Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (English transliteration). Gatha: 25-30 (Adhikar 2),31 (Adhikar 2) Abhedaratnatrayanu Vyakhyan,32 (Adhikar 2).

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बढ़ते जाते हैं, वे संख्यात-असंख्यात अनंत प्रदेश तक जानने, अनंत परमाणु इकट्ठे होवें, तब
अनंत प्रदेश कहे जाते हैं
अन्य द्रव्योंके तो विस्ताररूप प्रदेश हैं, और पुद्गलके स्कन्धरूप
प्रदेश हैं पुद्गलके कथनमें प्रदेश शब्दसे परमाणु लेना, क्षेत्र नहीं लेना, पुद्गलका प्रचार
लोकमें ही है, अलोकाकाशमें नहीं है, इसलिये अनंत क्षेत्र प्रदेशके अभाव होनेसे क्षेत्रप्रदेश
न जानने जैसे जैसे परमाणु मिल जाते हैं, वैसे वैसे प्रदेशोंकी बढ़वारी जाननी इसी दोहाके
कथनमें पाठांतर ‘‘पुग्गलु तिविहु पएसु’’ ऐसा है, उसका अर्थ यह है कि पुद्गलके संख्यात,
असंख्यात, अनन्त प्रदेश परमाणुओंके मेलसे जानना चाहिए, अर्थात् एक परमाणु एक प्रदेश,
बहुत परमाणु बहु प्रदेश, यह जानना
सूत्रमें शुद्धनिश्चयकर द्रव्यकर्मके अभावसे यह जीव
अमूर्तीक है, और मिथ्यात्व रागादिरूप भावकर्म संकल्प विकल्पके अभावसे शुद्ध है,
लोकाकाशप्रमाण असंख्यातप्रदेशवाला है, ऐसा जो निज शुद्धात्मा वही
वीतरागनिर्विकल्पसमाधिदशामें साक्षात् उपादेय है, यह जानना
।।२४।।
आगे लोकमें यद्यपि व्यवहारनयकर ये सब द्रव्य एक क्षेत्रावगाहसे तिष्ठ रहे हैं, तो भी
निश्चयनयकर कोई द्रव्य किसीसे नहीं मिलता, और कोई भी अपने अपने स्वरूपको नहीं
छोड़ता है, ऐसा दिखलाते हैं
athavA pALAntar :‘पुग्गलु तिविहु पएसु’ pudgaladravyamAn sankhyAt, asankhyAt ane
anantarUpe trividh pradesho arthAt paramANuo hoy chhe.
bhAvArthaahIn shuddhanishchayanayathI dravyakarmanA abhAvathI amUrta mithyAtvarAgAdi-
rUp bhAvakarmanA-sankalpavikalpanA-abhAvathI shuddha evA lokAkAshapramAN asankhyapradesho jene chhe
te shuddha AtmA vItarAg nirvikalpa samAdhinI pariNatinA kALe sAkShAt upAdey chhe, evo
bhAvArtha chhe. 24.
have, lokamAn joke vyavahAranayathI badhA dravyo ekakShetrAvagAhe rahe chhe topaN nishchayanayathI
sankar vyatikar doShono parihAr karIne potapotAnun svarUp chhoDatA nathI, em kahe chhe.
इति कस्मात् पुद्गलस्यानन्तक्षेत्रप्रदेशाभावादिति अथवा पाठान्तरम् ‘पुग्गलु तिविहु
पएसु’ पुद्गलद्रव्ये संख्यातासंख्यातानन्तरूपेण त्रिविधाः प्रदेशाः परमाणवो भवन्तीति अत्र
निश्चयेन द्रव्यकर्माभावादमूर्ता मिथ्यात्वरागादिरूपभावकर्मसंकल्पविकल्पाभावात् शुद्धिलोकाकाश-
प्रमाणेनासंख्येयाः प्रदेशा यस्य शुद्धात्मनः स शुद्धात्मा वीतरागनिर्विकल्पसमाधिपरिणतिकाले
साक्षादुपादेय इति भावार्थः
।।२४।।
अथ लोके यद्यपि व्यवहारेणैकक्षेत्रावगाहेन तिष्ठन्ति द्रव्याणि तथापि निश्चयेन
संकरव्यतिकरपरिहारेण कृत्वा स्वकीयस्वकीयस्वरूपं न त्यजन्तीति दर्शयति
adhikAr-2 dohA-24 ]paramAtmaprakAsha [ 247

