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ज्ञानी सुकानी मळ्या विना ए नाव पण तारे नहीं;
आ काळमां शुद्धात्मज्ञानी सुकानी बहु बहु दोह्यलो,
मुज पुण्यराशि फळ्यो अहो
अने ज्ञप्तिमांही दरव-गुण-पर्याय विलसे;
निजालंबीभावे परिणति स्वरूपे जई भळे,
निमित्तो वहेवारो चिदघन विषे कांई न मळे.
जे वज्रे सुमुमुक्षु सत्त्व झळके; परद्रव्य नातो तूटे;
वाणी चिन्मूर्ति
खोयेलुं रत्न पामुं,
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तेमना समयनी प्रचलित देशभाषा(ढुंढारी)मां सुबोध टीका रचेल छे. आ सर्वेने सामेल करी आ ग्रंथनुं
प्रकाशन ‘‘श्रीमद् रायचंद्र जैन शास्त्रमाळा’’ द्वारा करवामां आव्युं हतुं.
अत्यंत सरळ रीते समजाव्युं हतुं. जेना परिपाकरूपे अध्यात्मरसिक मुमुक्षुओमां आ महान शास्त्रनो
अभ्यास करवानी रुचि जागृत थई. आ ग्रंथ परनी श्री ब्रह्मदेवजी रचित संस्कृत टीकानो गुजराती
अनुवाद विद्वान भाईश्री अमृतलाल माणेकलाल झाटकिया द्वारा करवामां आव्यो हतो अने गुजराती
अनुवाद सहित आ ग्रंथनुं आ पहेलां प्रकाशन करवामां आवेल.
ते समये तेमनी समक्ष पंडित दौलतरामजीनी हिन्दी टीकावाळी आवृत्ति होवाथी पूज्य गुरुदेवश्रीनां
प्रवचनो
छे. आ आवृत्तिमां सामेल करवामां आवेल हिंदी टीका माटे अमो श्रीमद् रायचंद्र ग्रंथमाळाना प्रकाशकोनो
पण अंतःकरणपूर्वक आभार मानीए छीए.
तदुपरांत आ कार्यमां मददरूप थनारा सर्वे मुमुक्षुओनो पण आभार मानीए छीए.
वीर संवत २५३३
ता. ३०-७-२००७
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एनी कुंदकुंद गूंथे माळ रे,
जेमां सार-समय शिरताज रे,
गूंथ्युं प्रवचनसार रे,
गूंथ्यो समयनो सार रे,
जिनजीनो ॐकारनाद रे,
वंदुं ए ॐकारनाद रे,
मारा ध्याने हजो जिनवाण रे,
वाजो मने दिनरात रे,
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आपी भरतक्षेत्रना भव्य जीवो पर अपार करुणा करी छे. तेओनो आ कल्याणकारी उपदेश
तेओना निर्वाण बाद पण तेमना शासनमां थयेला केवळी अने श्रुतकेवळी भगवंतो, भावलिंगी
वीतरागी महामुनिवरो द्वारा सतत प्रवाहित थतो रह्यो छे.
मुनिराजोने उपदेश आपी तेना फळरूपे षट्खंडागमरूप प्रथम श्रुतस्कंध लीपीबद्ध थयो हतो. तथा
लगभग तेज अरसामां भगवानश्री गुणधर आचार्य अने पश्चात्वर्ती आचार्योनी पंरपरामां थयेल
महान आचार्य श्री कुंदकुंदाचार्यदेव द्वारा समयसारादि परमागमोरूपे द्वितीय श्रुतस्कंधनो प्रवाह
प्रवाहित थयो. आ रीते बंने श्रुतस्कंधो द्वारा भरतक्षेत्रमां भगवान महावीरनुं शासन जीवंत वर्ती
रह्युं छे.
अत्यंत विरक्त चित्त भावलिंगी दिगम्बराचार्य हता. आपना ग्रंथमां वैदिक मान्यताना शब्दोनो
उपयोग जोतां विद्वानोनुं एम मानवुं थाय छे के आप पहेलां वैदिक मतानुसारी होवा जोईए.
आपनो शिष्य प्रभाकर भट्ट हतो, तेना संबोधन अर्थे आ परमात्मप्रकाशनी रचना थयेल छे.
आपने ‘जोइन्दु’, ‘योगीन्दु’, ‘योगेन्दु’, ‘जोगीचन्द्र’
२. परमात्मप्रकाश, ३. योगसार, ४. दोहापाहुड, ५. नौकार श्रावकाचार, ६. अध्यात्मसंदोह,
७. सुभाषितसंग्रह, ८. तत्त्वार्थटीका, ९. दोहापाहुड, १०. अमृताशीति, ११. निजात्माष्टक.
भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेव रचित मोक्षपाहुड अने भगवान श्री पूज्यपादस्वामीना समाधितंत्रना
हार्दथी अत्यंत प्रभावित जणाय छे. तेथी अध्यात्मप्रिय आत्मार्थी मुमुक्षुजनोने आ ग्रंथ अत्यंत
प्रिय थई पड्यो छे. आचार्यदेवे संसारना दुःखोथी दुःखी एवा तेमना शिष्य भट्ट प्रभाकरमां
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ग्रंथनी रचना करी छे. जेनी वर्णनशैली तथा लेखनशैली अत्यंत सरळ छे. तेमां पारिभाषिक
शब्दोनो उपयोग अत्यंत अल्प करवामां आवेल छे. आ ग्रंथमां आचार्यदेवे पोताना स्वानुभव
तथा पोतानी वीतराग चारित्रनी भावनाने ज विशेषपणे घूंटी छे. तेथी तेना अध्ययनथी
भव्यजनोने पोतानी आत्मार्थप्रधान भावनानुं पोषण सहज रीते थाय छे.
ब्रह्मचर्यनो घणो रंग होवाने लीधे ‘ब्रह्म’ एमनी उपाधि थई जतां ‘ब्रह्मदेव’ नाम पडेल हतुं.
तेओ इ.स. १०७०थी १११०मां अरसामां थयेल होवानुं विद्वानो माने छे. ‘बृहद्द्रव्यसंग्रह’नी
आपनी टीकामां आपेल कथान्यायानुसार, विद्वानोनुं मानवुं छे के, नेमिचन्द्रसिद्धांतिदेव, सोमनामक
राजश्रेष्ठि अने ब्रह्मदेवजी त्रणेय समकालीन राजा भोजना समयमां थया हता. आपनी अने
आचार्य जयसेनजीनी समयसारादि प्राभृतत्रयनी टीकामांनी भाषाशैली साम्यता होवा छतां
आचार्य जयसेनथी ब्रह्मदेवजी पछी थयेल होवानुं विद्वानोनो मत छे. परमात्मप्रकाशनी टीका
उपरांत आपे बृहद्द्रव्यसंग्रहनी टीका, तत्त्वदीपक, प्रतिष्ठातिलक, कथाकोष आदि अनेक ग्रंथोनी
रचना करेल छे.
थाय. आ शास्त्रना भावो परम तारणहार कृपाळु कहान गुरुदेवनां स्वानुभवरसगर्भित प्रवचनोथी
ज यथार्थ समजी शकाय छे. (जे हाल
आत्माना बहिरात्मा, अंतरात्मा अने परमात्मा
छे के जे देहदेवळमां बिराजमान छे एम प्रतिपादन कर्युं छे. त्यार बाद देहदेवळमां होवा छतां
ते शुद्धनिश्चयनये देह अने कर्मथी भिन्न छे. तथा ते शक्तिस्वरूपे परमात्मापणामय आत्मानुं
स्वरूप द्रव्य-गुण-पर्यायनां स्वरूप द्वारा बतावतां, स्वरूपकामी जीवोमां पोताना आत्माने देह-
कर्मादिथी भिन्न जाणवा (भेदज्ञान)अर्थे निज आत्मा विषेनी भावनानी उग्रता सहेजे थतां तेओ
पुरुषार्थ द्वारा सम्यग्दर्शन प्राप्त करे ते दर्शाव्युं छे अने जे एवुं ज भेदज्ञान करतो नथी ते
मिथ्याद्रष्टि रहे छे. तेथी दरेक संसारी जीवे केवुं भेदज्ञान निरंतर भाववुं जोईए तेनुं विस्तारथी
वर्णन करी ‘परमात्मा थवानी भावना’ अने ‘सामान्यरूपे (संक्षिप्तरूपे) उपाय’ बतावी आचार्यदेवे
प्रथम महाधिकार पूर्ण करेल छे.
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चूलिकारूप १०७ गाथाओ मळी कुल २२६ गाथाओमां विस्ताररुचि शिष्यने आ ज विषय
विशेषपणे अत्यंत विस्तारथी समजावेल छे.
