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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
नारकतिर्यग्मनुष्यदेवत्वलक्षणानां गतीनां निवारणत्वात् पारतंक्र्यनिवृत्तिलक्षणस्य निर्वाणस्य
शुद्धात्मतत्त्वोपलम्भरूपस्य परम्परया कारणत्वात् स्वातंक्र्यप्राप्तिलक्षणस्य च फलस्य सद्भावादिति।।
२।।
समवाओ पंचण्हं समउ त्ति जिणुत्तमेहिं पण्णत्तं।
सो चेव हवदि लोओ तत्तो अमिओ अलोओ खं।। ३।।
समवादः समवायो वा पंचानां समय इति जिनोत्तमैः प्रज्ञप्तम्।
स च एव भवति लोकस्ततोऽमितोऽलोकः खम्।। ३।।
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[१] ‘नारकत्व’ तिर्यचत्व, मनुष्यत्व तथा देवत्वस्वरूप चार गतियोंका निवारण’ करने के
कारण और [२] शुद्धात्मतत्त्वकी उपलब्धिरूप ‘निर्वाणका परम्परासे कारण’ होनेके कारण [१]
परतंत्रतानिवृति जिसका लक्षण है और [२] स्वतंत्रताप्राप्ति जिसका लक्षण है –– ऐसे १फल
सहित है।
भावार्थः– वीतरागसर्वज्ञ महाश्रमणके मुखसे नीकले हुए शब्दसमयको कोई आसन्नभव्य पुरुष
सुनकर, उस शब्दसमयके वाच्यभूत पंचास्तिकायस्वरूप अर्थ समयको जानता है और उसमें आजाने
वाले शुद्धजीवास्तिकायस्वरूप अर्थमें [पदार्थमें] वीतराग निर्विकल्प समाधि द्वारा स्थित रहकर चार
गतिका निवारण करके, निर्वाण प्राप्त करके, स्वात्मोत्पन्न, अनाकुलतालक्षण, अनन्त सुखको प्राप्त
करता है। इस कारणसे द्रव्यागमरूप शब्दसमय नमस्कार करने तथा व्याख्यान करने योग्य है।।२।।
गाथा ३
अन्वयार्थः– [पंचानां समवादः] पाँच अस्तिकायका समभावपूर्वक निरूपण [वा] अथवा [समवायः]
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मूल गाथामें ‘समवाओ’ शब्द हैे; संस्कृत भाषामें उसका अर्थ ‘समवादः’ भी होता है और ‘ समवायः’ भी
होता है।
१। चार गतिका निवारण [अर्थात् परतन्त्रताकी निवृति] और निर्वाणकी उत्पत्ति [अर्थात् स्वतन्त्रताकी प्राप्ति]
वह समयका फल है।
समवाद वा समवाय पांच तणो समय– भाख्युं जिने;
ते लोक छे, आगळ अमाप अलोक आभस्वरूप छे। ३।