कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
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दधानो द्वेधोपयोगश्च। पर्यायास्त्वगुरुलघुगुणहानिवृद्धिनिर्वृत्ताः शुद्धाः, सूत्रोपात्तास्तु सुरनारक–
तिर्यङ्मनुष्लक्षणाः परद्रव्यसम्बन्धनिर्वृत्तत्वादशुद्धाश्चेति।। १६।।
मणुसत्तणेण णठ्ठो देही देवो हवेदि इदरो वा।
उभयत्थ जीवभावो ण णस्सदि ण जायदे अण्णो।। १७।।
मनुष्यत्वेन नष्टो देही देवो भवतीतरो वा।
उभयत्र जीवभावो न नश्यति न जायतेऽन्यः।। १७।।
इदं भावनाशाभावोत्पादनिषेधोदाहरणम्।
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अशुद्धताके कारण सकलता–विकलता धारण करनेवाला, दो प्रकारका उपयोग है [अर्थात् जीवके
गुणों शुद्ध–अशुद्ध चेतना तथा दो प्रकारके उपयोग हैं]।
जीवकी पर्यायें इसप्रकार हैंः–– अगुरुलघुगुणकी हानिवृद्धिसे उत्पन्न पर्यायें शुद्ध पर्यायें हैं और
सुत्रमें [–इस गाथामें] कही हुई, देव–नारक–तिर्यंच–मनुष्यस्वरूप पर्यायें परद्रव्यके सम्बन्धसे उत्पन्न
होती है इसलिये अशुद्ध पर्यायें हैं।। १६।।
गाथा १७
अन्वयार्थः– [मनुष्यत्वेन] मनुष्यपत्वसे [नष्टः] नष्ट हुआ [देही] देही [जीव]
[देवः वा इतरः] देव अथवा अन्य [भवति] होता है; [उभयत्र] उन दोनोंमें [जीवभावः] जीवभाव
[न नश्यति] नष्ट नहीं होता और [अन्यः] दूसरा जीवभाव [न जायते] उत्पन्न नहीं होता।
टीकाः– ‘भावका नाश नहीं होता और अभावका उत्पाद नहीं होता’ उसका यह उदाहरण है।
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पर्यायार्थिकनयसे गुण भी परिणामी हैं। [दखिये, १५ वीं गाथाकी टीका।]
मनुजत्वथी व्यय पामीने देवादि देही थाय छे;
त्यां जीवभाव न नाश पामे, अन्य नहि उद्भव लहे। १७।