Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Devanagari transliteration). Shri Paramatmaprakash; Aavrutti; Shri Sadgurudev Stuti; Prakaskakiy Nivedan; Jinjini VANI; Upodghat; Vishayanukramanika; Shastraswadhyayka Prarambhik Mangalacharan; Pratham Adhikar; Mangalacharan; Shri Pandit Daulataramjikrut Mangalacharan; Shlok.

Next Page >


Combined PDF/HTML Page 1 of 29

 


Page -12 of 565
PDF/HTML Page 2 of 579
single page version

background image
भगवानश्रीकुंदकुंद-कहानजैनशास्त्रमाळा, पुष्प२१२
नमः सर्वज्ञवीतरागाय ।
श्रीमद्भगवत्योगीन्द्रदेवप्रणीत
श्री
परमात्मप्रकाश
मूळ गाथाओ, संस्कृत छाया, श्री ब्रह्मदेवजीकृत संस्कृत टीका,
पं. दौलतरामजीकृत हिन्दी अन्वयार्थ अने टीका तथा
संस्कृत टीकानो शब्दशः गुजराती अनुवाद
ः गुजराती अनुवादकः
श्री अमृतलाल माणेकलाल झाटकिया
ः प्रकाशकः
श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्ट,
सोनगढ- (सौराष्ट्र)

Page -11 of 565
PDF/HTML Page 3 of 579
single page version

background image
प्रथम आवृत्तिप्रत १०००वि. सं. २०६३इ.स. २००७
ः मुद्रकः
कहान मुद्रणालय
सोनगढ- (सौराष्ट्र)
: (02846) 244081
श्री परमात्मप्रकाश (गुजराती)ना
स्थायी प्रकाशन-पुरस्कर्ता
मातुश्री दुधीबेन शाह, पिताश्री जेठालाल संघजी शाह
तथा भाइ नौतमलाल जेठालाल शाहना स्मरणार्थे
हस्ते ब्र. डा. सविताबेन जे. शाह, खार(मुंबइ)
आ शास्त्रनी पडतर किंमत रुा. ११७=०० थाय छे. अनेक
मुमुक्षुओनी आर्थिक सहायथी आ आवृत्तिनी किंमत रुा. ८०=०० थाय
छे. तेमांथी ५०% श्रीकुंदकुंद-कहान पारमार्थिक ट्रस्ट हस्ते स्व. श्री
शांतिलाल रतिलाल शाह-परिवार तरफथी किंमत घटाडवामां आवतां, आ
ग्रंथनी वेचाण किंमत रुा. ४०=०० राखवामां आवी छे.
किंमत रुा. ४०=००
[२]


Page -9 of 565
PDF/HTML Page 5 of 579
single page version

background image
श्री सद्गुरुदेव-स्तुति
[पंडितरत्न श्री हिंमतलाल जेठालाल शाह रचित]
(हरिगीत)
संसारसागर तारवा जिनवाणी छे नौका भली,
ज्ञानी सुकानी मळ्या विना ए नाव पण तारे नहीं;
आ काळमां शुद्धात्मज्ञानी सुकानी बहु बहु दोह्यलो,
मुज पुण्यराशि फळ्यो अहो
! गुरु क्हान तुं नाविक मळ्यो.
(अनुष्टुप)
अहो! भक्त चिदात्माना, सीमंधर-वीर-कुंदना!
बाह्यांतर विभवो तारा, तारे नाव मुमुक्षुनां.
(शिखरिणी)
सदा द्रष्टि तारी विमळ निज चैतन्य नीरखे,
अने ज्ञप्तिमांही दरव-गुण-पर्याय विलसे;
निजालंबीभावे परिणति स्वरूपे जई भळे,
निमित्तो वहेवारो चिदघन विषे कांई न मळे.
(शार्दूलविक्रीडित)
हैयुं ‘सत सत, ज्ञान ज्ञान’ धबके ने वज्रवाणी छूटे,
जे वज्रे सुमुमुक्षु सत्त्व झळके; परद्रव्य नातो तूटे;
रागद्वेष रुचे न, जंप न वळे भावेंद्रिमांअंशमां,
टंकोत्कीर्ण अकंप ज्ञान महिमा हृदये रहे सर्वदा.
(वसंततिलका)
नित्ये सुधाझरण चंद्र! तने नमुं हुं,
करुणा अकारण समुद्र! तने नमुं हुं;
हे ज्ञानपोषक सुमेघ! तने नमुं हुं,
आ दासना जीवनशिल्पी! तने नमुं हुं.
(स्रग्धरा)
ऊंडी ऊंडी, ऊंडेथी सुखनिधि सतना वायु नित्ये वहंती,
वाणी चिन्मूर्ति
! तारी उर-अनुभवना सूक्ष्म भावे भरेली;
भावो ऊंडा विचारी, अभिनव महिमा चित्तमां लावी लावी,
खोयेलुं रत्न पामुं,
मनरथ मननो; पूरजो शक्तिशाळी!

Page -8 of 565
PDF/HTML Page 6 of 579
single page version

background image
[४]
प्रकाशकीय निवेदन
आचार्यवर श्री योगीन्दुदेव कृत आ परमात्मप्रकाश ग्रंथ महा अध्यात्मशास्त्र छे, तेना पर श्री
ब्रह्मदेवजीए संस्कृत टीका रचेल छे तथा पं. दौलतरामजीए संस्कृत टीकानो आधार लई अन्वयार्थ तथा
तेमना समयनी प्रचलित देशभाषा(ढुंढारी)मां सुबोध टीका रचेल छे. आ सर्वेने सामेल करी आ ग्रंथनुं
प्रकाशन ‘‘श्रीमद् रायचंद्र जैन शास्त्रमाळा’’ द्वारा करवामां आव्युं हतुं.
परमोपकारी आत्मज्ञसंत पूज्य गुरुदेव श्री कानजीस्वामीए आ ग्रंथ पर अलौकिक,
स्वानुभवरसगर्भित निजात्मकल्याणप्रेरक प्रवचनो करी मुमुक्षुओने आ अध्यात्मशास्त्रना भावोनुं रहस्य
अत्यंत सरळ रीते समजाव्युं हतुं. जेना परिपाकरूपे अध्यात्मरसिक मुमुक्षुओमां आ महान शास्त्रनो
अभ्यास करवानी रुचि जागृत थई. आ ग्रंथ परनी श्री ब्रह्मदेवजी रचित संस्कृत टीकानो गुजराती
अनुवाद विद्वान भाईश्री अमृतलाल माणेकलाल झाटकिया द्वारा करवामां आव्यो हतो अने गुजराती
अनुवाद सहित आ ग्रंथनुं आ पहेलां प्रकाशन करवामां आवेल.
पूज्य गुरुदेवश्रीनां आ शास्त्र पर थयेलां प्रवचनो टेप थयेलां होवाथी आजे पण CD द्वारा
मुमुक्षुओ अत्यंत रसपूर्वक आ प्रवचनोना श्रवणनो लाभ लई रह्या छे. पूज्य गुरुदेवश्रीनां प्रवचनो थयां
ते समये तेमनी समक्ष पंडित दौलतरामजीनी हिन्दी टीकावाळी आवृत्ति होवाथी पूज्य गुरुदेवश्रीनां
प्रवचनो
CDमांथी सांभळवामां विशेष रसप्रद थाय ते हेतुथी आ आवृत्तिमां गुजराती अनुवादनी साथे
पं. दोलतरामजीनी हिंदी टीकानो पण समावेश करवामां आव्यो छे.
आ संयुक्त आवृत्ति प्रकाशन कर्या पहेलां मूळ प्राकृत गाथाओ, संस्कृत टीका तथा गुजराती
अनुवादमां रहेली भाषाकीय क्षतिओ अत्यंत चीवटपूर्वक सुधाराय तेनी बधी ज काळजी लेवामां आवेल
छे. आ आवृत्तिमां सामेल करवामां आवेल हिंदी टीका माटे अमो श्रीमद् रायचंद्र ग्रंथमाळाना प्रकाशकोनो
पण अंतःकरणपूर्वक आभार मानीए छीए.
आ आवृत्तिना प्रकाशनमां अमने अत्यंत उपयोगी मार्गदर्शन आपवा माटे बाल ब्र. श्री चंदुलाल
जोबाळिया तथा वढवाणनिवासी ब्र. श्री वजुभाई शाहनो पण अंतःकरणपूर्वक आभार मानीए छीए.
तदुपरांत आ कार्यमां मददरूप थनारा सर्वे मुमुक्षुओनो पण आभार मानीए छीए.
अंतमां आ ग्रंथनुं सुंदर मुद्रण कार्य करवा माटे अमो श्री कहान मुद्रणालयना पण आभारी
छीए.
मुमुक्षुओ आ शास्त्रनो पूज्य गुरुदेवश्रीए करेला रहस्योद्घाटनने आत्मसात करी निज
आत्मसाधनामां प्रवृत्त थवा अर्थे आ शास्त्रनो अभ्यास करे एज अभ्यर्थना.
अषाढ वद १
वीर संवत २५३३
ता. ३०-७-२००७
साहित्यप्रकाशनसमिति
श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्ट
सोनगढ (सौराष्ट्र)