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गाथा२५
अन्वयार्थ :[जीव ] हे जीव, [अत्र जगति ] इस संसारमें [यानि द्रव्याणि
कथितानि ] जो द्रव्य कहे गये हैं, [तानि ] वे सब [लोकाकाशं धृत्वा ] लोकाकाशमें स्थित
हैं, लोकाकाश तो आधार है, और ये सब आधेय हैं, [एकत्वे मिलितानि ] ये द्रव्य एक क्षेत्र
में मिले हुए रहते हैं, एक क्षेत्रावगाही हैं, तो भी [स्वगुणेषु ] निश्चयनयकर अपने अपने गुणों
में ही [निवसंति ] निवास करते हैं, परद्रव्यसे मिलते नहीं हैं
भावार्थ :यद्यपि उपचरितअसद्भूतव्यवहारनयकर आधाराधेयभावसे एक
क्षेत्रावगाहकर तिष्ठ रहे हैं, तो भी शुद्ध पारिणामिक परमभाव ग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिकनयसे
परद्रव्यसे मिलनेरूप संकर
दोषसे रहित हैं, और अपने अपने सामान्य गुण तथा विशेष गुणोंको
(‘सगुणहिं’ trIjI vibhaktinA antavALun karaNasUchak A pad ‘potAnA guNomAn’ em
adhikaraNanA (sAtamI vibhaktinA) arthavALun kevI rIte thayun? pUrve kahyun ja chhe ke prAkRit bhAShAmAn
koI vAr kArakavyabhichAr ane lingavyabhichAr thAy chhe.)
bhAvArthajoke pUrvokta chhae dravyo upacharit asadbhUt-vyavahAranayathI AdhAr
-Adhey bhAvathI ekakShetrAvagAhe rahe chhe topaN shuddhapAriNAmik param bhAvagrAhak
shuddhadravyArthikanayathI sankar vyatikar doShonA parihAr vaDe potapotAnA sAmAnya visheSh shuddha guNone
chhoDatAn nathI.
१५१) लोयागासु धरेवि जिय कहियइँ दव्वइँ जाइँ
एक्कहिँ मिलियइँ इत्थु जगि सगुणहिँ णिवसहिँ ताइँ ।।२५।।
लोकाकाशं धृत्वा जीव कथितानि द्रव्याणि यानि
एकत्वे मिलितानि अत्र जगति स्वगुणेषु निवसन्ति तानि ।।२५।।
लोयागासु इत्यादि लोयागासु लोकाकाशं कर्मतापन्नं धरेवि धृत्वा मर्यादीकृत्य जिय
हे जीव अथवा लोकाकाशमाधारीकृत्वा ठियाइं आधेयरूपेण स्थितानि कानि स्थितानि
कहियइं दव्वइं जाइं कथितानि जीवादिद्रव्याणि यानि पुनः कथंभूतानि एक्कहिं मिलियइं
एकत्वे मिलितानि इत्थु जगि अत्र जगति सगुणहिं णिवसहिं निश्चयनयेन स्वकीयगुणेषु
निवसन्ति ‘सगुणहिं’ तृतीयान्तं करणपदं स्वगुणेष्वधिकरणं कथं जातमिति ननु कथितं पूर्व
1 pAThAntaraकृत्य = कृत्वा
248 ]
yogIndudevavirachita
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नहीं छोड़ते हैं यह कथन सुनकर प्रभाकरभट्टने प्रश्न किया है कि हे भगवन्, परमागममें
लोकाकाश तो असंख्यातप्रदेशी कहा है, उस असंख्यात प्रदेशी लोकमें अनंत जीव किस तरह
समा सकते हैं ? क्योंकि एक एक जीवके असंख्यात-असंख्यात प्रदेश हैं, और एक एक
जीवमें अनंतानंत पुद्गलपरमाणु कर्म नोकर्मरूपसे लग रही है, और उसके सिवाय अनन्तगुणे
अन्य पुद्गल रहते हैं, सो ये द्रव्य असंख्यातप्रदेशी लोकमें कैसे समा गये ? इसका समाधान
श्री गुरु करते हैं
आकाशमें अवकाशदान (जगह देनेकी) शक्ति है, उसके सम्बन्धसे समा
जाते हैं जैसे एक गूढ़ नागरस गुटिकामें शत, सहस्र, लक्ष, सुवर्ण संख्या आ जाती है, अथवा
एक दीपकके प्रकाशमें बहुत दीपकोंका प्रकाश जगह पाता है, अथवा जैसे एक राखके घड़ेमें
जलका घड़ा अच्छी तरह अवकाश पाता है, भस्ममें जल शोषित हो जाता है, अथवा जैसे
A kathan sAmbhaLIne prabhAkarabhaTTa pUchhe chhe ke he bhagavAn! paramAgamamAn lokane asankhyAt
pradeshI kahyo chhe, te asankhyAt pradeshI lokamAn pratyek pratyek asankhyAtapradeshI evA anant jIvadravyo
ane te ek ek jIvadravyamAn karma-nokarmarUpe anant pudgalaparamANudravyo rahe chhe. te anant
pudgalaparamANudravyathI paN anantaguNA bAkInA pudgal paramANudravyo rahe chhe, to te sarva dravyo
asankhyapradeshavALA lokamAn kevI rIte avakAsh pAme (rahI shake)? evo pUrvapakSha chhe.
bhagavAn shrI guru teno parihAr kare chhe, avagAhanashaktine lIdhe (AkAshamAn avakAsh
devAnI shakti chhe tenA kAraNe pUrvokta chha dravyo ekakShetrAvagAhe rahe chhe.) te A pramANe
(1) jevI rIte ek gUDh nAgarasaguTikAmAn so hajAr lAkh jeTalI sankhyAnun suvarNa rahe
chhe, (2) athavA jevI rIte ek dIvAnA prakAshamAn ghaNA dIvAno prakAsh avakAsh pAme chhe, athavA
प्राकृते कारकव्यभिचारो लिङ्गव्यभिचारश्च क्कचिद्भवतीति कानि निवसन्ति ताइं पूर्वोक्तानि
जीवादिषड्द्रव्याणीति तद्यथा यद्यप्युपचरितासद्भूतव्यवहारेणाधाराधेयभावेनैकक्षेत्रावगाहेन
तिष्ठन्ति तथापि शुद्धपारिणामिकपरमभावग्राहकेण शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन संकरव्यतिकरपरिहारेण
स्वकीयस्वकीयसामान्यविशेषशुद्धगुणान्न त्यजन्तीति
अत्राह प्रभाकरभट्टः हे भगवन्
लोकस्तावदसंख्यातप्रदेशः परमागमे भणितः तिष्ठति तत्रासंख्यातप्रदेशलोके प्रत्येकं प्रत्येकम-
संख्येयप्रदेशान्यनन्तजीवद्रव्याणि, तत्र चैकैके जीवद्रव्ये कर्मनोकर्मरूपेणानन्तानि पुद्गलपरमाणु-
द्रव्याणि च तिष्ठन्ति तेभ्योऽप्यनन्तगुणानि शेषपुद्गलद्रव्याणि तिष्ठन्ति तानि सर्वाण्यसंख्येय-
प्रदेशलोके कथमवकाशं लभन्ते इति पूर्वपक्षः
भगवान् परिहारमाह अवगाहनशक्ति योगादिति
तथाहि यथैकस्मिन् गूढनागरसगद्याणके शतसहस्रलक्षसुवर्णसंख्याप्रमितान्यवकाशं लभन्ते,
अथवा यथैकस्मिन् प्रदीपप्रकाशे बहवोऽपि प्रदीपप्रकाशा अवकाशं लभन्ते, अथवा यथैकस्मिन्
भस्मघटे जलघटः सम्यगवकाशं लभन्ते, अथवा यथैकस्मिन् उष्ट्रीक्षीरघटे मधुघटः सम्यगवकाशं
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एक ऊँटनीके दूधके घड़ेमें शहदका घड़ा समा जाता है, अथवा एक भूमिघरमें ढोल, घण्टा
आदि बहुत बाजोंका शब्द अच्छी तरह समा जाता है, उसी तरह एक लोकाकाशमें विशिष्ट
अवगाहनशक्तिके योगसे अनंत जीव और अनन्तानन्त पुद्गल अवकाश पाते हैं, इसमें विरोध
नहीं है, और जीवोंमें परस्पर अवगाहनशक्ति है
ऐसा ही कथन परमागममें कहा है
‘‘एगणिगोद’’ इत्यादि इसका अर्थ ऐसा है कि एक निगोदिया जीवके शरीरमें जीवद्रव्यके
प्रमाणसे दिखलाये गये जितने सिद्ध हैं, उन सिद्धोंसे अनंत गुणे जीव एक निगोदियाके शरीरमें
हैं, और निगोदियाका शरीर अंगुलके असंख्यातवें भाग है, सो ऐसे सूक्ष्म शरीरमें अनंत जीव
समा जाते हैं, तो लोकाकाशमें समा जानेमें क्या अचंभा है ? अनंतानंत पुद्गल लोकाकाशमें
समा रहे हैं, उसकी ‘‘ओगाढ’’ इत्यादि गाथा है
उसका अर्थ यह है कि सब प्रकार सब
जगह यह लोक पुद्गल कायोंकर अवगाढ़गाढ़ भरा है, ये पुद्गल काय अनंत हैं; अनेक
प्रकारके भेदको धरते हैं, कोई सूक्ष्म हैं कोई बादर हैं
तात्पर्य यह है कि यद्यपि सब द्रव्य
(3) jevI rIte ek rAkhanA ghaDAmAn pANIno ghaDo sArI rIte samAI jAy chhe (jevI rIte ghaDA
jeTalI rAkhamAn ghaDA jeTalun pANI pUratun shoShAI jAy chhe) athavA (4) jevI rIte ek UnTaNInA
dUdhanA ghaDAmAn madhano ghaDo samAI jAy chhe athavA (5) jevI rIte ek bhUmigharamAn (bhonyarAmAn)
Dhol, jayajayakAr ane ghanT vagerenA anek shabdo sArI rIte avakAsh pAme chhe tevI rIte ek
ja lokamAn vishiShTa avagAhanashaktine lIdhe pUrvokta anant sankhyAvALA jIvo ane anantAnant
pudgalo avakAsh pAme chhe, emAn koI virodh nathI. paramAgamamAn (shrI gommaTasAr jIvakAnD gA.
195 mAn) jIvonI avagAhanashaktinun svarUp paN kahyun chhe ke
‘‘एगणिगोदसरीरे जीवा दव्वप्पमाणदो
दिट्ठा सिद्धे हिं अणंतगुणा सव्वेण वितीदकालेण ।।’’ (arthaatItakALamAn thayelA sarva siddhothI
dravyapramANathI anantaguNA jIvo ek nigodanA sharIramAn jovAmAn AvyA chhe. vaLI panchAstikAy
gA. 64 mAn) pudgalonI avagAhanashaktinun svarUp paN kahyun chhe ke
‘‘ओगाढ गाढणिचिदो पुग्गलकाएहिं
सव्वदो लोगो सुहुमेहिं बादरेहिं य णंताणंतेहिं विविहेहिं ।।’’ (arthalok sarvata vividh prakAranA,
anantAnant sUkShma tem ja bAdar pudgalakAyo (pudgalaskandho) vaDe [vishiShTa rIte] avagAhAIne gADh
लभते अथवा यथैकस्मिन् भूमिगृहे बहवोऽपि पटहजयघण्टादिशब्दाः सम्यगवकाशं लभन्ते,
तथैकस्मिन् लोके विशिष्टावगाहनशक्ति योगात् पूर्वोक्तानन्तसंख्या जीवपुद्गला अवकाशं लभन्ते
नास्ति विरोधः इति
तथा चोक्तं जीवानामवगाहनशक्ति स्वरूपं परमागमे‘‘एगणिगोदसरीरे
जीवा दव्वप्पमाणदो दिट्ठा सिद्धे हिं अणंतगुणा सव्वेण वितीदकालेण ।।’’ पुनस्तथोक्तं
पुद्गलानामवगाहनशक्ति स्वरूपम्‘‘ओगाढगाढणिचिदो पुग्गलकाएहिं सव्वदो लोगो सुहुमेहिं
बादरेहिं य णंताणंतेहिं विविहेहिं ।।’’ अयमत्र भावार्थः यद्यप्येकावगाहेन तिष्ठन्ति तथापि
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yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-25

