कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
आत्मा हि संसारावस्थायां क्रमवर्तिन्यनवच्छिन्नशरीरसंताने यथैकस्मिन् शरीरे वृत्तः तथा क्रमेणान्येष्वपि शरीरेषु वर्तत इति तस्य सर्वत्रास्तित्वम्। न चैकस्मिन् शरीरे नीरे क्षीरमिवैक्येन स्थितोऽपि भिन्नस्वभावत्वात्तेन सहैक इति तस्य देहात्पृथग्भूतत्वम्। अनादि– बंधनोपाधिविवर्तितविविधाध्यवसायविशिष्टत्वातन्मूलकर्मजालमलीमसत्वाच्च चेष्टमानस्यात्मनस्त– थाविधाध्यवसायकर्मनिर्वर्तितेतरशरीरप्रवेशो भवतीति तस्य देहांतरसंचरणकारणोपन्यास इति।।३४।।
ते होंति भिण्णदेहा सिद्धा वचिगोयरमदीदा।। ३५।।
ते भवन्ति भिन्नदेहाः सिद्धा वाग्गोचरमतीताः।। ३५।।
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आत्मा संसार–अवस्थामें क्रमवर्ती अच्छिन्न [–अटूट] शरीरप्रवाहमें जिस प्रकार एक शरीरमें वर्तता है उसी प्रकार क्रमसे अन्य शरीरोंमें भी वर्तता है; इस प्रकार उसे सर्वत्र [–सर्व शरीरोंमें] अस्तित्व है। और किसी एक शरीरमें, पानीमें दूधकी भाँति एकरूपसे रहने पर भी, भिन्न स्वभावके कारण उसके साथ एक [तद्रूप] नहीं है; इस प्रकार उसे देहसे पृथक्पना है। अनादि बंधनरूप उपाधिसे विवर्तन [परिवर्तन] पानेवाले विविध अध्यवसायोंसे विशिष्ट होनेके कारण [–अनेक प्रकारके अध्यवसायवाला होनेके कारण] तथा वे अध्यवसाय जिसका निमित्त हैं ऐसे कर्मसमूहसे मलिन होनेके कारण भ्रमण करते हुए आत्माको तथाविध अध्यवसायों तथा कर्मोंसे रचे जाने वाले [–उस प्रकारके मिथ्यात्वरागादिरूप भावकर्मों तथा द्रव्यकर्मोंसे रचे जाने वाले] अन्य शरीरमें प्रवेश होता है; इस प्रकार उसे देहान्तरमें गमन होनेका कारण कहा गया।। ३४।।
अस्ति] नहीं है और [सर्वथा] सर्वथा [तस्य अभावः च] उसका अभाव भी नहीं है, [ते] वे [भिन्नदेहाः] देहरहित [वाग्गोचरम् अतीताः] वचनगोचरातीत [सिद्धाः भवन्ति] सिद्ध [सिद्धभगवन्त] हैं। --------------------------------------------------------------------------
जीवत्व नहि ने सर्वथा तदभाव पण नहि जेमने,
ते सिद्ध छे–जे देहविरहित वचनविषयातीत छे। ३५।