Page -7 of 565
PDF/HTML Page 7 of 579
single page version

background image
°
जिनजीनी वाणी
[पंडितरत्न श्री हिंमतलाल जेठालाल शाह रचित]
[राग-आशाभर्या अमे आविया]
सीमंधर मुखथी फूलडां खरे,
एनी कुंदकुंद गूंथे माळ रे,
जिनजीनी वाणी भली रे.
वाणी भली, मन लागे रळी,
जेमां सार-समय शिरताज रे,
जिनजीनी वाणी भली रे......सीमंधर०
गूंथ्यां पाहुड ने गूंथ्युं पंचास्ति,
गूंथ्युं प्रवचनसार रे,
जिनजीनी वाणी भली रे.
गूंथ्युं नियमसार, गूंथ्युं रयणसार,
गूंथ्यो समयनो सार रे,
जिनजीनी वाणी भली रे.......सीमंधर०
स्याद्वाद केरी सुवासे भरेलो
जिनजीनो ॐकारनाद रे,
जिनजीनी वाणी भली रे.
वंदुं जिनेश्वर, वंदुं हुं कुंदकुंद,
वंदुं ए ॐकारनाद रे,
जिनजीनी वाणी भली रे.......सीमंधर०
हैडे हजो, मारा भावे हजो,
मारा ध्याने हजो जिनवाण रे,
जिनजीनी वाणी भली रे.
जिनेश्वरदेवनी वाणीना वायरा
वाजो मने दिनरात रे,
जिनजीनी वाणी भली रे.......सीमंधर०

Page -6 of 565
PDF/HTML Page 8 of 579
single page version

background image
उपोद्घाात
आपणा भरतक्षेत्रनी वर्तमान चोवीसीना अंतिम तीर्थंकर देवाधिदेव परम वीतराग सर्वज्ञ
श्री महावीर स्वामीए दिव्यध्वनि द्वारा सुधामृत वरसावी निजात्मसुखदायक मोक्षमार्गनो उपदेश
आपी भरतक्षेत्रना भव्य जीवो पर अपार करुणा करी छे. तेओनो आ कल्याणकारी उपदेश
तेओना निर्वाण बाद पण तेमना शासनमां थयेला केवळी अने श्रुतकेवळी भगवंतो, भावलिंगी
वीतरागी महामुनिवरो द्वारा सतत प्रवाहित थतो रह्यो छे.
तेमना आ उपदेशने आजथी लगभग २००० वर्ष पहेलां भारतवर्षने पोतानी
निजात्मसाधनाथी पावन करी रहेल आचार्यदेव श्री धरसेनाचार्यदेवे श्री पुष्पदंत अने भूतबलि
मुनिराजोने उपदेश आपी तेना फळरूपे षट्खंडागमरूप प्रथम श्रुतस्कंध लीपीबद्ध थयो हतो. तथा
लगभग तेज अरसामां भगवानश्री गुणधर आचार्य अने पश्चात्वर्ती आचार्योनी पंरपरामां थयेल
महान आचार्य श्री कुंदकुंदाचार्यदेव द्वारा समयसारादि परमागमोरूपे द्वितीय श्रुतस्कंधनो प्रवाह
प्रवाहित थयो. आ रीते बंने श्रुतस्कंधो द्वारा भरतक्षेत्रमां भगवान महावीरनुं शासन जीवंत वर्ती
रह्युं छे.
तेमना पछी तेमनी ज परंपरामां ई.स.नी छट्ठी शताब्दीमां थयेल महान आचार्य श्री
योगीन्दुदेवे आ अध्यात्मशैलीना ग्रंथ ‘परमात्मप्रकाश’नी रचना करेल छे. भगवानश्री योगीन्दुदेव
अत्यंत विरक्त चित्त भावलिंगी दिगम्बराचार्य हता. आपना ग्रंथमां वैदिक मान्यताना शब्दोनो
उपयोग जोतां विद्वानोनुं एम मानवुं थाय छे के आप पहेलां वैदिक मतानुसारी होवा जोईए.
आपनो शिष्य प्रभाकर भट्ट हतो, तेना संबोधन अर्थे आ परमात्मप्रकाशनी रचना थयेल छे.
आपने ‘जोइन्दु’, ‘योगीन्दु’, ‘योगेन्दु’, ‘जोगीचन्द्र’
एवा विविध नामोथी ओळखवामां आवे
छे. आपे अपभ्रंश अने संस्कृतमां अनेक रचनाओ रचेल छे. जेवी के १. स्वानुभवदर्पण,
२. परमात्मप्रकाश, ३. योगसार, ४. दोहापाहुड, ५. नौकार श्रावकाचार, ६. अध्यात्मसंदोह,
७. सुभाषितसंग्रह, ८. तत्त्वार्थटीका, ९. दोहापाहुड, १०. अमृताशीति, ११. निजात्माष्टक.
विद्वानोमां आ बधाय ग्रंथोना रचनार विशे विचारभेद छे; पण निर्भ्रांतपणे
परमात्मप्रकाश अने योगसार तो आ ज आचार्यनी रचना छे एमां बे मत नथी. परमात्मप्रकाश
भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेव रचित मोक्षपाहुड अने भगवान श्री पूज्यपादस्वामीना समाधितंत्रना
हार्दथी अत्यंत प्रभावित जणाय छे. तेथी अध्यात्मप्रिय आत्मार्थी मुमुक्षुजनोने आ ग्रंथ अत्यंत
प्रिय थई पड्यो छे. आचार्यदेवे संसारना दुःखोथी दुःखी एवा तेमना शिष्य भट्ट प्रभाकरमां
[६]