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bharelo chhe.
ahIn, e bhAvArtha chhe ke jo ke sarvadravya ekakShetrAvagAhathI rahe chhe topaN shuddhanishchayanayathI
jIvo kevaLagnAnAdi anant guNasvarUpane chhoDatA nathI ane pudgalo varNAdisvarUpane chhoDatAn nathI
ane bAkInAn dravyo potapotAnun svarUp chhoDatAn nathI. 25.
have, bAkInAn pAnch dravyo jIvane vyavahArathI upakAr kare chhe, em kahe chhe ane te ja
jIvane nishchayathI teo ja dukhanAn kAraNo chhe, em kahe chhe
शुद्धनिश्चयेन जीवाः केवलज्ञानाद्यनन्तगुणस्वरूपं न त्यजन्ति पुद्गलाश्च वर्णादिस्वरूपं न त्यजन्ति
शेषद्रव्याणि च स्वकीयस्वकीयस्वरूपं न त्यजन्ति
।।२५।।
अथ जीवस्य व्यवहारेण शेषपञ्चद्रव्यकृतमुपकारं कथयति, तस्यैव जीवस्य निश्चयेन
तान्येव दुःखकारणानि च कथयति
१५२) एयइँ दव्वइँ देहियहँ णियणियकज्जु जणंति
चउ-गइ-दुक्ख सहंत जिय तेँ संसारु भमंति ।।२६।।
एतानि द्रव्याणि देहिनां निजनिजकार्यं जनयन्ति
चतुर्गतिदुःखं सहमानाः जीवाः तेन संसारं भ्रमन्ति ।।२६।।
एयइं इत्यादि एयइं एतानि दव्वइं जीवादन्यद्रव्याणि देहियहं देहिनां संसारिजीवानाम्
एक क्षेत्रावगाहकर रहते हैं, तो भी शुद्धनिश्चयनयकर जीव केवल ज्ञानादि अनंतगुणरूप अपने
स्वरूपको नहीं छोड़ते हैं, पुद्गलद्रव्य अपने वर्णादि स्वरूपको नहीं छोड़ता, और धर्मादि अन्य
द्रव्य भी अपने अपने स्वरूपको नहीं छोड़ते हैं
।।२५।।
आगे जीवका व्यवहारनयकर अन्य पाँचों द्रव्य उपकार करते हैं, ऐसा कहते हैं, तथा
उसी जीवके निश्चयसे वे ही दुःखके कारण हैं, ऐसा कहते हैं
गाथा२६
अन्वयार्थ :[एतानि ] ये [द्रव्याणि ] द्रव्य [देहिनां ] जीवोंके [निजनिजकार्यं ]
अपने अपने कार्यको [जनयंति ] उपजाते हैं, [तेन ] इस कारण [चतुर्गतिदुःखं सहमानाः
जीवाः ] नरकादि चारों गतियोंके दुःखोंको सहते हुए जीव [संसारं ] संसारमें [भ्रमंति ]
भटकते हैं
भावार्थ :ये द्रव्य जो जीवका उपकार करते हैं, उसको दिखलाते हैं पुद्गल तो
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bhAvArthapudgaladravya to, svasamvedanathI vilakShaN vibhAvapariNAmamAn rat jIvane
vyavahArathI sharIr, vANI, man ane shvAsochchhvAs nipajAve chhe ane dharmadravya upacharit asadbhUt
vyavahAranayathI gatimAn sahakArI chhe tem ja adharmadravya sthitimAn sahakArI chhe, te ja vyavahAranayathI
(upacharit asadbhUtavyavahAranayathI) AkAshadravya avakAshadAn Ape chhe tem ja kALadravya
shubhAshubh pariNAmomAn sahakArI chhe.
e pramANe pAnch dravyone 1upakAr (udAsIn nimitta) pAmIne jIv nishchay-
vyavahAraratnatrayanI bhAvanAthI bhraShTa thayelo chAr gatinAn dukhane sahe chhe, evo bhAvArtha chhe. 26.
have, e pramANe nishchayanayathI pAnch dravyonun svarUp dukhanun kAraN jANIne he
किं कुर्वन्ति णियणियकज्जु जणंति निजनिजकार्यं जनयन्ति येन कारणेन निजनिजकार्यं
जनयन्ति चउगइदुक्ख सहंत जिय चतुर्गतिदुःखं सहमानाः सन्तोजीवाः तें संसारु भमंति तेन
कारणेन संसारं भ्रमन्तीति तथा च पुद्गलस्तावज्जीवस्य स्वसंवित्तिलक्षणविभावपरिणामरतस्य
व्यवहारेण शरीरवाङ्मनःप्राणापाननिष्पत्तिं करोति, धर्मद्रव्यं चोपचरितासद्भूतव्यवहारेण
गतिसहकारित्वं करोति, तथैवाधर्मद्रव्यं स्थितिसहकारित्वं करोति, तेनैव व्यवहारनयेन
आकाशद्रव्यमवकाशदानं ददाति, तथैव कालद्रव्यं च शुभाशुभपरिणामसहकारित्वं करोति
एवं
पञ्चद्रव्याणामुपकारं लब्ध्वा जीवो निश्चयव्यवहाररत्नत्रयभावनाच्युतः सन् चतुर्गतिदुःखं सहत इति
भावार्थः
।।२६।।
अथैवं पञ्चद्रव्याणां स्वरूपं निश्चयेन दुःखकारणं ज्ञात्वा हे जीव निजशुद्धात्मो-
आत्मज्ञानसे विपरीत विभाव परिणामोंमें लीन हुए अज्ञानी जीवोंके व्यवहारनयकर शरीर, वचन,
मन, श्वासोश्वास, इन चारोंको उत्पत्ति करता है, अर्थात् मिथ्यात्व, अव्रत, कषाय, रागद्वेषादि
विभावपरिणाम हैं, इन विभाव परिणामोंके योगसे जीवके पुद्गलका सम्बन्ध हैं, और पुद्गलके
संबन्धसे ये हैं, धर्मद्रव्य उपचरितासद्भूत व्यवहारनयकर गतिसहायी है
अधर्मद्रव्य
स्थितिसहकारी है, व्यवहारनयकर आकाशद्रव्य अवकाश (जगह) देता है, और कालद्रव्य शुभ
-अशुभ परिणामोंका सहायी है
इस तरह ये पाँच द्रव्य सहकारी हैं इनकी सहाय पाकर ये
जीव निश्चय व्यवहाररत्नत्रयकी भावनासे रहित भ्रष्ट होते हुए चारों गतियोंके दुःखोंको सहते
हुए संसारमें भटकते हैं, यह तात्पर्य हुआ
।।२६।।
आगे परद्रव्योंका संबंध निश्चयनयसे दुःखका कारण है, ऐसा जानकर हे जीव
1. laukikamAn ‘upakAr’ artha anyanun bhalun karavun evo chhe paN te tAttvik artha nathI. ‘upakAr kare
chhe’ eno ahIn tAttvik artha e chhe ke ‘udAsIn nimitta thAy chhe.’
252 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-26

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पलम्भलक्षणे मोक्षमार्गे स्थीयत इति निरूपयति
१५३) दुक्खहँ कारणु मुणिवि जिय दव्वहँ एहु सहाउ
होयवि मोक्खहँ मग्गि लहु गम्मिज्जइ पर-लोउ ।।२७।।
दुःखस्य कारणं मत्वा जीव द्रव्याणां एतत्स्वभावम्
भूत्वा मोक्षस्य मार्गे लघु गम्यते परलोकः ।।२७।।
दुक्खहं कारणु दुःखस्य कारणं मुणिवि मत्वा ज्ञात्वा जिय हे जीव किं दुःखस्य कारणं
ज्ञात्वा दव्वहं एहु सहाउ द्रव्याणामिमं शरीरवाङ्मनःप्राणापाननिष्पत्त्यादिलक्षणं पूर्वोक्त स्वभावम्
एवं पुद्गलादिपञ्चद्रव्यस्वभावं दुःखस्य कारणं ज्ञात्वा किं क्रियते होयवि भूत्वा क्व मोक्खहं
मग्गि मोक्षस्य मार्गे लहु लघु शीघ्रं पश्चात् गम्मिज्जइ गम्यते कः कर्मतापन्नः पर-लोउ
परलोको मोक्ष इति तथाहि वीतरागसदानन्दैकस्वाभाविकसुखविपरीतस्याकुलत्वोत्पादकस्य
दुःखस्य कारणानि पुद्गलादिपञ्चद्रव्याणि ज्ञात्वा हे जीव भेदाभेदरत्नत्रयलक्षणे मोक्षस्य मार्गे
शुद्धात्माको प्राप्तिरूप मोक्षमार्गमें स्थित हो, ऐसा कहते हैं
गाथा२७
अन्वयार्थ :[जीव ] हे जीव, [द्रव्याणां इमं स्वभावम् ] परद्रव्योंके ये स्वभाव
[दुःखस्य ] दुःखके [कारणं मत्वा ] कारण जानकर [मोक्षस्य मार्गे ] मोक्षके मार्गमें [भूत्वा ]
लगकर [लघु ] शीघ्र ही [परलोकः गम्यते ] उत्कृष्ट लोकरूप मोक्षमें जाना चाहिये
भावार्थ :पहले कहे गये पुद्गलादि द्रव्योंके सहाय शरीर, वचन, मन,
श्वासोच्छ्वास आदिक ये सब दुःखके कारण हैं, क्योंकि वीतराग सदा आनंदरूप स्वभावकर
उत्पन्न जो अतिन्द्रिय सुख उससे विपरीत आकुलताके उपजानेवाले हैं, ऐसा जानकर हे जीव,
jIv! nijashuddhAtmAnI prApti jenun svarUp chhe evA mokShamArgamAn sthit thA, em kahe
chhe
bhAvArthapudgalAdi pAnch dravyone ek (kevaL) vItarAg sadAnandarUp svAbhAvik
sukhathI viparIt AkuLatAnA utpAdak ane dukhanA kAraNo jANIne he jIv! mokShanA
bhedAbhedaratnatrayasvarUp mArgamAn sthit thaIne par arthAt paramAtmA tenA avalokanarUp-
1. pAThAntaraमोक्षस्य मार्गे = मोक्षमार्गे
adhikAr-2 dohA-27 ]paramAtmaprakAsha [ 253

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तू भेदाभेद रत्नत्रयस्वरूप मोक्षके मार्गमें लगकर परमात्माका अनुभव परमसमरसीभावसे
परिणमनरूप मोक्ष उसमें गमन कर
।।२७।।
आगे व्यवहारनयसे मैंने ये जीवादि द्रव्योंके श्रद्धानरूपको सम्यग्दर्शन कहा है, अब
सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको हे प्रभाकरभट्ट; तू सुन, ऐसा मनमें रखकर यह दोहासूत्र कहते
हैं
गाथा२८
अन्वयार्थ :हे प्रभाकरभट्ट, [मया ] मैंने [व्यवहारेणैव ] व्यवहारनयसे तुझको [एषा
दृष्टिः ] ये सम्यग्दर्शनका स्वरूप [नियमेन कथिता ] अच्छी तरह कहा, [इदानीं ] अब तू
[ज्ञानं चारित्रं ] ज्ञान और चारित्रको [शृणु ] सुन, [येन ] जिसके धारण करनेसे [परमेष्ठिनम्
प्राप्नोषि ] सिद्धपरमेष्ठिके पदको पावेगा
भावार्थ :व्यवहारसम्यक्त्वके कारणभूत छह द्रव्योंका सांगोपांग व्याख्यान करते हैं
anubhavanarUp-paramasamarasIbhAve pariNamanarUp-paralokanI-mokShanI tane prApti thAy. 27.
have, vyavahAranayathI men jIvadravyAdi shraddhAnarUp A samyagdarshan kahyun, have he
prabhAkarabhaTTa! tun samyaggnAn ane samyagchAritra sAmbhaL, em manamAn rAkhIne A dohAsUtra kahe
chhe
bhAvArthahave vyavahArasamyaktvanA viShayabhUt dravyonun chUlikArUpe (sAngopAng, visheSh
स्थित्वा परः परमात्मा तस्यावलोकनमनुभवनं परमसमरसीभावेन परिणमनं परलोको मोक्षस्तत्र
गम्यत इति भावार्थः
।।२७।।
अथेदं व्यवहारेण मया भणितं जीवद्रव्यादिश्रद्धानरूपं सम्यग्दर्शनमिदानीं सम्यग्ज्ञानं चारित्रं
च हे प्रभाकरभट्ट शृणु त्वमिति मनसि धृत्वा सूत्रमिदं प्रतिपादयति
१५४) णियमेँ कहियउ एहु मइँ ववहारेण वि दिट्ठि
एवहिँ णाणु चरित्तु सुणि जेँ पावहि परमेट्ठि ।।२८।।
नियमेन कथिता एषा मया व्यवहारेणापि द्रष्टिः
इदानीं ज्ञानं चारित्रं शृणु येन प्राप्नोषि परमेष्ठिनम् ।।२८।।
णियमें नियमेन निश्चयेन कहियउ कथिता एहु मइं एषा कर्मतापन्ना मया केनैव
254 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-28