निश्चयनय अने व्यहारनय द्वारा विस्तारथी समजावेल छे. आ प्रमाणे निश्चय अने व्यवहारनयथी
कहेवामां आवता मोक्षमार्गरूपे परिणमता जीवने परिणतिमां अपूर्व निर्मळतानी वृद्धि थतां
(
अने साम्यभावमय शुद्धोपयोगरूप निर्विकल्पदशानुं विस्तारथी वर्णन करतां अंते सोळवला सुवर्ण
समान सर्व जीवो शुद्धनये समान छे एम दर्शावेल छे. आम आ द्वितीय अधिकारमां
संसारीजीवोने परमात्मा थवानो उपाय विस्तारथी समजावेल छे.
अभेदरत्नत्रयमयी साक्षात् मोक्षना उपायने विस्तृतपणे शुद्धात्मस्वभावना आश्रये सम्यक्-
रत्नत्रयना बळे विविध प्रकारना मोहनो त्याग थतां परम निर्विकल्प समाधिदशामय
अभेदरत्नत्रयनुं के जे गुणस्थानक्रमनी परिभाषामां श्रेणीदशा कहेवाय छे तेनुं स्वरूप बतावेल
छे. श्रावकदशामां आवुं उत्कृष्ट ध्यान थई शकतुं नथी. तेवुं उत्कृष्ट ध्यान जे साक्षात् मोक्षनुं कारण
छे ते बतावी अंते तेना फळरूपे अर्हंत-सिद्धपदनी प्राप्ति बतावी त्यारबाद आ परमात्मप्रकाश
ग्रंथना अभ्यासनुं फळ बतावीने तेना अभ्यासनी प्रेरणा आपी तथा अभ्यास करनारनी योग्यता
दर्शावी ग्रंथनी समाप्ति करी छे; वाचके पण आ शास्त्रनो अभ्यास करी तद्भावमय बनवुं
जोईए. ए ज आ शास्त्रनुं तात्पर्य छे.
शास्त्रकारना कथनमां अन्यमत जेवी वाचकनी कई विपरीत कल्पनाओनुं खंडन थाय छे ते दर्शावी
मतार्थ दर्शावेल छे तथा शास्त्रकारना कथनने पोषक अन्य आगमोनो संदर्भ आपी आगमार्थ
बतावी अंतमां गाथानुं तथा जे ते अधिकारनुं तात्पर्य दर्शावी भावार्थ बतावे छे. आम आ टीका
सर्वांग सुंदर छे तथा शास्त्रकारना भावोने समजवामां अत्यंत उपयोगी छे. मोक्षमार्गना साधकने
सरागचारित्रथी वीतरागचारित्र अने वीतरागचारित्रथी तेना फळस्वरूप मोक्ष-अनंतसुखनी
प्राप्तिनो मार्ग टीकाकार खूब ज सरळ तेम ज गंभीर शैलीथी स्पष्ट करे छे.
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अध्यात्मयोगी परमोपकारी सुवर्णपुरीना संत श्री कहानगुरुदेवे खोली मुमुक्षु जगत पर अवर्णनीय
उपकार कर्यो छे. तेओश्रीए ज वर्तमानमां मात्र आ ज नहीं पण महान आचार्यो प्रणीत अनेक
महान ग्रंथोनां सर्व रहस्योने पोते अनुभवीने तथा तेना भावोने खोलीने वर्तमानकाळमां भगवान
महावीरे प्रबोधेला स्वानुभूतियुक्त सम्यक् रत्नत्रयप्रधान मोक्षमार्गनी ज्योतने जळहळती राखी
छे.
अनेरा रंगो पूर्या छे.
आत्मकल्याणने साधे ए ज अभ्यर्थना.