Page -5 of 565
PDF/HTML Page 9 of 579
single page version

background image
धार्मिक रुचि जगाडवा माटे तेमना समयमां प्रचलित एवी लोकभाषा प्राकृत-अपभ्रंशमां आ
ग्रंथनी रचना करी छे. जेनी वर्णनशैली तथा लेखनशैली अत्यंत सरळ छे. तेमां पारिभाषिक
शब्दोनो उपयोग अत्यंत अल्प करवामां आवेल छे. आ ग्रंथमां आचार्यदेवे पोताना स्वानुभव
तथा पोतानी वीतराग चारित्रनी भावनाने ज विशेषपणे घूंटी छे. तेथी तेना अध्ययनथी
भव्यजनोने पोतानी आत्मार्थप्रधान भावनानुं पोषण सहज रीते थाय छे.
ग्रंथकार भगवान श्री योगीन्दुदेवनी जेम टीकाकार आचार्य ब्रह्मदेवजी पण
अध्यात्मरसिक महान आचार्य हता. तेओनुं मूळ नाम ‘देव’ अने बालब्रह्मचारी होवाथी
ब्रह्मचर्यनो घणो रंग होवाने लीधे ‘ब्रह्म’ एमनी उपाधि थई जतां ‘ब्रह्मदेव’ नाम पडेल हतुं.
तेओ इ.स. १०७०थी १११०मां अरसामां थयेल होवानुं विद्वानो माने छे. ‘बृहद्द्रव्यसंग्रह’नी
आपनी टीकामां आपेल कथान्यायानुसार, विद्वानोनुं मानवुं छे के, नेमिचन्द्रसिद्धांतिदेव, सोमनामक
राजश्रेष्ठि अने ब्रह्मदेवजी त्रणेय समकालीन राजा भोजना समयमां थया हता. आपनी अने
आचार्य जयसेनजीनी समयसारादि प्राभृतत्रयनी टीकामांनी भाषाशैली साम्यता होवा छतां
आचार्य जयसेनथी ब्रह्मदेवजी पछी थयेल होवानुं विद्वानोनो मत छे. परमात्मप्रकाशनी टीका
उपरांत आपे बृहद्द्रव्यसंग्रहनी टीका, तत्त्वदीपक, प्रतिष्ठातिलक, कथाकोष आदि अनेक ग्रंथोनी
रचना करेल छे.
आ ग्रंथमां मूलतः बे महाधिकारोमां आत्मा (बहिरात्मा) परमात्मा कई रीते थाय छे
तेनुं खूब ज विस्तारथी सुंदर वर्णन करेल छे के जेनां रहस्यो आपणने आत्मकल्याणनुं कारण
थाय. आ शास्त्रना भावो परम तारणहार कृपाळु कहान गुरुदेवनां स्वानुभवरसगर्भित प्रवचनोथी
ज यथार्थ समजी शकाय छे. (जे हाल
CDथी पण सांभळी शकाय छे.)
आ शास्त्रमां आत्मा (बहिरात्मा) परमात्मा कई रीते थाय छे तेना उपायरूपे बे
अधिकार पैकी प्रथम अधिकारमां १२३ (क्षेपक गाथाओ सहित १२६) गाथाओमां भेदविवक्षाथी
आत्माना बहिरात्मा, अंतरात्मा अने परमात्मा
एम त्रण भेद बताववामां आव्या छे. तेमांथी
परमात्मानुं स्वरूप समजावीने शुद्धनिश्चयनये तेवा ज परमात्मा शक्तिपणे बधा ज आत्माओ
छे के जे देहदेवळमां बिराजमान छे एम प्रतिपादन कर्युं छे. त्यार बाद देहदेवळमां होवा छतां
ते शुद्धनिश्चयनये देह अने कर्मथी भिन्न छे. तथा ते शक्तिस्वरूपे परमात्मापणामय आत्मानुं
स्वरूप द्रव्य-गुण-पर्यायनां स्वरूप द्वारा बतावतां, स्वरूपकामी जीवोमां पोताना आत्माने देह-
कर्मादिथी भिन्न जाणवा (भेदज्ञान)अर्थे निज आत्मा विषेनी भावनानी उग्रता सहेजे थतां तेओ
पुरुषार्थ द्वारा सम्यग्दर्शन प्राप्त करे ते दर्शाव्युं छे अने जे एवुं ज भेदज्ञान करतो नथी ते
मिथ्याद्रष्टि रहे छे. तेथी दरेक संसारी जीवे केवुं भेदज्ञान निरंतर भाववुं जोईए तेनुं विस्तारथी
वर्णन करी ‘परमात्मा थवानी भावना’ अने ‘सामान्यरूपे (संक्षिप्तरूपे) उपाय’ बतावी आचार्यदेवे
प्रथम महाधिकार पूर्ण करेल छे.
[७]

Page -4 of 565
PDF/HTML Page 10 of 579
single page version

background image
आ प्रमाणे प्रथम अधिकारमां बहिरात्माने परमात्मा बनवानो उपाय सामान्यरूपे
समजावी ते ज उपायने द्वितीय महाधिकारनी १०७ (क्षेपक सहित ११९) गाथाओ अने
चूलिकारूप १०७ गाथाओ मळी कुल २२६ गाथाओमां विस्ताररुचि शिष्यने आ ज विषय
विशेषपणे अत्यंत विस्तारथी समजावेल छे.
आ द्वितीय अधिकारमां प्रथम मोक्ष अने मोक्षना फळनी रुचि थवा अर्थे सर्वप्रथम मोक्ष
अने मोक्षना फळनुं स्वरूप बतावेल छे. त्यारबाद सम्यक्रत्नत्रयस्वरूप एक ज मोक्षमार्गने
निश्चयनय अने व्यहारनय द्वारा विस्तारथी समजावेल छे. आ प्रमाणे निश्चय अने व्यवहारनयथी
कहेवामां आवता मोक्षमार्गरूपे परिणमता जीवने परिणतिमां अपूर्व निर्मळतानी वृद्धि थतां
(
गुणस्थान क्रमनी अपेक्षाए सातिशय अप्रमत्तदशाने प्राप्त थई श्रेणी मांडवायोग्य-दशाने
पामवारूप) अभेदरत्नत्रयनुं स्वरूप बतावी तेवा जीवोनी अंतर परिणतिमां समभावनी उग्रता
अने साम्यभावमय शुद्धोपयोगरूप निर्विकल्पदशानुं विस्तारथी वर्णन करतां अंते सोळवला सुवर्ण
समान सर्व जीवो शुद्धनये समान छे एम दर्शावेल छे. आम आ द्वितीय अधिकारमां
संसारीजीवोने परमात्मा थवानो उपाय विस्तारथी समजावेल छे.
आ द्वितीय अधिकारमां अंते विस्तारथी शास्त्रमां नहीं कहेवायेला अने कहेवाई गयेला
भावोना विशेष व्याख्यान स्वरूपे १०७ गाथाओमां चूलिका कहेल छे. आ द्वारा शुद्धोपयोगरूप
अभेदरत्नत्रयमयी साक्षात् मोक्षना उपायने विस्तृतपणे शुद्धात्मस्वभावना आश्रये सम्यक्-
रत्नत्रयना बळे विविध प्रकारना मोहनो त्याग थतां परम निर्विकल्प समाधिदशामय
अभेदरत्नत्रयनुं के जे गुणस्थानक्रमनी परिभाषामां श्रेणीदशा कहेवाय छे तेनुं स्वरूप बतावेल
छे. श्रावकदशामां आवुं उत्कृष्ट ध्यान थई शकतुं नथी. तेवुं उत्कृष्ट ध्यान जे साक्षात् मोक्षनुं कारण
छे ते बतावी अंते तेना फळरूपे अर्हंत-सिद्धपदनी प्राप्ति बतावी त्यारबाद आ परमात्मप्रकाश
ग्रंथना अभ्यासनुं फळ बतावीने तेना अभ्यासनी प्रेरणा आपी तथा अभ्यास करनारनी योग्यता
दर्शावी ग्रंथनी समाप्ति करी छे; वाचके पण आ शास्त्रनो अभ्यास करी तद्भावमय बनवुं
जोईए. ए ज आ शास्त्रनुं तात्पर्य छे.
टीकाकार मुनिराज व्याकरणादि करतां अर्थ पर विशेष भार मुके छे. तेओ सौथी पहेलां
शब्दार्थ आपे छे. त्यारबाद शास्त्रकारना कथननी नयविवक्षाने खोलीने नयार्थ समजावे छे.
शास्त्रकारना कथनमां अन्यमत जेवी वाचकनी कई विपरीत कल्पनाओनुं खंडन थाय छे ते दर्शावी
मतार्थ दर्शावेल छे तथा शास्त्रकारना कथनने पोषक अन्य आगमोनो संदर्भ आपी आगमार्थ
बतावी अंतमां गाथानुं तथा जे ते अधिकारनुं तात्पर्य दर्शावी भावार्थ बतावे छे. आम आ टीका
सर्वांग सुंदर छे तथा शास्त्रकारना भावोने समजवामां अत्यंत उपयोगी छे. मोक्षमार्गना साधकने
सरागचारित्रथी वीतरागचारित्र अने वीतरागचारित्रथी तेना फळस्वरूप मोक्ष-अनंतसुखनी
प्राप्तिनो मार्ग टीकाकार खूब ज सरळ तेम ज गंभीर शैलीथी स्पष्ट करे छे.
[८]