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adhikAr-2 dohA-28 ]paramAtmaprakAsha [ 255
ववहारेण वि व्यवहारनयेनैव एषा का दिट्ठि द्रष्टिः द्रष्टिः कोऽर्थः, सम्यक्त्वम् एवहिं
इदानीं णाणु चरित्तु सुणि हे प्रभाकरभट्ट क्रमेण ज्ञानचारित्रद्वयं शृणु येन श्रुतेन किं भवति
जें पावहि येन सम्यग्ज्ञानचारित्रद्वयेन प्राप्नोषि किं प्राप्नोषि परमेट्ठि परमेष्ठिपदं मुक्ति पदमिति
अतो व्यवहारसम्यक्त्वविषयभूतानां द्रव्याणां चूलिकारूपेण व्याख्यानं क्रियते तद्यथा ‘‘परिणाम
जीव मुत्तं सपदेसं एय खित्त किरिया य णिच्चं कारण कत्ता सव्वगदं इदरम्हि यपवेसो ’’
परिणाम इत्यादि ‘परिणाम’ परिणामिनौ जीवपुद्गलौ स्वभावविभावपरिणामाभ्यां शेषचत्वारि
द्रव्याणि जीवपुद्गलवद्विभावव्यञ्जनपर्यायाभावात् मुख्यवृत्त्या पुनरपरिणामीनि इति ‘जीव’
शुद्धनिश्चयनयेन विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावं शुद्धचैतन्यं प्राणशब्देनोच्यते तेन जीवतीति जीवः,
व्यवहारनयेन पुनः कर्मोदयजनितद्रव्यभावरूपैश्चतुर्भिः प्राणैर्जीवति जीविष्यति जीवितपूर्वो वा जीवः
kathanarUpe) vyAkhyAn kare chhe, te A pramANe
‘‘परिणाम जीव मुत्तं सपदेसं एय खित्त किरिया य
णिच्चं कारण कत्ता सव्वगदं इदरम्हि यपवेसो ।।’’
(arthapariNAm, jIv, mUrta, sapradesh, ek, kShetra, kriyA, nitya, kAraN, kartA, sarvagat,
bIjAn dravyomAn apraveshapaNun A bAr bol chha dravyamAn utAravA.) (have A bAr bol chha dravyamAn
kaI rIte ghaTe chhe, te kahe chhe.)
(1) ‘परिणामपरिणाम A chha dravyomAn jIv ane pudgal e be dravyo svabhAv vibhAv
pariNAmo vaDe pariNAmI chhe, bAkInAn chAr dravyo, temAn jIvapudgalanI jem vibhAvavyanjanaparyAyano
sadbhAv nahIn hovAthI, mukhyapaNe to apariNAmI chhe.
(2) ‘जीवजीव shuddha nishchayanayathI ‘prAN’ shabdathI ja vishuddha-gnAnadarshanasvabhAvavALo shuddha
‘‘परिणाम’’ इत्यादि गाथासे इसका अर्थ यह है, कि इन छह द्रव्योंमें विभावपरिणामके
परिणमनेवाले जीव और पुद्गल दो ही हैं, अन्य चार द्रव्य अपने स्वभावरूप तो परिणमते हैं,
लेकिन जीव पुद्गलकी तरह विभावव्यंजनपर्यायके अभावसे विभावपरिणमन नहीं है, इसलिये
मुख्यतासे परिणामी दो द्रव्य ही कहे हैं, शुद्धनिश्चयनयकर शुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभाव जो शुद्ध
चैतन्यप्राण उनसे जीता है, जीवेगा, पहले जी आया, और व्यवहारनयकर इंद्री, बल, आयु,
श्वासोश्वासरूप द्रव्यप्राणोंकर जीता है, जीवेगा, पहले जी चुका, इसलिये जीवको ही जीव कहा
गया है, अन्य पुद्गलादि पाँच द्रव्य अजीव हैं, स्पर्श, रस, गंध, वर्णवाली मूर्ति सहित मूर्तीक
एक पुद्गलद्रव्य ही है, अन्य पाँच अमूर्तीक हैं
उनमेंसे धर्म, अधर्म, आकाश, काल ये चारों
1. pAThAntaraका = का कथिताः

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256 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-28
पुद्गलादिपञ्चद्रव्याणि पुनरजीवरूपाणि ‘मुत्तं’ अमूर्तशुद्धात्मनो विलक्षणा स्पर्शरसगन्धवर्णवती
मूर्तिरुच्यते तद्भावान्मूर्तः पुद्गलः जीवद्रव्यं पुनरनुपचरितासद्भूतव्यवहारेणमूर्तमपि
शुद्धनिश्चयनयेनामूर्तम् धर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि चामूर्तानि ‘सपदेसं’ लोकमात्रप्रमिता-
संख्येयप्रदेशलक्षणं जीवद्रव्यमादि कृत्वा पञ्चद्रव्याणि पञ्चास्तिकायसंज्ञानि सप्रदेशानि कालद्रव्यं
पुनर्बहुप्रदेशलक्षणकायत्वाभावादप्रदेशम्
‘एय’ द्रव्यार्थिकनयेन धर्माधर्माकाशद्रव्याण्येकानि
chaitanya kahevAmAn Ave chhe, tenAthI je jIve chhe te jIv chhe, jyAre vyavahAranayathI to karmodayajanit
dravyabhAvarUp chAr prANothI je jIve chhe, jIvashe ane pUrve jIvato hato te jIv chhe, ane pudgalAdi
pAnch dravyo ajIvarUp chhe.
(3) ‘मुत्तंमुत्तं amUrta shuddha AtmAthI vilakShaN sparsha-ras-gandh-varNavALun je hoy te mUrta
kahevAy chhe, te bhAvavALun hovAthI pudgal mUrta chhe, jyAre jIvadravya to anupacharit asadbhUt
vyavahAranayathI mUrta chhe topaN shuddhanishchayanayathI amUrta chhe, ane dharma, adharma, AkAsh ane kAL
e chAr dravyo amUrta chhe.
(4) ‘सपदेससपदेसं’ lokamAtra pramAN jeTalA asankhyAt pradeshI jIvadravyathI mAnDIne
panchAstikAy nAmanA pAnch dravyo sapradeshI chhe, jyAre kALadravya to bahupradesh jenun lakShaN chhe evA
kAyatvano abhAv hovAthI apradesh chhe.
(5) ‘एय dravyArthikanayathI dharma, adharma ane AkAsh e traN dravyo ek ek chhe, jyAre
jIv, pudgal ane kAL e traN dravyo anek chhe.
तो अमूर्तीक हैं, तथा जीवद्रव्य अनुपचरितअसद्भूतव्यवहारनयकर मूर्तिक भी कहा जाता है,
क्योंकि शरीरको धारण कर रहा है, तो भी शुद्धनिश्चयनयकर अमूर्तीक ही है, लोकप्रमाण
असंख्यातप्रदेशी जीवद्रव्यको आदि लेकर पाँच द्रव्य पंचास्तिकाय हैं, वे सप्रदेशी हैं, और
कालद्रव्य बहुप्रदेश स्वभावकायपना न होनेसे अप्रदेशी है, धर्म, अधर्म, आकाश ये तीन द्रव्य
एक एक हैं, और जीव, पुद्गल, काल ये तीनों अनेक हैं
जीव तो अनंत हैं, पुद्गल अनंतानंत
हैं, काल असंख्यात हैं, सब द्रव्योंको अवकाश देनेमें समर्थ एक आकाश ही है, इसलिये आकाश
क्षेत्र कहा गया है, बाकी पाँच द्रव्य अक्षेत्री हैं, एक क्षेत्रसे दूसरे क्षेत्रमें गमन करना, वह चलन
हलनवती क्रिया कही गई है, यह क्रिया जीव पुद्गल दोनोंके ही है, और धर्म, अधर्म, आकाश,
काल ये चार द्रव्य निष्क्रिय हैं, जीवोंमें भी संसारी जीव हलन
चलनवाले हैं, इसलिये क्रियावंत
हैं, और सिद्धपरमेष्ठी निःक्रिय हैं, उनके हलन-चलन क्रिया नहीं है, द्रव्यार्थिकनयसे विचारा जावे
तो सभी द्रव्य नित्य हैं, अर्थपर्याय जो षट्गुणी हानिवृद्धिरूप स्वभावपर्याय है, उसकी अपेक्षा
सब ही अनित्य हैं, तो भी विभावव्यंजनपर्याय जीव और पुद्गल इन दोनोंकी है, इसलिये इन

