कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
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न कुतश्चिदप्युत्पन्नो यस्मात् कार्यं न तेन सः सिद्धः।
उत्पादयति न किंचिदपि कारणमपि तेन न स भवति।। ३६।।
सिद्धस्य कार्यकारणभावनिरासोऽयम्।
यथा संसारी जीवो भावकर्मरूपयात्मपरिणामसंतत्या द्रव्यकर्मरूपया च पुद्गलपरिणामसंतत्या
कारणभूतया तेन तेन देवमनुष्यतिर्यग्नारकरूपेण कार्यभूत उत्पद्यते न तथा सिद्धरूपेणापीति। सिद्धो
ह्युभयकर्मक्षये स्वयमुत्पद्यमानो नान्यतः कुतश्चिदुत्पद्यत इति। यथैव च स एव संसारी
भावकर्मरूपामात्मपरिणामसंततिं द्रव्यकर्मरूपां च पुद्गलपरिणामसंततिं कार्यभूतां कारणभूतत्वेन
निर्वर्तयन् तानि तानि देवमनुष्यतिर्यग्नारकरूपाणि कार्याण्युत्पादयत्यात्मनो न तथा सिद्धरूपमपीति।
सिद्धो ह्युभयकर्मक्षये स्वयमात्मानमुत्पादयन्नान्यत्किञ्चिदुत्पादयति।। ३६।।
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गाथा ३६
अन्वयार्थः– [यस्मात् सः सिद्धः] वे सिद्ध [कुतश्चित् अपि] किसी [अन्य] कारणसे [न
उत्पन्नः] उत्पन्न नहीं होते [तेन] इसलिये [कार्यं न] कार्य नहीं हैं, और [किंचित् अपि] कुछ भी
[अन्य कार्यको] [न उत्पादयति] उत्पन्न नहीं करते [तेन] इसलिये [सः] वे [कारणम् अपि]
कारण भी [न भवति] नहीं हैं।
टीकाः– यह, सिद्धको कार्यकारणभाव होनेका निरास है [अर्थात् सिद्धभगवानको कार्यपना और
कारणपना होनेका निराकरण–खण्डन है]।
जिस प्रकार संसारी जीव कारणभूत ऐसी भावकर्मरूप आत्मपरिणामसंतति और द्रव्यकर्मरूप
पुद्गलपरिणामसंतति द्वारा उन–उन देव–मनुष्य–तिर्यंच–नारकके रूपमें कार्यभूतरूपसे उत्पन्न होता
है, उसी प्रकार सिद्धरूपसे भी उत्पन्न होता है–– ऐेसा नहीं है; [और] सिद्ध [–सिद्धभगवान]
वास्तवमें, दोनों कर्मों का क्षय होने पर, स्वयं [सिद्धरूपसे] उत्पन्न होते हुए अन्य किसी कारणसे
[–भावकर्मसे या द्रव्यकर्मसे] उत्पन्न नहीं होते।
पुनश्च, जिस प्रकार वही संसारी [जीव] कारणभूत होकर कार्यभूत ऐसी भावकर्मरूप
आत्मपरिणामसंतति और द्रव्यकर्मरूप पुद्गलपरिणामसंतति रचता हुआ कार्यभूत ऐसे वे–वे देव–
मनुष्य–तिर्यंच–नारकके रूप अपनेमें उत्पन्न करता है, उसी प्रकार सिद्धका रूप भी [अपनेमें] उत्पन्न
करता है–– ऐेसा नहीं है; [और] सिद्ध वास्तवमें, दोनों कर्मोंका क्षय होने पर, स्वयं अपनेको
[सिद्धरूपसे] उत्पन्न करते हुए अन्य कुछ भी [भावद्रव्यकर्मस्वरूप अथवा देवादिस्वरूप कार्य] उत्पन्न
नहीं करते।। ३६।।
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आत्मपरिणामसंतति = आत्माके परिणामोंकी परम्परा।