Page -3 of 565
PDF/HTML Page 11 of 579
single page version

background image
तदुपरांत विक्रमनी १९मी सदीमां थयेल विद्वान पंडित दौलतरामजीए टीकाकारना
भावोने सुगम हिंदी भाषामां समजाववानो सुंदर प्रयास कर्यो छे.
श्री परमात्मप्रकाशना ग्रंथकार आचार्य श्री योगीन्द्रदेव तथा टीकाकार श्री ब्रह्मदेवजीना
अंतरमां रहेला भावोने पोतानी अनुभवरसभीनी प्रवचनशैलीथी वर्तमानयुगना अद्वितीय
अध्यात्मयोगी परमोपकारी सुवर्णपुरीना संत श्री कहानगुरुदेवे खोली मुमुक्षु जगत पर अवर्णनीय
उपकार कर्यो छे. तेओश्रीए ज वर्तमानमां मात्र आ ज नहीं पण महान आचार्यो प्रणीत अनेक
महान ग्रंथोनां सर्व रहस्योने पोते अनुभवीने तथा तेना भावोने खोलीने वर्तमानकाळमां भगवान
महावीरे प्रबोधेला स्वानुभूतियुक्त सम्यक् रत्नत्रयप्रधान मोक्षमार्गनी ज्योतने जळहळती राखी
छे.
तथा तद्भक्त स्वानुभूतिविभूषित सम्यक्त्वपरिणत पूज्य भगवती बहेनश्री चंपाबहेने
पण पूज्य गुरुदेवना अंतरना भावोने स्पष्ट करी पूज्य गुरुदेवश्री द्वारा थयेली शासनप्र्रभावनामां
अनेरा रंगो पूर्या छे.
अंतमां आ युगना आ बंने संत महात्माओने अंतःकरणपूर्वक वंदन करी तेमना
उपकारोने हृदयमां सर्वदा राखी मुमुक्षुजनो आ परमात्मप्रकाश ग्रंथना भावोने समजी निज
आत्मकल्याणने साधे ए ज अभ्यर्थना.
साहित्यप्रकाशनसमिति
श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्ट
सोनगढ (सौराष्ट्र)
[९]

Page -2 of 565
PDF/HTML Page 12 of 579
single page version

background image
विषयानुक्रमणिका
मंगलाचरण ....................... ८
१ त्रिविधा आत्माधिाकार
श्री योगीन्द्र गुरुने भट्ट
प्रभाकरना प्रश्नो ............... २६
श्री गुरुनो त्रण प्रकारना
आत्माना कथनना
उपदेशरूपे उत्तर ................ ३२
११
बहिरात्मानां लक्षण ................... ३६
१३
अंतर आत्मानुं स्वरूप ............... ३७
१४
परमात्मानां लक्षण ................... ३९
१५
परमात्मानुं स्वरूप ................... ४२
१७
शक्तिरूपे बधा जीवोना शरीरमां
परमात्मा विराजमान छे ..... ५२
२६
जीव अने अजीवमां लक्षणना
भेदथी भेद ..................... ५८
३०
शुद्धात्मानुं मुख्य लक्षण ............... ६०
३१
शुद्धात्माना ध्यानथी संसार
भ्रमणनी रूकावट ............... ६१
३२
जीवना परिणाम पर मत
मतान्तरनो विचार ............. ७३
४१
द्रव्य, गुण, पर्यायनी मुख्यता
द्वारा आत्मानुं कथन........... ९६
५६
द्रव्य, गुण, पर्यायनुं स्वरूप ......... ९८
५७
जीवनो कर्मना संबंधमां विचार..... १०४ ५९
आत्मानुं परवस्तुथी भिन्न
होवानुं कथन ................. ११९
६७
निश्चयसम्यग्द्रष्टिनुं स्वरूप............ १३०
७६
मिथ्याद्रष्टिनुं लक्षण .................... १३२ ७७
सम्यग्द्रष्टिनी भावना ................. १४२ ८५
भेदविज्ञाननी मुख्यताथी
आत्मानुं कथन .................. १५२ ९३
२ मोक्षाधिाकार
मोक्षनी बाबतमां प्रश्न .............. २०१
मोक्षना विषयनो उत्तर ............... २०२
मोक्षनुं फळ .............................. २१८ ११
मोक्षमार्गनुं व्याख्यान.................. २१९ १२
अभेदरत्नत्रयनुं व्याख्यान ............ २६३
३१
परम उपशमभावनी मुख्यता ....... २८० ३९
निश्चयथी पुण्यपापनी एकता ........ ३०७ ५३
शुद्धोपयोगनी मुख्यता ................. ३३०
६७
परद्रव्यना संबंधनो त्याग............ ३९७ १०८
त्यागनुं द्रष्टांत .......................... ४०० ११०
मोहनो त्याग ........................... ४०१ १११
इन्द्रियोमां लपटायेल
जीवनो विनाश.................. ४०७ ११२
लोभकषायनो दोष ..................... ४०८ ११३
स्नेहनो त्याग .......................... ४०९ ११४
जीवहिंसानो दोष ...................... ४२२ १२५
जीवरक्षाथी लाभ ...................... ४२६ १२७
अध्रुवभावना............................ ४३० १२९
जीवने शिक्षा ............................ ४३७ १३३
विषय
पृष्ठ दोहा विषय
पृष्ठ दोहा
[१०]