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उपदेशरूपे उत्तर ................ ३२
आत्मानुं परवस्तुथी भिन्न
सम्यग्द्रष्टिनी भावना ................. १४२ ८५
भेदविज्ञाननी मुख्यताथी
मोक्षमार्गनुं व्याख्यान.................. २१९ १२
अभेदरत्नत्रयनुं व्याख्यान ............ २६३
निश्चयथी पुण्यपापनी एकता ........ ३०७ ५३
शुद्धोपयोगनी मुख्यता ................. ३३०
त्यागनुं द्रष्टांत .......................... ४०० ११०
मोहनो त्याग ........................... ४०१ १११
इन्द्रियोमां लपटायेल
स्नेहनो त्याग .......................... ४०९ ११४
जीवहिंसानो दोष ...................... ४२२ १२५
जीवरक्षाथी लाभ ...................... ४२६ १२७
अध्रुवभावना............................ ४३० १२९
जीवने शिक्षा ............................ ४३७ १३३
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इन्द्रियसुखनुं अनित्यपणुं ............. ४४५ १३८
मनने जीती इन्द्रियोने जीतवी ...... ४४८ १४०
सम्यक्त्वनी दुर्लभता .................. ४५३ १४३
गृहवास अथवा ममत्वमां दोष .... ४५५ १४४
देहपरथी ममत्वनो त्याग ............ ४५६ १४५
देहनी मलिनतानुं कथन .............. ४६० १४८
आत्माधीन सुखमां प्रीति ............ ४६९ १५४
चित्त स्थिर करवाथी
दानपूजादि श्रावकधर्म परंपरा
आ आत्मा ज परमात्मा छे ....... ४९९ १७४
बधी चिंताओनो निषेध .............. ५१४ १८७
परमसमाधिनुं व्याख्यान .............. ५१७ १८९
अर्हंत पदनुं कथन..................... ५२६ १९५
परमात्मप्रकाश शब्दनो अर्थ ......... ५३० १९८
सिद्धस्वरूपनुं कथन..................... ५३४ २०१
परमात्मप्रकाशनुं फळ .................. ५३८ २०४
परमात्मप्रकाश माटे योग्य पुरुष... ५४२ २०७
परमात्मप्रकाश शास्त्रनुं फळ .......... ५४९ २१३
अंतिम मंगल .......................... ५५१ २१४
परमात्मप्रकाशना दोहानी
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पुण्यप्रकाशकं, पापप्रणाशकमिदं शास्त्रं श्रीपरमात्मप्रकाशनामधेयं, अस्य मूलग्रन्थकर्तारः
श्रीसर्वज्ञदेवास्तदुत्तरग्रन्थकर्तारः श्रीगणधरदेवाः प्रतिगणधरदेवास्तेषां वचनानुसारमासाद्य
आचार्यश्रीयोगीन्दुदेव(योगीन्द्रदेव)विरचितं, श्रोतारः सावधानतया शृणवन्तु
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विचारनी मुख्यताथी
पणविवि’ इत्यादिसूत्रत्रयम्, अत ऊर्ध्वं बहिरन्तःपरमभेदेन त्रिधात्मप्रतिपादनमुख्यत्वेन ‘पुणु पुणु
पणविवि’ इत्यादिसूत्रपञ्चकम्, अथानन्तरं मुक्ति गतव्यक्ति रूपपरमात्मकथनमुख्यत्वेन
‘तिहुयणवंदिउ’ इत्यादि सूत्रदशक म्, अत ऊर्ध्वं देहस्थितशक्ति रूपपरमात्मकथनमुख्यत्वेन ‘जेहउ
णिम्मुलु’ इत्यादि अन्तर्भूतप्रक्षेपपञ्चकसहितचतुर्विंशतिसूत्राणि भवन्ति, अथ जीवस्य
स्वदेहप्रमितिविषये स्वपरमतविचारमुख्यतया ‘किं वि भणंति जिउ सव्वगउ’ इत्यादिसूत्रषट्कं,
प्रकाशनेके लिये
परमात्मप्रकाशनामा
पणविवि’
परमात्मा उनके कथनकी मुख्यताकर ‘तिहुयण वंदिउ’ इत्यादि दस दोहे, देहमें तिष्ठे हुए शक्तिरूप
परमात्माके कथनकी मुख्यतासे ‘जेहउ णिम्मलु’ इत्यादि पाँच क्षेपकों सहित चौवीस दोहे, जीवके
निजदेह प्रमाण कथनमें स्वमत-परमतके विचारकी मुख्यताकर ‘कि वि भणंति जिउ सव्वगउ’
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पूरी थई. (अने तेमां तेर अन्तराधिकार छे)
