Panchastikay Sangrah (Hindi).

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
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यथैव हि पद्मरागरत्नं क्षीरे क्षिप्तं स्वतोऽव्यतिरिक्तप्रभास्कंधेन तद्वयाप्नोति क्षीरं, तथैव हि जीवः
अनादिकषायमलीमसत्वमूले शरीरेऽवतिष्ठमानः स्वप्रदेशैस्तदभिव्याप्नोति शरीरम्। यथैव च तत्र
क्षीरेऽग्निसंयोगादुद्वलमाने तस्य पद्मरागरत्नस्य प्रभास्कंध उद्वलते पुनर्निविशमाने निविशते च, तथैव
च तत्र शरीरे विशिष्टाहारादिवशादुत्सर्पति तस्य जीवस्य प्रदेशाः उत्सर्पन्ति पुनरपसर्पति अपसर्पन्ति
च। यथैव च तत्पद्मरागरत्नमन्यत्र प्रभूतक्षीरे क्षिप्तं स्वप्रभा–स्कंधविस्तारेण तद्वयाप्नोति प्रभूतक्षीरं,
तथैव हि जीवोऽन्यत्र महति शरीरेऽवतिष्ठमानः स्वप्रदेशविस्तारेण तद्वयाप्नोति महच्छरीरम्। यथैव च
तत्पद्मरागरत्नमन्यत्र स्तोकक्षीरे निक्षिप्तं स्वप्रभास्कंधोपसंहारेण तद्वयाप्नोति स्तोकक्षीरं, तथैव च
जीवोऽन्यत्राणुशरीरेऽवतिष्ठमानः
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जिस प्रकार पद्मरागरत्न दूधमें डाला जाने पर अपनेसे अव्यतिरिक्त प्रभासमूह द्वारा उस दूधमें
व्याप्त होता है, उसी प्रकार जीव अनादि कालसे कषाय द्वारा मलिनता होनेके कारण शरीरमें रहता
हुआ स्वप्रदेशों द्वारा उस शरीरमें व्याप्त होता है। और जिस प्रकार अग्निके संयोगसे उस दूधमें
उफान आने पर उस पद्मरागरत्नके प्रभासमूहमें उफान आता है [अर्थात् वह विस्तारको व्याप्त होता
है] और दूध फिर बैठ जाने पर प्रभासमूह भी बैठ जाता है, उसी प्रकार विशिष्ट आहारादिके वश
उस शरीरमें वृद्धि होने पर उस जीवके प्रदेश विस्तृत होते हैं और शरीर फिर सूख जाने पर प्रदेश
भी संकुचित हो जाते हैं। पुनश्च, जिस प्रकार वह पद्मरागरत्न दूसरे अधिक दूधमें डाला जाने पर
स्वप्रभासमूहके विस्तार द्वारा उस अधिक दूधमें व्याप्त होता है, उसी प्रकार जीव दूसरे बड़े शरीरमें
स्थितिको प्राप्त होने पर स्वप्रदेशोंके विस्तार द्वारा उस बड़े शरीरमें व्याप्त होता है। और जिस
प्रकार वह पद्मरागरत्न दूसरे कम दूधमें डालने पर स्वप्रभासमूहके संकोच द्वारा उस थोड़े दूधमें
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अव्यतिरिक्त = अभिन्न [जिस प्रकार ‘मिश्री एक द्रव्य है और मिठास उसका गुण है’ ऐसा कहीं द्रष्टांतमें कहा
हो तो उसे सिद्धांतरूप नहीं समझना चाहिये; उसी प्रकार यहाँ भी जीवके संकोचविस्ताररूप दार्ष्टांतको
समझनेके लिये रत्न और
(दूधमें फैली हुई) उसकी प्रभाको जो अव्यतिरिक्तपना कहा है यह सिद्धांतरूप नहीं
समझना चाहिये। पुद्गलात्मक रत्नको द्रष्टांत बनाकर असंख्यप्रदेशी जीवद्रव्यके संकोचविस्तारको किसी प्रकार
समझानेके हेतु यहाँ रत्नकी प्रभाको रत्नसे अभिन्न कहा है।
(अर्थात् रत्नकी प्रभा संकोचविस्तारको प्राप्त होने
पर मानों रत्नके अंश ही–रत्न ही–संकोचविस्तारको प्राप्त हुए ऐसा समझनेको कहा है)।]