Page -1 of 565
PDF/HTML Page 13 of 579
single page version

background image
पांच इन्द्रियोने जीतवी ............... ४४२ १३६
इन्द्रियसुखनुं अनित्यपणुं ............. ४४५ १३८
मनने जीती इन्द्रियोने जीतवी ...... ४४८ १४०
सम्यक्त्वनी दुर्लभता .................. ४५३ १४३
गृहवास अथवा ममत्वमां दोष .... ४५५ १४४
देहपरथी ममत्वनो त्याग ............ ४५६ १४५
देहनी मलिनतानुं कथन .............. ४६० १४८
आत्माधीन सुखमां प्रीति ............ ४६९ १५४
चित्त स्थिर करवाथी
आत्मस्वरूपनी प्राप्ति ......... ४७२ १५६
निर्विकल्प समाधिनुं कथन ............ ४७८ १६१
दानपूजादि श्रावकधर्म परंपरा
मोक्षनुं कारण छे ............... ४९१ १६८
चिंतारहित ध्यान मुक्तिनुं कारण ... ४९३ १६९
आ आत्मा ज परमात्मा छे ....... ४९९ १७४
देह अने आत्मानी भेदभावना .... ५०३ १७७
बधी चिंताओनो निषेध .............. ५१४ १८७
परमसमाधिनुं व्याख्यान .............. ५१७ १८९
अर्हंत पदनुं कथन..................... ५२६ १९५
परमात्मप्रकाश शब्दनो अर्थ ......... ५३० १९८
सिद्धस्वरूपनुं कथन..................... ५३४ २०१
परमात्मप्रकाशनुं फळ .................. ५३८ २०४
परमात्मप्रकाश माटे योग्य पुरुष... ५४२ २०७
परमात्मप्रकाश शास्त्रनुं फळ .......... ५४९ २१३
अंतिम मंगल .......................... ५५१ २१४
परमात्मप्रकाशना दोहानी
वर्णानुक्रम सूची ................. ५५६५६१
संस्कृत टीकामां उद्धृत पद्योनी
वर्णानुक्रम सूची ................. ५६२५६४
दाताओना नामनी यादी ............. ५६५
विषय
पृष्ठ दोहा
विषय
पृष्ठ दोहा
[११]

Page 0 of 565
PDF/HTML Page 14 of 579
single page version

background image
नमः श्रीसर्वज्ञवीतरागाय
शास्त्र-स्वाध्यायका प्रारंभिक मंगलाचरण
ओंकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः
कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नमः ।।१।।
अविरलशब्दघनौघप्रक्षालितसकलभूतलकलङ्का
मुनिभिरुपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितान् ।।२।।
अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ।।३।।
श्रीपरमगुरवे नमः, परम्पराचार्यगुरवे नमः ।।
सकलकलुषविध्वंसकं, श्रेयसां परिवर्धकं, धर्मसम्बन्धकं, भव्यजीवमनःप्रतिबोधकारकं,
पुण्यप्रकाशकं, पापप्रणाशकमिदं शास्त्रं श्रीपरमात्मप्रकाशनामधेयं, अस्य मूलग्रन्थकर्तारः
श्रीसर्वज्ञदेवास्तदुत्तरग्रन्थकर्तारः श्रीगणधरदेवाः प्रतिगणधरदेवास्तेषां वचनानुसारमासाद्य
आचार्यश्रीयोगीन्दुदेव(योगीन्द्रदेव)विरचितं, श्रोतारः सावधानतया शृणवन्तु
।।
मङ्गलं भगवान् वीरो मङ्गलं गौतमो गणी
मङ्गलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मङ्गलम् ।।१।।
सर्वमङ्गलमाङ्गल्यं सर्वकल्याणकारकं
प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयतु शासनम् ।।२।।
[१२]

Page 1 of 565
PDF/HTML Page 15 of 579
single page version

background image
श्रीमद्ब्रह्मदेवकृत संस्कृत टीकानो गुजराती अनुवाद
(संस्कृत टीकाकारनुं मंगलाचरण)
चिदानन्दैकरूपाय जिनाय परमात्मने
परमात्मप्रकाशाय नित्यं सिद्धात्मने नमः ।।१।।
अर्थः[परमात्मप्रकाशाय] परमात्मस्वरूपना प्रकाशन-अर्थे [चिदानन्दैकरूपाय] चिदानंद
ज जेनुं एक रूप छे एवा [सिद्धात्मने जिनाय परमात्मने] सिद्धस्वरूप जिन परमात्माने [नित्यं]
सदा काळ [नमः] नमस्कार हो. १.
प्रथम महाधिकार (गाथा१२३)
श्री योगीन्द्रदेवकृत परमात्मप्रकाश नामना दोहकछंद ग्रंथमां प्रक्षेपक दोहकोने छोडीने
।। श्रीपरमात्मने नमः ।।
श्रीमद्योगीन्दुदेवविरचितः
परमात्मप्रकाशः
श्रीमद्ब्रह्मदेवकृतसंस्कृतटीका
चिदानन्दैकरूपाय जिनाय परमात्मने
परमात्मप्रकाशाय नित्यं सिद्धात्मने नमः ।।१।।
श्रीयोगीन्द्रदेवकृतपरमात्मप्रकाशाभिधाने दोहकछन्दोग्रन्थे प्रक्षेपकान् विहाय
श्री पंडित दौलतरामजीकृत मंगलाचरण
दोहाचिदानंद चिद्रूप जो, जिन परमातम देव
सिद्धरूप सुविसुद्ध जो, नमों ताहि करि सेव ।।१।।
परमातम निजवस्तु जो, गुण अनंतमय शुद्ध
ताहि प्रकाशनके निमित, वंदूं देव प्रबुद्ध ।।२।।
‘चिदानंद इत्यादि श्लोकका अर्थश्रीजिनेश्वरदेव शुद्ध परमात्मा आनंदरूप