कर्मविचारमुख्यत्वेन ‘जीवहं कम्मु अणाइ जिय’ इत्यादि सूत्राष्टकं, तदनन्तरं सामान्य-
भेदभावनाकथनेन ‘अप्पा अप्पु जि’ इत्यादि सूत्रनवकम्, अत ऊर्ध्वं निश्चय-
सम्यग्
त्रिंशत्प्रमितानि दोहकसूत्राणि भवन्ति
समाप्ता
दोहे, कर्म-विचारकी मुख्यताकर ‘जीवहं कम्मु अणाइ जिय’ इत्यादि आठ दोहे, सामान्य भेद
भावनाके कथन कर ‘अप्पा अप्पु जि’ इत्यादि नौ दोहे, निश्चयसम्यग्दृष्टिके कथनरूप ‘अप्पे अप्पु
जि’
‘अप्पा संजमु’
कथनकी मुख्यता है, तथा इसमें तेरह अंतर अधिकार हैं
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‘दंसणु णाणु’ इत्याद्येकसूत्रेण मोक्षफलं, तदनन्तरं ‘जीवहं मोक्खहं हेउ वरु’
इत्याद्येकोनविंशतिसूत्रपर्यन्तं निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गमुख्यतया व्याख्यानम्, अथानन्तरम-
भेदरत्नत्रयमुख्यत्वेन ‘जो भत्तउ’ इत्यादि सूत्राष्टकम्, अत ऊर्ध्वं समभावमुख्यत्वेन ‘कम्मु
पुरक्किउ’ इत्यादिसूत्राणि चतुर्दश, अथानन्तरं पुण्यपापसमानमुख्यत्वेन ‘बंधहं मोक्खहं हेउ णिउ’
इत्यादिसूत्राणि चतुर्दश, अत ऊर्ध्वम् एकचत्वारिंशत्सूत्रपर्यन्तं प्रक्षेपकान् विहाय
शुद्धोपयोगस्वरूपमुख्यत्वमिति समुदायपातनिका
मुख्यताथी
मुख्यताकर दस दोहे, ‘दंसण णाणु’ इत्यादि एक दोहाकर मोक्षका फल, निश्चय व्यवहार
मोक्षमार्गकी मुख्यताकर ‘जीवहं मोक्खहं हेउ वरु’ इत्यादि उन्नीस दोहे, अभेदरत्नत्रयकी
मुख्यताकर ‘जो भत्तउ’ इत्यादि आठ दोहे, समभावकी मुख्यताकर ‘कम्मु पुरक्किउ’ इत्यादि
चौदह दोहे पुण्य-पापकी समानताकी मुख्यता कर ‘बंधहं मोक्खहं हेउ णिउ’ इत्यादि चौदह दोहे
हैं, और शुद्धोपयोगके स्वरूपकी मुख्यताकर प्रक्षेपकोंके बिना इकतालीस दोहे पर्यंत व्याख्यान
है
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महास्थळना चार अन्तर स्थळो छे) ए प्रमाणे एकताळीस सूत्रो समाप्त थयां.
इत्यादिसूत्राष्टकपर्यन्तं परिग्रहत्यागमुख्यतया व्याख्यानम्, अत ऊर्ध्वं ‘जो भत्तउ रयणत्तयहं’
इत्यादि त्रयोदशसूत्रपर्यन्तं शुद्धनयेन षोडशवर्णिकासुवर्णवत् सर्वे जीवाः
केवलज्ञानादिस्वभावलक्षणेन समाना इति मुख्यत्वेन व्याख्यानम्, इत्येकचत्वारिंशत्सूत्राणि
गतानि
व्याख्यान है, ‘जो भत्तउ रयणत्तयहं’ इत्यादि तेरह दोहा पर्यंत शुद्धनयकर सोलहवानके सुवर्णकी
तरह सब जीव केवलज्ञानादि स्वभावलक्षणकर समान हैं यह व्याख्यान है
है, उनमें सात स्थल हैं
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कहेवामां आवे छे. ते आ प्रमाणेः
‘झाणें कम्मक्खउ करिवि’ इत्यादि सूत्रत्रयं, तदनन्तरं परमात्मप्रकाशाराधकपुरुषाणां
फलकथनमुख्यत्वेन ‘जे परमप्पपयासु मुणि’ इत्यादिसूत्रत्रयम्, अत ऊर्ध्वं
परमात्मप्रकाशाराधनायोग्यपुरुषकथनमुख्यत्वेन ‘जे भवदुक्खहं’ इत्यादिसूत्रत्रयम्’ अथानन्तरं
परमात्मप्रकाशशास्त्रफलकथनमुख्यत्वेन तथैवौद्धत्यपरिहारमुख्यत्वेन च ‘लक्खणछंद’ इत्यादि
सूत्रत्रयम्
मुख्यताकर ‘झाणें कम्मक्खउ करिवि’ इत्यादि तीन दोहे, परमात्मप्रकाशके आराधक पुरुषोंको
फलके कथनकी मुख्यताकर ‘जे परमप्पपयास मुणि’ इत्यादि तीन दोहे, परमात्मप्रकाशकी
आराधनाके योग्य पुरुषोंके कथनकी मुख्यताकर ‘जो भवदुक्खहं’ इत्यादि तीन दोहे, और
परमात्मप्रकाशशास्त्रके फलके कथनकी मुख्यताकर तथा गर्वके त्यागकी मुख्यताकर ‘लक्खण
छंद’ इत्यादि तीन दोहे हैं