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adhikAr-2 dohA-28 ]paramAtmaprakAsha [ 257
भवन्ति जीवपुद्गलकालद्रव्याणि पुनरनेकानि भवन्ति ‘खेत्त’ सर्वद्रव्याणामवकाशदानसामर्थ्यात्
क्षेत्रमाकाशमेकं शेषपञ्चद्रव्याण्यक्षेत्राणि ‘किरिया य’ क्षेत्रात्क्षेत्रान्तरगमनरूपा परिस्पन्दवती
चलनवती क्रिया सा विद्यते ययोस्तौ क्रियावन्तौ जीवपुद्गलौ धर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि
पुनर्निष्क्रियाणि
‘णिच्चं’ धर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि यद्यप्यर्थपर्यायत्वेनानित्यानि तथापि
मुख्यवृत्त्या विभावव्यञ्जनपर्यायाभावात् नित्यानि द्रव्यार्थिकनयेन च, जीवपुद्गलद्रव्ये पुनर्यद्यपि
द्रव्यार्थिकनयापेक्षया नित्ये तथाप्यगुरुलघुपरिणति
रूपस्वभावपर्यायापेक्षया विभावव्यञ्जन-
पर्यायापेक्षया चानित्ये ‘कारण’ पुद्गलधर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि व्यवहारनयेन जीवस्य शरीर-
वाङ्मनःप्राणापानादिगतिस्थित्यवगाहवर्तनाकार्याणि कुर्वन्ति इति कारणानि भवन्ति, जीवद्रव्यं
(6) ‘खेत्तखेत्त sarva dravyone avakAsh devAnun sAmarthya hovAthI AkAsh ek ja kShetra chhe,
jyAre bAkInA pAnch dravyo to akShetra chhe.
(7) ‘किरिया यकिरिया य ek kShetrathI bIjA kShetramAn gamanarUp parispandavALI-chalanavALI-kriyA
te jemane varte chhe evA jIv ane pudgal e be dravyo kriyAvAn chhe, jyAre dharma, adharma AkAsh
ane kAL e chAr dravyo to niShkriy chhe.
(8) ‘णिच्चणिच्च dharma, adharma, AkAsh ane kAL e chAr dravyo joke arthaparyAyanI
apekShAe anitya chhe, topaN-mukhyapaNe temane vibhAvavyanjanaparyAy nahi hovAthI dravyArthik nayathI
nitya chhe jyAre jIvapudgaladravya to-joke dravyArthikanayanI apekShAe nitya chhe topaN aguru-
laghupariNatirUp svabhAvaparyAyanI apekShAe ane vibhAvavyanjanaparyAyanI apekShAe anitya chhe.
(9) ‘कारणकारण pudgal, dharma, adharma, AkAsh ane kAL e pAnch dravyo, vyavahAr-
nayathI sharIr, vANI, man, shvAsochchhvAs AdirUp, gati, sthiti, avagAhan, vartanArUp jIvanAn
दोनोंको ही अनित्य कहा है, अन्य चार द्रव्य विभावके अभावसे नित्य ही हैं, इस कारण यह
निश्चयसे जानना कि चार नित्य हैं, दो अनित्य हैं, तथा द्रव्यकर सब ही नित्य हैं, कोई भी
द्रव्य विनश्वर नहीं है, जीवको पाँचों ही द्रव्य कारणरूप हैं, पुद्गल तो शरीरादिकका कारण
है, धर्म-अधर्मद्रव्य गति स्थितिके कारण हैं, आकाशद्रव्य अवकाश देनेका कारण है, और काल
वर्तनाका सहायी है
ये पाँचों द्रव्य जीवको कारण हैं, और जीव उनको कारण नहीं है यद्यपि
जीवद्रव्य अन्य जीवोंको गुरु शिष्यादिरूप परस्पर उपकार करता है, तो भी पुद्गलादि पाँच
द्रव्योंको अकारण है, और ये पाँचों कारण हैं, शुद्ध पारिणामिक परमभावग्राहक
शुद्धद्रव्यार्थिकनयकर यह जीव यद्यपि बंध, मोक्ष, पुण्य, पापका कर्ता नहीं है, तो भी
अशुद्धनिश्चयनयकर शुभ-अशुभ उपयोगसे परिणत हुआ पुण्य-पापके बंधका कर्ता होता है, और
pAThAntaraरूप = स्वरूप

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yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-28
पुनर्यद्यपि गुरुशिष्यादिरूपेण परस्परोग्रहं करोति तथापि पुद्गलादिपञ्चद्रव्याणां किमपि न
करोतीत्यकारणम्
‘कत्ता’ शुद्धपारिणामिकपरमभावग्राहकेण शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन यद्यपि बन्ध-
मोक्षद्रव्यभावरूप पुण्यपापघटपटादीनामकर्ता जीवस्तथाप्यशुद्धनिश्चयेन शुभाशुभोपयोगाभ्यां
परिणतः सन् पुण्यपापबन्धयोः कर्ता तत्फलभोक्ता च भवति विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिज-
शुद्धात्मद्रव्यसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपेण शुद्धोपयोगेन
तत्परिणतः सन् मोक्षस्यापि कर्ता
तत्फलभोक्ता च शुभाशुभशुद्धपरिणामानां परिणमनमेव कर्तृत्वम् सर्वत्र ज्ञातव्यमिति
पुद्गलादिपञ्चद्रव्याणां च स्वकीयस्वकीयपरिणामेन परिणमनमेव कर्तृत्वम् वस्तुवृत्त्या पुनः
पुण्यपापादिरूपेणाकर्तृत्वमेव ‘सव्वगदं’ लोकालोकव्याप्त्यपेक्षया सर्वगतमाकाशं भण्यते धर्माधर्मौ
kAryo kare chhe tethI kAraNo chhe, jyAre jIvadravya to joke gurushiShyAdirUpe paraspar upakAr kare
chhe topaN
pudgalAdi pAnch dravyonun kAI paN karato nathI, tethI jIv akAraN chhe.
(10) ‘कत्ताकत्ता jIv shuddhapAriNAmik paramabhAvagrAhak shuddhadravyArthikanayathIjoke
bandhamokShano, dravyabhAvarUp puNya-pApano ane ghaT paT Adino akartA chhe topaN
ashuddhanishchayanayathI shubhAshubh upayogarUpe pariNamato thako puNya-pApabandhano kartA ane tenAn phaLano
bhoktA chhe. ane vishuddhagnAn-vishuddhadarshan jeno svabhAv chhe evA nijashuddhAtmadravyanA
samyakshraddhAn, samyaggnAn, samyag anuShThAnarUp shuddhopayog vaDe te-rUpe pariNamato thako mokShano
paN kartA chhe ane tenA phaLano bhoktA chhe. shubh, ashubh, shuddhapariNAmorUpe pariNamavun te ja
kartApaNun sarvatra jANavun ane pudgalAdi pAnchadravyone potapotAnA pariNAmarUp pariNamavun te ja
kartApaNun chhe ane vastudraShTithI to puNya-pAp AdirUpe kartApaNun nathI ja.
(11) ‘सव्वगदंसव्वगदं AkAsh lokAlokamAn vyApavAnI apekShAe, sarvagat chhe, ane
dharmadravya tathA adharmadravya, lokamAn vyApavAnI apekShAe sarvagat chhe. vaLI jIvadravya ek ek
उनके फलका भोक्ता होता है, तथा विशुद्ध ज्ञान दर्शनरूप निज शुद्धात्मद्रव्यका श्रद्धान ज्ञान
आचरणरूप शुद्धोपयोगकर परिणत हुआ मोक्षका भी कर्ता होता है, और अनंतसुखका भोक्ता
होता है
इसलिये जीवको कर्ता भी कहा जाता है, और भोक्ता भी कहा जाता है शुभ, अशुभ,
शुद्ध परिणमन ही सब जगह कर्तापना है, और पुद्गलादि पाँच द्रव्योंको अपने अपने परिणामरूप
जो परिणमन वही कर्तापना है, पुण्य पापादिका कर्तापना नहीं है, सर्वगतपना लोकालोक
व्यापकताकी अपेक्षा आकाश ही में है, धर्मद्रव्य-अधर्मद्रव्य ये दोनों लोकाकाशव्यापी हैं,
अलोकमें नहीं है, और जीवद्रव्यमें एक जीवकी अपेक्षा केवलसमुद्घातमें लोकपूरण अवस्थामें
लोकमें सर्वगतपना है, तथा नाना जीवकी अपेक्षा सर्वगतपना नहीं है, पुद्गलद्रव्य लोकप्रमाण
1. pAThAntaraतत्परिणतः = तु परिणतः