Page 2 of 565
PDF/HTML Page 16 of 579
single page version

background image
व्याख्यान अर्थे अधिकारनी शुद्धि [परिपाटी] कहेवामां आवे छे. ते आ प्रमाणे(१) प्रथम
ज पंचपरमेष्ठीना नमस्कारनी मुख्यताथी ‘‘जे जाया झाणग्गियए’’ इत्यादि सात दोहक सूत्रो छे,
(२) त्यारपछी विज्ञापननी मुख्यताथी ‘‘भाविं पणविवि’’ इत्यादि त्रण सूत्रो छे, (३) त्यार-
पछी बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा ए भेदोथी त्रण प्रकारना आत्माना कथननी मुख्यताथी
‘‘-पुणु पुणु पणविवि’’ इत्यादि पांच सूत्रो छे, (४) त्यारपछी मुक्तिने प्राप्त थयेला व्यक्तिरूप
परमात्माना कथननी मुख्यताथी ‘‘तिहुयणवंदिउ’’ इत्यादि दस सूत्रो छे, (५) त्यारपछी देहमां
रहेला शक्तिरूप परमात्माना कथननी मुख्यताथी ‘‘जेहउ णिम्मलु’’ इत्यादि पांच अन्तर्भूत
प्रक्षेपको सहित चोवीस सूत्रो छे, (६) पछी जीवना निजदेहप्रमाणना विषयमां स्वमत, परमतना
विचारनी मुख्यताथी
‘‘किं वि भणंति जिउ सव्वगउ’’ इत्यादि छ सूत्रो छे, (७) त्यारपछी
व्याख्यानार्थमधिकारशुद्धिः कथ्यते । तद्यथाप्रथमतस्तावत्पञ्चपरमेष्ठिनमस्कारमुख्यत्वेन ‘जे
जाया झाणग्गियए’ इत्यादि सप्त दोहकसूत्राणि भवन्ति, तदनन्तरं विज्ञापनमुख्यतया ‘भाविं
पणविवि’ इत्यादिसूत्रत्रयम्, अत ऊर्ध्वं बहिरन्तःपरमभेदेन त्रिधात्मप्रतिपादनमुख्यत्वेन ‘पुणु पुणु
पणविवि’ इत्यादिसूत्रपञ्चकम्, अथानन्तरं मुक्ति गतव्यक्ति रूपपरमात्मकथनमुख्यत्वेन
‘तिहुयणवंदिउ’ इत्यादि सूत्रदशक म्, अत ऊर्ध्वं देहस्थितशक्ति रूपपरमात्मकथनमुख्यत्वेन ‘जेहउ
णिम्मुलु’ इत्यादि अन्तर्भूतप्रक्षेपपञ्चकसहितचतुर्विंशतिसूत्राणि भवन्ति, अथ जीवस्य
स्वदेहप्रमितिविषये स्वपरमतविचारमुख्यतया
‘किं वि भणंति जिउ सव्वगउ’ इत्यादिसूत्रषट्कं,
२ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ पातनिका
चिदानंदचिद्रूप है, उनके लिये मेरा सदाकाल नमस्कार होवे, किस लिये ? परमात्माके स्वरूपके
प्रकाशनेके लिये
कैसे हैं वे भगवान् ? शुद्ध परमात्मस्वरूपके प्रकाशक हैं, अर्थात् निज और
पर सबके स्वरूपको प्रकाशते हैं फि र कैसे हैं ? ‘सिद्धात्मने’ जिनका आत्मा कृतकृत्य है
सारांश यह है कि नमस्कार करने योग्य परमात्मा ही है, इसलिये परमात्माको नमस्कार कर
परमात्मप्रकाशनामा
ग्रंथका व्याख्यान करता हूँ
श्रीयोगीन्द्रदेवकृत परमात्मप्रकाश नामा दोहक छंद ग्रंथमें प्रक्षेपक दोहोंको छोड़कर
व्याख्यानके लिये अधिकारोंकी परिपाटी कहते हैंप्रथम ही पंच परमेष्ठीके नमस्कारकी
मुख्यताकर ‘जे जाया झाणग्गियए’ इत्यादि सात दोहे जानना, विज्ञापना की मुख्यताकर ‘भाविं
पणविवि’
इत्यादि तीन दोहे, बहिरात्मा, अंतरात्मा, परमात्मा, इन भेदोंसे तीन प्रकार आत्माके
कथनकी मुख्यताकर ‘पुणु पुणु पणविवि’ इत्यादि पाँच दोहे, मुक्तिको प्राप्त हुए जो प्रगटस्वरूप
परमात्मा उनके कथनकी मुख्यताकर ‘तिहुयण वंदिउ’ इत्यादि दस दोहे, देहमें तिष्ठे हुए शक्तिरूप
परमात्माके कथनकी मुख्यतासे ‘जेहउ णिम्मलु’ इत्यादि पाँच क्षेपकों सहित चौवीस दोहे, जीवके
निजदेह प्रमाण कथनमें स्वमत-परमतके विचारकी मुख्यताकर ‘कि वि भणंति जिउ सव्वगउ’

Page 3 of 565
PDF/HTML Page 17 of 579
single page version

background image
द्रव्यगुणपर्यायना स्वरूपना कथननी मुख्यताथी ‘‘अप्पा जणियउ’’ इत्यादि त्रण सूत्रो छे,
(८) त्यारपछी कर्मविचारनी मुख्यताथी ‘‘जीवहं कम्मु अणाई जिय’’ इत्यादि आठ सूत्रो छे,
(९) त्यारपछी सामान्य भेदभावनाना कथनथी ‘‘अप्पा अप्पु जि’’ इत्यादि नव सूत्रो छे,
(१०) त्यारपछी निश्चय सम्यग्द्रष्टिना कथनरूपथी ‘‘अप्पिं अप्पु’’ इत्यादि एक सूत्र छे,
(११) त्यारपछी मिथ्याभावना कथननी मुख्यताथी ‘‘पज्जयरत्तउ’’ इत्यादि आठ सूत्रो छे,
(१२) त्यारपछी सम्यग्द्रष्टिनी भावनानी मुख्यताथी ‘‘कालु लहेविणु’’ इत्यादि आठ सूत्रो छे,
(१३) त्यारपछी सामान्य भेद भावनानी मुख्यताथी ‘‘अप्पा संजमु’’ इत्यादि एकत्रीश जेटला
दोहक सूत्रो छे.
ए प्रमाणे श्रीयोगीन्द्रदेवविरचित परमात्मप्रकाश शास्त्रमां एकसोत्रेवीस दोहकसूत्रोथी
बहिरात्मा, अन्तरात्मा अने परमात्माना स्वरूपना कथननी मुख्यताथी प्रथम प्रकरण-पातनिका
पूरी थई. (अने तेमां तेर अन्तराधिकार छे)
तदनन्तरं द्रव्यगुणपर्यायस्वरूपकथनमुख्यतया ‘अप्पा जणियउ’ इत्यादि सूत्रत्रयम्, अथानन्तरं
कर्मविचारमुख्यत्वेन
‘जीवहं कम्मु अणाइ जिय’ इत्यादि सूत्राष्टकं, तदनन्तरं सामान्य-
भेदभावनाकथनेन
‘अप्पा अप्पु जि’ इत्यादि सूत्रनवकम्, अत ऊर्ध्वं निश्चय-
सम्यग्
द्रष्टिकथनरूपेण ‘अप्पिं अप्पु’ इत्यादि सूत्रमेकं, तदनन्तरं मिथ्याभावकथनमुख्यत्वेन
‘पज्जयरत्तउ’ इत्यादि सूत्राष्टकम्, अत ऊर्ध्वं सम्यग्द्रष्टिभावनामुख्यत्वे ‘कालु लहेविणु’
इत्यादिसूत्राष्टकं, तदनन्तरं सामान्यभेदभावनामुख्यत्वेन ‘अप्पा संजमु’ इत्याद्येकाधिक-
त्रिंशत्प्रमितानि दोहकसूत्राणि भवन्ति
।। इति श्रीयोगीन्द्रदेवविरचितपरमात्मप्रकाशशास्त्रे
त्रयोविंशत्यधिकशतदोहकसूत्रैर्बहिरन्तःपरमात्मस्वरूपकथनमुख्यत्वेन प्रथमप्रकरणपातनिका
समाप्ता
अथानन्तरं द्वितीयमहाधिकारप्रारम्भे मोक्षमोक्षफलमोक्षमार्गस्वरूपं कथ्यते तत्र
पातनिका ]परमात्मप्रकाशः [ ३
इत्यादि छह दोहे, द्रव्य गुण पर्यायके स्वरूप कहनेकी मुख्यताकर ‘अप्पा जणियउ’ इत्यादि तीन
दोहे, कर्म-विचारकी मुख्यताकर ‘जीवहं कम्मु अणाइ जिय’ इत्यादि आठ दोहे, सामान्य भेद
भावनाके कथन कर ‘अप्पा अप्पु जि’ इत्यादि नौ दोहे, निश्चयसम्यग्दृष्टिके कथनरूप ‘अप्पे अप्पु
जि’
इत्यादि एक दोहा, मिथ्याभावके कथनकी मुख्यताकर ‘पज्जयरत्तउ’ इत्यादि आठ दोहे,
सम्यग्दृष्टिकी मुख्यता कर ‘कालु लहेविणु’ इत्यादि आठ दोहे और सामान्यभेदभावकी मुख्यताकर
‘अप्पा संजमु’
इत्यादि इकतीस दोहे कहे हैं इस तरह श्रीयोगीन्द्रदेवविरचित परमात्मप्रकाश ग्रंथमें
१२३ दोहों का पहला प्रकरण कहा है, इस प्रकरणमें बहिरात्मा, अंतरात्मा, परमात्माके स्वरूपके
कथनकी मुख्यता है, तथा इसमें तेरह अंतर अधिकार हैं
अब दूसरे अधिकारमें मोक्ष, मोक्षफल

