Panchastikay Sangrah (Hindi).

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
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णादिकर्मकिर्मीरतान्वयः। यथैव च तत्र वेणुदण्डे विचित्रचित्रकिर्मीरतान्वयाभावात्सुविशुद्धत्वं, तथैव
च क्वचिज्जीवद्रव्ये ज्ञानवरणादिकर्म किर्मीरतान्वयाभावादाप्तागमसम्यगनुमानातीन्द्रिय–
ज्ञानपरिच्छिन्नात्सिद्धत्वमिति।। २०।।
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ज्ञानावरणादि कर्मसे हुए चित्रविचित्रपनेका अन्वय है। और जिस प्रकार बांँसमें [उपरके भागमें]
सुविशुद्धपना है क्योंकि [वहाँ] विचित्र चित्रोंसे हुए चित्रविचित्रपनेके अन्वयका अभाव है, उसीप्रकार
उस जीवद्रव्यमें [उपरके भागमें] सिद्धपना है क्योंकि [वहाँ] ज्ञानावरणादि कर्मसे हुए
चित्रविचित्रपनेके अन्वयका अभाव है– कि जो अभाव आप्त– आगमके ज्ञानसे सम्यक् अनुमानज्ञानसे
और अतीन्द्रिय ज्ञानसे ज्ञात होता है।
भावार्थः– संसारी जीवकी प्रगट संसारी दशा देखकर अज्ञानी जीवको भ्रम उत्पन्न होता है कि
– ‘जीव सदा संसारी ही रहता है, सिद्ध हो ही नहीं सकता; यदि सिद्ध हो तो सर्वथा असत्–
उत्पादका प्रसंग उपस्थित हो।’ किन्तु अज्ञानीकी यह बात योग्य नहीं है।
जिस प्रकार जीवको देवादिरूप एक पर्यायके कारणका नाश होने पर उस पर्यायका नाश
होकर अन्य पर्यायकी उत्पन्न होती है, जीवद्रव्य तो जो है वही रहता है; उसी प्रकार जीवको
संसारपर्यायके कारणभूत मोहरागद्वेषादिका नाश होने पर संसारपर्यायका नाश होकर सिद्धपर्याय
उत्पन्न होती है, जीवद्रव्य तो जो है वही रहता है। संसारपर्याय और सिद्धपर्याय दोनों एक ही
जीवद्रव्यकी पर्यायें हैं।
पुनश्च, अन्य प्रकारसे समझाते हैंः– मान लो कि एक लंबा बाँस खड़ा रखा गया है;
उसका नीचेका कुछ भाग रंगबिरंगा किया गया है और शेष उपरका भाग अरंगी [–स्वाभाविक
शुद्ध] है। उस बाँसके रंगबिरंगे भागमेंसे कुछ भाग खुला रखा गया है और शेष सारा रंगबिरंगा
भाग और पूरा अरंगी भाग ढक दिया गया है। उस बाँसका खुला भाग रंगबिेरंगा देखकर अविचारी
जीव ‘जहाँ–जहाँ बाँस हो वहाँ–वहाँ रंगबिरंगीपना होता है’ ऐसी व्याप्ति [–नियम,
अविनाभावसम्बन्ध] की कल्पना कर लेता है और ऐसे मिथ्या व्याप्तिज्ञान द्वारा ऐसा अनुमान खींच
लेता है कि ‘नीचेसे उपर तक सारा