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adhikAr-2 dohA-28 ]paramAtmaprakAsha [ 259
च लोकव्याप्त्यपेक्षया जीवद्रव्यं तु पुनरेकैकजीवापेक्षया लोकपूरणावस्थां विहायासर्वगतंनाना-
जीवापेक्षया सर्वगतमेव भवतीति
पुद्गलद्रव्यं पुनर्लोकरूपमहास्कन्धापेक्षया सर्वगतं
शेषपुद्गलापेक्षया सर्वगतं न भवतीति कालद्रव्यं पुनरेककालाणुद्रव्यापेक्षया सर्वगतं न भवति
लोकप्रदेशप्रमाणनानाकालाणुविवक्षया लोके सर्वगतं भवति ‘इदरम्हि यपवेसो’ यद्यपि
सर्वद्रव्याणि व्यवहारेणैकक्षेत्रावगाहेनान्योन्यानुप्रवेशेन तिष्ठन्ति तथापि निश्चयनयेन
चेतनादिस्वकीयस्वकीयस्वरूपं न त्यजन्तीति
तथा चोक्त म्‘‘अण्णोण्णं पविसंता दिंता
ओगासमण्णमण्णस्स मेलंता वि य णिच्चं सगसब्भावं ण विजहंति ।।’’ इदमत्र तात्पर्यम्
jIvanI apekShAe kevaLI samudghAtamAn lokapUraNanI avasthAne chhoDIne asarvagat chhe, anek
jIvanI apekShAe, sarvagat ja chhe. vaLI pudgaladravya lokarUp mahAskandhanI apekShAe sarvagat
chhe, bAkInA pudgalanI apekShAe sarvagat nathI, vaLI kALadravya ek ek kALANudravyanI apekShAe
sarvagat nathI, lokanA pradesho jeTalA anek kALANunI vivakShAthI lokamAn sarvagat chhe.
(12) ‘इदरम्हि यपवेसोइदरम्हि यपवेसो joke sarva dravyo vyavahAranayathI ekakShetrAvagAhe-karIne ek
bIjAmAn praveshIne rahe chhe topaN nishchayanayathI chetanAdi potapotAnun svarUp chhoDatAn nathI. (shrI
panchAstikAy gAthA 7mAn) kahyun paN chhe ke
‘‘अण्णोण्णं पविसंता दिंता ओगासमण्णस्स मेलंता वि
य णिच्चं सगं सब्भावं ण विजहंति ।। (arthateo (chhae dravyo) ek bIjAmAn pravesh kare chhe,
anyonya avakAsh Ape chhe paraspar (kShIr nIravat) maLI jAy chhe topaN sadA potapotAnA
svabhAvane chhoDatAn nathI.)
महास्कंधकी अपेक्षा सर्वगत है, अन्य पुद्गलकी अपेक्षा सर्वगत नहीं है, कालद्रव्य एक
कालाणुकी अपेक्षा तो एकप्रदेशगत है, सर्वगत नहीं है, और नाना कालाणुकी अपेक्षा
लोकाकाशके सब प्रदेशोंमें कालाणु है, इसलिये सब कालाणुओंकी अपेक्षा सर्वगत कह सकते
हैं
इस नयविवक्षासे सर्वगतपनेका व्याख्यान किया और मुख्यवृत्तिसे विचारा जावे, तो
सर्वगतपना आकाशमें ही है, अथवा ज्ञानकी अपेक्षा जीवमें भी है, जीवका केवलज्ञान लोकालोक
व्यापक है, इसलिये सर्वगत कहा
ये सब द्रव्य यद्यपि व्यवहारनयकर एक क्षेत्रावगाही रहते
हैं, तो भी निश्चयनयकर अपने अपने स्वभावको नहीं छोड़ते, दूसरे द्रव्यमें जिनका प्रवेश नहीं
है, सभी द्रव्य निज निज स्वरूपमें हैं, पररूप नहीं हैं
कोई किसीका स्वभाव नहीं लेता ऐसा
ही कथन श्रीपंचास्तिकायमें है ‘‘अण्णोण्णं’’ इत्यादि इसका अर्थ ऐसा है, कि यद्यपि ये छहों
द्रव्य परस्परमें प्रवेश करते हुए देखे जाते हैं, तो भी कोई किसीमें प्रवेश नहीं करता, यद्यपि
अन्यको अन्य अवकाश देता है, तो भी अपना अपना अवकाश आपमें ही है, परमें नहीं है,
यद्यपि ये द्रव्य हमेशासे मिल रहे हैं, तो भी अपने स्वभावको नहीं छोड़ते
यहाँ तात्पर्य यह

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260 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-29
व्यवहारसम्यक्त्वविषयभूतेषु षड्द्रव्येषु मध्ये वीतरागचिदानन्दैकादिगुणस्वभावं शुभाशुभमनोवचन-
कायव्यापाररहितं निजशुद्धात्मद्रव्यमेवोपादेयम्
।।२८।। एवमेकोनविंशतिसूत्रप्रमितस्थले निश्चय-
व्यवहारमोक्षमार्गप्रतिपादकत्वेन पूर्वसूत्रत्रयं गतम् इदं पुनरन्तरं स्थलं चतुर्दशसूत्रप्रमितं
षड्द्रव्यध्येयभूतव्यवहारसम्यक्त्वव्याख्यानमुख्यत्वेन समाप्तमिति
अथ संशयविपर्ययानध्यवसायरहितं सम्यग्ज्ञानं प्रकटयति
१५५) जं जह थक्कउ दव्वु जिय तं तह जाणइ जो जि
अप्पहं केरउ भावडउ णाणु मुणिज्जहि सो जि ।।२९।।
यद् यथा स्थितं द्रव्यं जीव तत् तथा जानाति य एव
आत्मनः संबन्धी भावः ज्ञानं मन्यस्व स एव ।।२९।।
ahIn, A tAtparya chhe ke vyavahArasamyaktvanAn viShayabhUt chha dravyomAn ek (kevaL) vItarAg
chidAnand Adi anantaguNasvarUp, shubhAshubh man, vachan, kAyAnA vyApArathI rahit ek
nijashuddhAtmadravya ja upAdey chhe. 28.
e pramANe ogaNIs gAthAsUtronA sthaLamAn nishchayavyavahAramokShamArganA kathananI mukhyatAthI
pUrvanA traN sUtro samApta thayAn. ane A chaud sUtronun antarasthaL, chha dravyo jenun dhyey chhe (jeno
viShay chhe) evA vyavahAr samyaktvanAn vyAkhyAnanI mukhyatAthI samApta thayun.
have sanshay, viparyay ane adhyavasAy rahit je samyaggnAn chhe, tene pragaT kare chhe
है, कि व्यवहारसम्यक्त्वके कारण छह द्रव्योंमें वीतराग चिदानंद अनंत गुणरूप जो शुद्धात्मा है,
वह शुभ, अशुभ, मन, वचन, कायके व्यापारसे रहित हुआ ध्यावने योग्य है
।।२८।।
इसप्रकार उन्नीस दोहोंके स्थलमें निश्चय व्यवहार मोक्षमार्गके कथनकी मुख्यतासे तीन
दोहा कहे ऐसे चौदह दोहों तक व्यवहारसम्यक्त्वका व्याख्यान किया, जिसमें छह द्रव्योंका
श्रद्धान मुख्य है
आगे संशय विमोह विभ्रम रहित जो सम्यग्ज्ञान है, उसका स्वरूप प्रगट करते हैं
गाथा२९
अन्वयार्थ :[जीव ] हे जीव; [यत् ] ये सब द्रव्य [यथा स्थितं ] जिस तरह
अनादिकालके तिष्ठे हुए हैं, जैसा इनका स्वरूप है, [तत् तथा ] उनको वैसा ही संशयादि
1. pAThAntaraपुनरन्तरं स्थलं = पुनरन्तरस्थलं

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adhikAr-2 dohA-29 ]paramAtmaprakAsha [ 261
जं इत्यादि जं यत् जह यथा थक्कउ स्थितं दव्वु द्रव्यं जिय हे जीव तं तत् तह तथा
जाणइ जानाति जो जि य एव य एव कः अप्पहं केरउ भावडउ आत्मनः संबन्धी भावः
परिणामः णाणु मुणिज्जहि ज्ञानं मन्यस्व जानीहि सो जि स एव पूर्वोक्त आत्मपरिणाम इति तथा
च यद् द्रव्यं यथा स्थितं सत्तालक्षणं उत्पादव्ययध्रौव्यलक्षणं वा गुणपर्यायलक्षणं वा सप्त-
भङ्गयात्मकं वा तत् तथा जानाति य आत्मसंबन्धी स्वपरिच्छेदको भावः परिणामस्तत् सम्यग्-
ज्ञानं भवति
अयमत्र भावार्थः व्यवहारेण सविकल्पावस्थायां तत्त्वविचारकाले स्वपरपरिच्छेदकं
ज्ञानं भण्यते निश्चयनयेन पुनर्वीतरागनिर्विकल्पसमाधिकाले बहिरुपयोगो यद्यप्यनीहितवृत्त्या
निरस्तस्तथापीहापूर्वकविकल्पाभावाद्गौणत्वमितिकृत्वा स्वसंवेदनज्ञानमेव ज्ञानमुच्यते ।।२९।।
अथ स्वपरद्रव्यं ज्ञात्वा रागादिरूपपरद्रव्यविषयसंकल्पविकल्पत्यागेन स्वस्वरूपे अवस्थानं
bhAvArthaje dravya jevI rIte sthit chhe tevI rIte arthAt je sattAsvarUp chhe,
utpAdavyayadhrauvyasvarUp chhe athavA guNaparyAyasvarUp chhe athavA sapta bhangIsvarUp chhe tevI rIte tene
je AtmAno sva-paraparichchhedak bhAv-pariNAm-jANe chhe, te samyaggnAn chhe.
ahIn, e bhAvArtha chhe ke vyavahAranayathI savikalpa-avasthAmAn tattvanA vichArakALe
svaparichchhedak gnAnane gnAn kahevAmAn Ave chhe; ane nishchayanayathI vItarAganirvikalpa samAdhinA
kALe, joke bahir upayog anIhit chhe kharo topaN ihApUrvak vikalpano abhAv hovAne lIdhe
tenun gauNapaNun hovAthI svasamvedanagnAnane ja gnAn kahevAmAn Ave chhe. 29.
have, sva-paradravyane jANIne rAgAdirUp je paradravyanA sankalpa-vikalpano tyAg karIne
रहित [य एव जानाति ] जो जानता है, [स एव ] वही [आत्मनः संबंधी भावः ] आत्माका
निजस्वरूप [ज्ञानं ] सम्यग्ज्ञान है, ऐसा [मन्यस्व ] तू मान
भावार्थ :जो द्रव्य है, वह सत्ता लक्षण है, उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप है, और सभी
द्रव्य गुण पर्यायको धारण करते हैं, गुण पर्यायके बिना कोई नहीं हैं अथवा सब ही द्रव्य
सप्तभंगीस्वरूप हैं, ऐसा द्रव्योंका स्वरूप जो निःसंदेह जाने, आप और परको पहचाने, ऐसा
जो आत्माका भाव (परिणाम) वह सम्यग्ज्ञान है
सारांश यह है, कि व्यवहारनयकर विकल्प
सहित अवस्थामें तत्त्वके विचारके समय आप और परका जानपना ज्ञान कहा है, और
निश्चयनयकर वीतराग निर्विकल्प समाधिसमय पदार्थोंका जानपना मुख्य नहीं लिया, केवल
स्वसंवेदनज्ञान ही निश्चयसम्यग्ज्ञान है
व्यवहारसम्यग्ज्ञान तो परम्पराय मोक्षका कारण है, और
निश्चयसम्यग्ज्ञान साक्षात् मोक्षका कारण है ।।२९।।
आगे निज और परद्रव्यको जानकर रागादिरूप जो परद्रव्यमें संकल्प-विकल्प हैं, उनके