Page 4 of 565
PDF/HTML Page 18 of 579
single page version

background image
प्रथमतस्तावत् ‘सिरिगुरु’ इत्यादिमोक्षस्वरूपकथनमुख्यत्वेन दोहकसूत्राणि दशकम्, अत ऊर्ध्वं
‘दंसणु णाणु’ इत्याद्येकसूत्रेण मोक्षफलं, तदनन्तरं ‘जीवहं मोक्खहं हेउ वरु’
इत्याद्येकोनविंशतिसूत्रपर्यन्तं निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गमुख्यतया व्याख्यानम्, अथानन्तरम-
भेदरत्नत्रयमुख्यत्वेन
‘जो भत्तउ’ इत्यादि सूत्राष्टकम्, अत ऊर्ध्वं समभावमुख्यत्वेन ‘कम्मु
पुरक्किउ’ इत्यादिसूत्राणि चतुर्दश, अथानन्तरं पुण्यपापसमानमुख्यत्वेन ‘बंधहं मोक्खहं हेउ णिउ’
इत्यादिसूत्राणि चतुर्दश, अत ऊर्ध्वम् एकचत्वारिंशत्सूत्रपर्यन्तं प्रक्षेपकान् विहाय
शुद्धोपयोगस्वरूपमुख्यत्वमिति समुदायपातनिका
तत्र प्रथमतः एकचत्वारिंशन्मध्ये ‘सुद्धहं संजमु’
इत्यादिसूत्रपञ्चकपर्यन्तं शुद्धोपयोगमुख्यतया व्याख्यानम्, अथानन्तरं ‘दाणिं लब्भइ’
बीजो महाधिकार (दोहक सूत्रो२१४)
त्यारपछी बीजा महाधिकारनी (दोहकसूत्रो २१४) शरूआतमां मोक्ष, मोक्षफळ, अने
मोक्षमार्गनुं स्वरूप कहेवामां आवे छे. (१) त्यां प्रथम ज मोक्ष स्वरूपना कथननी मुख्यताथी
‘‘सिरिगुरु’’ इत्यादि दस दोहकसूत्रो छे, (२) त्यारपछी ‘‘दंसणु णाणु’’ ए एक सूत्रथी
मोक्षनुं फळ दर्शाव्युं छे, (३) त्यारपछी ‘‘जीवहं मोक्खहं हेउ वरु’’ इत्यादि ओगणीस सूत्र
सुधी निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गनी मुख्यताथी व्याख्यान कर्युं छे, (४) त्यारपछी अभेदरत्नत्रयनी
मुख्यताथी
‘‘जो भत्तउ’’ इत्यादि आठ सूत्रो छे, (५) त्यारपछी समभावनी मुख्यताथी ‘‘कम्मु
पुरक्किउ’’ इत्यादि चौद सूत्रो छे, (६) त्यारपछी पुण्य पापनी समानतानी मुख्यताथी ‘‘बंधहं
मोक्खहं हेउ णिउ’’ इत्यादि चौद सूत्रो छे.
त्यार पछी प्रक्षेपकोने छोडीने एकतालीस सूत्रो सुधी शुद्धोपयोगना स्वरूपनी मुख्यता
छे. ए प्रमाणे समुदायपातनिका जाणवी.
(७) ते एकतालीस सूत्रोमांथी प्रथम ‘‘सुद्धहं संजमु’’ इत्यादि पांच सूत्रो सुधी
शुद्धोपयोगनी मुख्यताथी व्याख्यान छे, (८) त्यारपछी ‘दाणिं लब्भइ’ इत्यादि पंदर सूत्रो
४ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ पातनिका
और मोक्षमार्ग इनका स्वरूप कहा है, उसमें प्रथम ही ‘सिरिगुरु’ इत्यादि मोक्ष रूपके कथनकी
मुख्यताकर दस दोहे, ‘दंसण णाणु’ इत्यादि एक दोहाकर मोक्षका फल, निश्चय व्यवहार
मोक्षमार्गकी मुख्यताकर ‘जीवहं मोक्खहं हेउ वरु’ इत्यादि उन्नीस दोहे, अभेदरत्नत्रयकी
मुख्यताकर ‘जो भत्तउ’ इत्यादि आठ दोहे, समभावकी मुख्यताकर ‘कम्मु पुरक्किउ’ इत्यादि
चौदह दोहे पुण्य-पापकी समानताकी मुख्यता कर ‘बंधहं मोक्खहं हेउ णिउ’ इत्यादि चौदह दोहे
हैं, और शुद्धोपयोगके स्वरूपकी मुख्यताकर प्रक्षेपकोंके बिना इकतालीस दोहे पर्यंत व्याख्यान
है
उन इकतालीस दोहोंमें से प्रथम ही ‘सुद्धहं संजमु’ इत्यादि पाँच दोहा तक शुद्धोपयोगके
व्याख्यानकी मुख्यता है, ‘दाणिं लब्भइ’ इत्यादि पंद्रह दोहा पर्यंत वीतराग स्वसंवेदनज्ञानकी

