविसदवक्काणं।
अंतातीदगुणाणं णमो जिणाणं जिदभवाणं।। १।।
इन्द्रशतवन्दितेभ्यस्त्रिभुवनहितमुधरविशदवाक्येभ्यः।
अन्तातीतगुणेभ्यो नमो जिनेभ्यो जितभवेभ्यः।। १।।
अथात्र ‘नमो जिनेभ्यः’ इत्यनेन जिनभावनमस्काररूपमसाधारणं शास्त्रस्यादौ मङ्गलमुपात्तम्।
अनादिना संतानेन प्रवर्त्तमाना अनादिनैव संतानेन प्रवर्त्तमानैरिन्द्राणां शतैर्वन्दिता ये इत्यनेन सर्वदैव
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अब [श्रीमद्भगत्वकुन्दकुन्दाचार्यदेवविरचित] गाथासूत्रका अवतरण किया जाता हैः–––
गाथा १
अन्वयार्थः– [इन्द्रशतवन्दितेभ्यः] जो सो इन्द्रोंसे वन्दित हैं, [त्रिभुवनहितमधुरविशदवाक्येभ्यः]
तीन लोकको हितकर, मधुर एवं विशद [निर्मल, स्पष्ट] जिनकी वाणी है, [अन्तातीतगुणेभ्यः]
[चैतन्यके अनन्त विलासस्वरूप] अनन्त गुण जिनको वर्तता है और [जितभवेभ्यः] जिन्होंने भव पर
विजय प्राप्त की है, [जिनेभ्यः] उन जिनोंको [नमः] नमस्कार हो।
टीकाः– यहाँ [इस गाथामें] ‘जिनोंको नमस्कार हो’ ऐसा कहकर शास्त्रके आदिमें जिनको
भावनमस्काररूप असाधारण मंगल कहा। ‘जो अनादि प्रवाहसे प्रवर्तते [–चले आरहे ] हुए अनादि
प्रवाहसे ही प्रवर्तमान [–चले आरहे] सौ सौ इन्द्रोंसेंवन्दित हैं’ ऐसा कहकर सदैव
देवाधिदेवपनेके कारण वे ही [जिनदेव ही] असाधारण नमस्कारके योग्य हैं ऐसा कहा।
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१। मलको अर्थात पापको गाले––नष्ट करे वह मंगल है, अथवा सुखको प्राप्त करे––लाये वह मंगल हैे।
२। भवनवासी देवोंके ४० इन्द्र, व्यन्तर देवोंके ३२, कल्पवासी देवोंके र४, ज्योतिष्क देवोंके २, मनुष्योंका १
और तिर्यंचोंका १– इसप्रकार कुल १०० इन्द्र अनादि प्रवाहरूपसें चले आरहे हैं ।
शत–इन्द्रवंदित, त्रिजगहित–निर्मल–मधुर वदनारने,
निःसीम गुण धरनारने, जितभव नमुं जिनराजने। १।