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262 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-30
ज्ञानिनां चारित्रमिति प्रतिपादयति
१५६) जाणवि मण्णवि अप्पु परु जो परभाउ चएइ
सो णिउ सुद्धउ भावडउ णाणिहिं चरणु हवेइ ।।३०।।
ज्ञात्वा मत्वा आत्मानं परं यः परभावं त्यजति
स निजः शुद्धः भावः ज्ञानिनां चरणं भवति ।।३०।।
जाणवि इत्यादि जाणवि सम्यग्ज्ञानेन ज्ञात्वा न केवलं ज्ञात्वा मण्णवि तत्त्वार्थश्रद्धान-
लक्षणपरिणामेन मत्वा श्रद्धाय कम् अप्पु परु आत्मानं च परं च जो यः कर्ता पर-भाउ
परभावं चएइ त्यजति सो स पूर्वोक्त : णिउ निजः सुद्धउ भावडउ शुद्धो भावो णाणिहिं चरण
हवेइ ज्ञानिनां पुरुषाणां चरणं भवतीति
तद्यथा वीतरागसहजानन्दैकस्वभावं स्वद्रव्यं तद्विपरीतं
svasvarUpamAn sthiti thavI te gnAnI jIvonun samyakchAritra chhe, em kahe chhe.
bhAvArthavItarAg sahaj Anand ja jeno ek svabhAv chhe evA svadravyane ane
tenAthI viparIt paradravyane sanshay, viparyay ane anadhyavasAy rahit evA gnAn vaDe jANIne
ane shankAdi doSh rahit evA samyaktva pariNAmathI shraddhIne, mAyA, mithyAtva ane
nidAn e traN shalyathI mAnDIne samasta chintAjALanA tyAg vaDe, paramAnandarUp
त्यागसे जो निजस्वरूपमें निश्चलता होती है, वह ज्ञानी जीवोंके सम्यक्चारित्र है, ऐसा कहते
हैं
गाथा३०
अन्वयार्थ :सम्यग्ज्ञानसे [आत्मानं च परं ] आपको और परको [ज्ञात्वा ] जानकर
और सम्यग्दर्शनसे [मत्वा ] आप और परकी प्रतीति करके [यः ] जो [परभावं ] परभावको
[त्यजति ] छोड़ता है [सः ] वह [निजः शुद्धः भावः ] आत्माका निज शुद्ध भाव [ज्ञानिनां ]
ज्ञानी पुरुषोंके [चरणं ] चारित्र [भवति ] होता है
भावार्थ :वीतराग सहजानंद अद्वितीय स्वभाव जो आत्मद्रव्य उससे विपरीत
पुद्गलादि परद्रव्योंको सम्यग्ज्ञानसे पहले तो जानें, वह सम्यग्ज्ञान संशय, विमोह और विभ्रम
इन तीनोंसे रहित है
तथा शंकादि दोषोंसे रहित जो सम्यग्दर्शन है, उससे आप और परकी
श्रद्धा करे, अच्छी तरह जानके प्रतीति करे, और माया, मिथ्या, निदान इन तीन शल्योंको आदि
लेकर समस्त चिंता
समूहके त्यागसे निज शुद्धात्मस्वरूपमें तिष्ठे है, वह परम आनंद अतीन्द्रिय

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adhikAr-2 dohA-30 ]paramAtmaprakAsha [ 263
परद्रव्यं च संशयविपर्ययानध्यवसायरहितेन ज्ञानेन पूर्वं ज्ञात्वा शङ्कादिदोषरहितेन सम्यक्त्व-
परिणामेन श्रद्धाय च यः कर्ता मायामिथ्यानिदानशल्यप्रभृतिसमस्तचिन्ताजालत्यागेन निजशुद्धात्म-
स्वरूपे परमानन्दसुखरसास्वादतृप्तो भूत्वा तिष्ठति स पुरुष एवाभेदेन निश्चयचारित्रं भवतीति
भावार्थः
।।३०।। एवं मोक्षमोक्षफलमोक्षमार्गादिप्रतिपादक द्वितीयमहाधिकारमध्ये निश्चयव्यवहार-
मोक्षमार्गमुख्यत्वेन सूत्रत्रयं षड्द्रव्यश्रद्धानलक्षणव्यवहारसम्यक्त्वव्याख्यानमुख्यत्वेन सूत्राणि चतुर्दश,
सम्यग्ज्ञानचारित्रमुख्यत्वेन सूत्रद्वयमिति समुदायेनैकोनविंशतिसूत्रस्थलं समाप्तम्
अथानन्तरमभेदरत्नत्रयव्याख्यानमुख्यत्वेन सूत्राष्टकं कथ्यते, तत्रादौ तावत् रत्नत्रय-
भक्त भव्यजीवस्य लक्षणं प्रतिपादयति
१५७) जो भत्तउ रयणत्तयहँ तसु मुणि लक्खणु एउ
अप्पा मिल्लिवि गुण-णिलउ तासु वि अण्णु ण झेउ ।।३१।।
sukharasAsvAdathI tRupta thaIne je sthiti rahe chhe te puruSh ja abhedathI (abhedanayathI)
nishchayachAritra chhe. 30.
A pramANe mokSha, mokShaphaL, mokShamArgAdinA pratipAdak bIjA mahAdhikAramAn
nishchayavyavahAramokShamArganI mukhyatAthI traN gAthAsUtro, chha dravyonI shraddhA jenun svarUp chhe evA
vyavahArasamyaktvanA vyAkhyAnanI mukhyatAthI chaud gAthAsUtro samyaggnAn ane samyakchAritranI
mukhyatAthI be sUtro e pramANe samudAyarUpe ogaNIs sUtronun sthaL samApta thayun.
tyAr pachhI abhed ratnatrayanA vyAkhyAnanI mukhyatAthI ATh sUtro kahe chhe, temAn pratham
to ratnatrayanA bhakta bhavya jIvanun lakShaN kahe chhe
सुखरसके आस्वादसे तृप्त हुआ पुरुष ही अभेदनयसे निश्चयचारित्र है ।।३०।।
इसप्रकार मोक्ष, मोक्षका फल, मोक्षका मार्ग इनको कहनेवाले दूसरे महाधिकारमें
निश्चय व्यवहाररूप निर्वाणके पंथकी मुख्यतासे तीन दोहोंमें व्याख्यान किया, और चौदह
दोहोंमें छह द्रव्यकी श्रद्धारूप व्यवहारसम्यक्त्वका व्याख्यान किया, तथा दो दोहोंमें
सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्रका मुख्यतासे वर्णन किया
इसप्रकार उन्नीस दोहोंका स्थल पूरा
हुआ
आगे अभेदरत्नत्रयके व्याख्यानकी मुख्यतासे आठ दोहासूत्र कहते हैं, उनमेंसे पहले
रत्नत्रयके भक्त भव्यजीवके लक्षण कहते हैं