Page 5 of 565
PDF/HTML Page 19 of 579
single page version

background image
सुधी वीतराग स्वसंवेदनज्ञाननी मुख्यताथी व्याख्यान छे, (९) त्यारपछी ‘लेणहं इच्छइ मूढु’
इत्यादि आठ सूत्रो सुधी परिग्रहना त्यागनी मुख्यताथी व्याख्यान छे. (१०) त्यारपछी
‘‘जो भत्तउ रयणत्तयहं’’ इत्यादि तेर सूत्रो सुधी शुद्धनयथी सोळ वला सुवर्णनी माफक सर्वे
जीवो केवळज्ञानादि लक्षणथी समान छे एवी मुख्यताथी व्याख्यान छे. (ते एकताळीस सूत्रोना
महास्थळना चार अन्तर स्थळो छे) ए प्रमाणे एकताळीस सूत्रो समाप्त थयां.
त्यारपछी ‘‘परु जाणंतु वि’’ इत्यादि समाप्ति सुधी प्रक्षेपक सूत्रोने छोडीने एकसो
सात सूत्रोथी चूलिका व्याख्यान छे. ते एकसो सात सूत्रोमांथी छेल्ला ‘परम समाहि’ इत्यादि
चोवीस सूत्रोमां सात स्थळो छे. [तेमां (परम) समाधिनुं कथन छे.]
(१) तेमां प्रथम स्थळमां निर्विकल्प समाधिनी मुख्यताथी ‘‘परमसमाहिमहासरहिं’’
इत्यादि छ सूत्रो छे, (२) त्यारपछी अर्हत्पदनी मुख्यताथी ‘‘सयलवियप्पहं’’ इत्यादि त्रण
इत्यादिपञ्चदशसूत्रपर्यन्तं वीतरागस्वसंवेदनज्ञानमुख्यत्वेन व्याख्यानं, तदनन्तरं ‘लेणहं इच्छइ मूढु’
इत्यादिसूत्राष्टकपर्यन्तं परिग्रहत्यागमुख्यतया व्याख्यानम्, अत ऊर्ध्वं ‘जो भत्तउ रयणत्तयहं’
इत्यादि त्रयोदशसूत्रपर्यन्तं शुद्धनयेन षोडशवर्णिकासुवर्णवत् सर्वे जीवाः
केवलज्ञानादिस्वभावलक्षणेन समाना इति मुख्यत्वेन व्याख्यानम्, इत्येकचत्वारिंशत्सूत्राणि
गतानि
अत ऊर्ध्वं ‘परु जाणंतु वि’ इत्यादि समाप्तिपर्यन्तं प्रक्षेपकान् विहाय सप्तोत्तरशत-
सूत्रैश्चूलिकाव्याख्यानम् तत्र सप्तोत्तरशतमध्ये अवसाने ‘परमसमाहि’ इत्यादि चतुर्विंशतिसूत्रेषु
सप्त स्थलानि भवन्ति तस्मिन् प्रथमस्थले निर्विक ल्पसमाधिमुख्यत्वेन ‘परमसमाहिमहासरहिं’
इत्यादि सूत्रषट्कं, तदनन्तरमर्हत्पदमुख्यत्वेन ‘सयलवियप्पहं’ इत्यादि सूत्रत्रयम्, अथानन्तरं
पातनिका ]परमात्मप्रकाशः [ ५
मुख्यताकर व्याख्यान है, परिग्रह त्यागकी मुख्यताकर ‘लेणह इच्छइ’ इत्यादि आठ दोहा पर्यन्त
व्याख्यान है, ‘जो भत्तउ रयणत्तयहं’ इत्यादि तेरह दोहा पर्यंत शुद्धनयकर सोलहवानके सुवर्णकी
तरह सब जीव केवलज्ञानादि स्वभावलक्षणकर समान हैं यह व्याख्यान है
इस तरह इकतालीस
दोहोंके व्याख्यानकी विधि कही उनके चार अधिकार हैं यहाँपर एकसौ ग्यारह दोहोंका दूसरा
महा अधिकार कहा है, उसमें दस अन्तर अधिकार हैं इसके बाद ‘परु जाणंतु वि’ इत्यादि
एकसौ सात दोहोंमें ग्रंथकी समाप्ति पर्यंत चूलिका व्याख्यान है इनके सिवाय प्रक्षेपक हैं
उन एकसौ सात दोहोंमेंसे अन्तके ‘परमसमाहि’ इत्यादि चौबीस दोहा पर्यंत परमसमाधिका कथन
है, उनमें सात स्थल हैं
उनमेंसे प्रथम स्थलमें निर्विकल्प समाधिकी मुख्यताकर
‘परमसमाहिमहासरहिं’ इत्यादि छह दोहे, अरहंतपदकी मुख्यताकर ‘सयल वियप्पहं’ इत्यादि

Page 6 of 565
PDF/HTML Page 20 of 579
single page version

background image
सूत्रो छे, (३) त्यारपछी परमात्मप्रकाश नामनी मुख्यताथी ‘‘सयलहं कम्महं दोसहं’’ इत्यादि
त्रण सूत्रो छे, (४) पछी सिद्धपदनी मुख्यताथी ‘‘झाणें कम्मक्खउ करिवि’’ इत्यादि त्रण
सूत्रो छे, (५) त्यारपछी परमात्मप्रकाशना आराधक पुरुषोना फळना कथननी मुख्यताथी
‘‘जे परमप्पपयासु मुणि’’ इत्यादि त्रण सूत्रो छे, (६) त्यारपछी परमात्मप्रकाशनी आराधनाने
योग्य पुरुषोना कथननी मुख्यताथी ‘जे भवदुक्खहं’ इत्यादि त्रण सूत्रो छे, (७) त्यारपछी
परमात्मप्रकाशशास्त्रना फळना कथननी मुख्यताथी अने उद्धतपणाना (गर्वना) त्यागनी मुख्यताथी
‘लक्खणछंद’ इत्यादि त्रण सूत्रो छे.
ए प्रमाणे चोवीश दोहक सूत्रोनी एक चूलिकाना अंतमां सात स्थळो समाप्त थयां.
(ए रीते ते महाधिकारोमां अंतर स्थळ अनेक छे. ) ए रीते प्रथमपातनिका
समाप्त थई, (ए रीते परिपाटीनो एक क्रम कह्यो.) अथवा अन्य प्रकारे बीजी पातनिका
कहेवामां आवे छे. ते आ प्रमाणेः
पहेला अधिकारमां प्रथम तो प्रक्षेपक सूत्रोने छोडीने
बहिरात्मा, अन्तरात्मा, अने परमात्माना कथनरूपे एकसोत्रेवीस सूत्रो सुधी व्याख्यान
परमात्मप्रकाशनाममुख्यत्वेन ‘सयलहं कम्महं दोसहं’ इत्यादि सूत्रत्रयम्, अथ सिद्धपदमुख्यत्वेन
‘झाणें कम्मक्खउ करिवि’ इत्यादि सूत्रत्रयं, तदनन्तरं परमात्मप्रकाशाराधकपुरुषाणां
फलकथनमुख्यत्वेन
‘जे परमप्पपयासु मुणि’ इत्यादिसूत्रत्रयम्, अत ऊर्ध्वं
परमात्मप्रकाशाराधनायोग्यपुरुषकथनमुख्यत्वेन ‘जे भवदुक्खहं’ इत्यादिसूत्रत्रयम्’ अथानन्तरं
परमात्मप्रकाशशास्त्रफलकथनमुख्यत्वेन तथैवौद्धत्यपरिहारमुख्यत्वेन च
‘लक्खणछंद’ इत्यादि
सूत्रत्रयम्
इति चतुर्विंशतिदोहकसूत्रैकचूलिकावसाने सप्त स्थलानि गतानि एवं प्रथमपातनिका
समाप्ता अथवा प्रकारान्तरेण द्वितीया पातनिका कथ्यते तद्यथा
प्रथमतस्तावद्बहिरात्मान्तरात्मपरमात्मकथनरूपेण प्रक्षेपकान् विहाय त्रयोविंशत्यधिक-
६ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ पातनिका
तीन दोहे, परमात्मप्रकाशनामकी मुख्यताकर ‘सयलहं दोसहं’ इत्यादि तीन दोहे, सिद्धपदकी
मुख्यताकर ‘झाणें कम्मक्खउ करिवि’ इत्यादि तीन दोहे, परमात्मप्रकाशके आराधक पुरुषोंको
फलके कथनकी मुख्यताकर ‘जे परमप्पपयास मुणि’ इत्यादि तीन दोहे, परमात्मप्रकाशकी
आराधनाके योग्य पुरुषोंके कथनकी मुख्यताकर ‘जो भवदुक्खहं’ इत्यादि तीन दोहे, और
परमात्मप्रकाशशास्त्रके फलके कथनकी मुख्यताकर तथा गर्वके त्यागकी मुख्यताकर ‘लक्खण
छंद’ इत्यादि तीन दोहे हैं
इस प्रकार चूलिकाके अंतमें चौबीस दोहोंमें सात स्थल कहे गये
हैं इस तरह तीन महाअधिकारोंमें अंतर स्थल अनेक हैं एक तो इस प्रकार पातनिका कही,
अथवा अन्य तरह कथनकर दूसरी पातनिका कहते हैपहले अधिकारमें बहिरात्मा, अंतरात्मा