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264 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-31
यः भक्त : रत्नत्रयस्य तस्य मन्यस्व लक्षणं एतत्
आत्मानं मुक्त्वा गुणनिलयं तस्यापि अन्यत् न ध्येयम् ।।३१।।
जो इत्यादि जो यः भत्तउ भक्त : कस्य रणय-त्तयहँ रत्नत्रयसंयुक्त स्य तसु तस्य
जीवस्य मुणि मन्यस्व जानीहि हे प्रभाकरभट्ट किं जानीहि लक्खणु लक्षणं एउ इदमग्रे
वक्ष्यमाणम् इदं किम् अप्पा मिल्लिवि आत्मानं मुक्त्वा किं विशिष्टम् गुण-णिलउ
गुणनिलयं गुणगृहं तासु वि तस्यैव जीवस्य अण्णु ण झेउ निश्चयेनान्यद्बहिर्द्रव्यं ध्येयं न
भवतीति
तथाहि व्यवहारेण वीतरागसर्वज्ञप्रणीतशुद्धात्मतत्त्वप्रभृतिषड्द्रव्यपञ्चास्तिकायसप्त-
तत्त्वपदार्थविषये सम्यक्श्रद्धानज्ञानाहिंसादिव्रतशीलपरिपालनरूपस्य भेदरत्नत्रयस्य निश्चयेन
वीतरागसदानन्दैकरूपसुखसुधारसास्वादपरिणतनिजशुद्धात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपस्याभेदरत्नत्रयस्य
bhAvArthavyavahAranayathI vItarAg sarvagnapraNIt shuddhAtmatattvAdi, chha dravya panchAstikAy,
sAt tattva, nav padArthanAn samyakshraddhAn, samyaggnAn, ane ahinsAdi vrat, shIlanA paripAlanarUp
bhedaratnatrayano ane nishchayanayathI vItarAg sadA-Anand jenun ek rUp chhe evA sukhasudhArasanA
AsvAdathI pariNat nijashuddhAtmatattvanAn samyakshraddhAn, samyaggnAn ane samyaganucharaNarUp
abhedaratnatrayano je bhakta chhe tenun A lakShaN jANo. A kyun? joke vyavahAranayathI savikalpa
avasthAmAn chittane sthir karavA mATe devendra chakravartI Adi vibhUtinun visheSh kAraN, paramparAe
shuddha AtmAnI prAptinA hetubhUt evAn, panchaparameShThInA rUpanun stavan, vastustavan, guNastavanAdik
गाथा३१
अन्वयार्थ :[यः ] जो जीव [रत्नत्रयस्य भक्तः ] रत्नत्रयका भक्त है [तस्य ]
उसका [इदं लक्षणं ] यह लक्षण [मन्यस्व ] जानना, हे प्रभाकरभट्ट; रत्नत्रय धारकके ये लक्षण
हैं
[गुणनिलयं ] गुणोंके समूह [आत्मानं मुक्त्वा ] आत्माको छोड़कर [तस्यापि अन्यत् ]
आत्मासे अन्य बाह्य द्रव्यको [न ध्येयम् ] न ध्यावे, निश्चयनयसे एक आत्मा ही ध्यावने योग्य
है, अन्य नहीं
भावार्थ :व्यवहारनयकर वीतराग सर्वज्ञके कहे हुए शुद्धात्मतत्त्व आदि छह द्रव्य,
सात तत्त्व, नौ पदार्थ, पंच अस्तिकायका श्रद्धान जानने योग्य है, और हिंसादि, पाप, त्याग
करने योग्य हैं, व्रत, शीलादि पालने योग्य हैं, ये लक्षण व्यवहाररत्नत्रयके हैं, सो व्यवहारका
नाम भेद हैं, वह भेदरत्नत्रय आराधने योग्य है, उसके प्रभावसे निश्चयरत्नत्रयकी प्राप्ति है
वीतराग सदा आनंदरूप जो निज शुद्धात्मा आत्मीक सुखरूप सुधारसके आस्वाद कर परिणत
हुआ उसका सम्यक् श्रद्धान ज्ञान आचरणरूप अभेदरत्नत्रय है, उसका जो भक्त (आराधक)

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adhikAr-2 dohA-31 ]paramAtmaprakAsha [ 265
च योऽसौ भक्त स्तस्येदं लक्षणं जानीहि इदं किम् यद्यपि व्यवहारेण सविकल्पावस्थायां
चित्तस्थितिकरणार्थं देवेन्द्रचक्रवर्त्यादि विभूतिविशेषकारणं परंपरया शुद्धात्मप्राप्तिहेतुभूतं पञ्च-
परमेष्ठिरूपस्तववस्तुस्तवगुणस्तवादिकं वचनेन स्तुत्यं भवति मनसा च तदक्षररूपादिकं
प्राथमिकानां ध्येयं भवति, तथापि पूर्वोक्त निश्चयरत्नत्रयपरिणतिकाले केवलज्ञानाद्यनन्तगुण-
परिणतः स्वशुद्धात्मैव ध्येय इति
अत्रेदं तात्पर्यम् योऽसावनन्तज्ञानादिगुणः शुद्धात्मा ध्येयो
भणितः स एव निश्चयेनोपादेय इति ।।३१।।
अथ ये ज्ञानिनो निर्मलरत्नत्रयमेवात्मानं मन्यते शिवशब्दवाच्यं ते मोक्षपदाराधकाः सन्तो
निजात्मानं ध्यायन्तीति निरूपयति
vachanathI stavavA yogya chhe ane prAthamikone manathI tenA akShararUpAdik dhyAvavA yogya chhe topaN,
pUrvokta nishchayaratnatrayanI pariNatinA kALe kevaLagnAnAdi anantaguNapariNat svashuddhAtmA ja dhyAvavA
yogya chhe.
ahIn, e tAtparya chhe ke anantaguNavALo je shuddhAtmA dhyAvavA yogya kahyo chhe te ja
nishchayathI upAdey chhe. 31.
have, je gnAnIo nirmalaratnatrayane ja AtmA mAne chhe teo mokShapadanA ArAdhako ‘shiv’
shabdathI vAchya evA nij AtmAne dhyAve chhe, em kahe chhe
उसके ये लक्षण हैं, यह जानो वे कौनसे लक्षण हैंयद्यपि व्यवहारनयकर सविकल्प
अवस्थामें चित्तके स्थिर करनेके लिये पंचपरमेष्ठीका स्तवन करता है, जो पंचपरमेष्ठीका स्तवन
देवेन्द्र चक्रवर्ती आदि विभूतिका कारण है, और परम्पराय शुद्ध आत्मतत्त्वकी प्राप्तिका कारण
है, सो प्रथम अवस्थामें भव्यजीवोंको पंचपरमेष्ठी ध्यावने योग्य हैं, उनके आत्माका स्तवन,
गुणोंकी स्तुति, वचनसे उनकी अनेक तरहकी स्तुति करनी, और मनसे उनके नामके अक्षर तथा
उनका रूपादिक ध्यावने योग्य हैं, तो भी पूर्वोक्त निश्चयरत्नत्रयकी प्राप्तिके समय केवलज्ञानादि
अनंतगुणरूप परिणत जो निज शुद्धात्मा वही आराधने योग्य है, अन्य नहीं
तात्पर्य यह है कि
ध्यान करने योग्य या तो निज आत्मा है, या पंचपरमेष्ठी हैं, अन्य नहीं, प्रथम अवस्थामें तो
पंचपरमेष्ठीका ध्यान करना योग्य है, और निर्विकल्पदशामें निजस्वरूप ही ध्यावने योग्य है,
निजरूप ही उपादेय हैं
।।३१।।
आगे जो ज्ञानी निर्मल रत्नत्रयको ही आत्मस्वरूप मानते हैं, और अपनेको ही
शिव जानते हैं, वे ही मोक्षपदके धारक हुए निज आत्माको ध्यावते हैं, ऐसा निरूपण
करते हैं

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266 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-32
१५८) जे रयणत्तउ णिम्मलउ णाणिय अप्पु भणंति
ते आराहय सिवपयहँ णियअप्पा झायंति ।।३२।।
ते रत्नत्रयं निर्मलं ज्ञानिनः आत्मानं भणन्ति
ते आराधकाः शिवपदस्य निजात्मानं ध्यायन्ति ।।३२।।
जे इत्यादि ये केचन रयण-त्तउ रत्नत्रयम् कथंभूतम् णिम्मलउ निर्मलं
रागादिदोषरहितम् कथंभूता ये णाणिय ज्ञानिनः किं कुर्वन्ति अप्पु भणंति
पूर्वोक्त रत्नत्रयस्वरूपमेवात्मानं, आत्मस्वरूपं कर्मतापन्नं भणंति मन्यते ते आराहय ते पूर्वोक्ताः
पुरुषाः आराधका भवन्ति
कस्य सिव-पयहं शिवपदस्य शिवशब्दवाच्यमोक्षपदस्य
मोक्षपदाराधकाः सन्तः किं कुर्वन्ति णिय-अप्पा झायंति निजात्मानं कर्मतापन्नं ध्यायन्ति
इति तथा च ये केचन वीतरागस्वसंवेदनज्ञानिनः परमात्मानं सम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानलक्षणं
निश्चयरत्नत्रयमेवाभेदनयेन निजशुद्धात्मानं मन्यन्ते ते शिवशब्दवाच्यमोक्षपदाराधका भवन्ति
आराधकाः सन्तः किं ध्यायन्ति विशुद्धज्ञानदर्शनं स्वशुद्धात्मस्वरूपं निश्चयनयेन ध्यायन्ति
bhAvArthaje koI gnAnIo nirmaL-rAgAdi doSh rahit-ratnatrayane ratnatrayasvarUp
AtmAne ja-AtmAnun svarUp mAne chhe te puruSho ‘shiv’ padathI vAchya evA mokShapadanA ArAdhako
chhe, mokShapadanA ArAdhako nij AtmAne dhyAve chhe.
vistAr :je koI vItarAg svasamvedanavALA gnAnIo paramAtmAne samyakshraddhAn
samyaggnAn, samyaganuShThAnarUp nishchayaratnatrayane ja abhedanayathI nij shuddha AtmAne mAne chhe,
teo ‘shiv’ shabdathI vAchya evA mokShapadanA ArAdhako chhe.
te ArAdhako kone dhyAve chhe? te ArAdhako vishuddhagnAnadarshanavALA svashuddhAtmasvarUpane
गाथा३२
अन्वयार्थ :[ये ज्ञानिनः ] जो ज्ञानी [निर्मलं रत्नत्रयं ] निर्मल रागादि दोष रहित
रत्नत्रयको [आत्मानं ] आत्मा [भणंति ] कहते हैं [ते ] वे [शिवपदस्य आराधकाः ] शिवपदके
आराधक हैं, और वे ही [निजात्मानं ] मोक्षपदके आराधक हुए अपने आत्माको [ध्यायंति ]
ध्यावते हैं
।।
भावार्थ :जो कोई वीतराग, स्वसंवेदनज्ञानी, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान सम्यक्-
चारित्ररूप आत्माको मानते हैं, वे ही मोक्षपदके आराधक हुए निश्चयनयकर केवल