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chheḥ
anubhavathī pratipakṣha nav prakāranā abrahmacharyavratane (kushīlane) ane vītarāg nirvikalpa samādhinā
मुद्राज्ञानमुद्रादिकं च यस्य नास्ति तं परमात्मानं देवमाराध्यं द्रव्यार्थिकनयेनानन्तमविनश्वरमनन्त-
नहीं है, [यस्य ] जिसके [यन्त्रः न ] अक्षरोंकी रचनारूप स्तंभन मोहनादि विषयक यंत्र नहीं
है, [मन्त्रः न ] अनेक तरहके अक्षरोंके बोलनेरूप मंत्र नहीं है, [यस्य ] और जिसके [मण्डलं
न ] जलमंडल, वायुमंडल, अग्निमंडल, पृथ्वीमंडलादिक पवनके भेद नहीं हैं, [मुद्रा न ]
गारुडमुद्रा, ज्ञानमुद्रा आदि मुद्रा नहीं हैं, [तं ] उसे [अनन्तम् ] द्रव्यार्थिकनयसे अविनाशी तथा
अनंत ज्ञानादिगुणरूप [देवम् मन्यस्व ]
आनंद परम समरसीभाव सुखरूपी रसके अनुभवका शत्रु जो नौ तरहका कुशील उसको
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evo bhāvārtha chhe. kahyun paṇ chhe keḥ
e chāre bhāvo mushkelīthī siddha thāy chhe. 22.
नवप्रकाराब्रह्मव्रतस्य वीतरागनिर्विकल्पसमाधिघातकस्य मनोगतसंकल्पविकल्पजालस्य च विजयं
कृत्वा हे प्रभाकरभट्ट शुद्धात्मानमनुभवेत्यर्थः
शुद्धात्माका अनुभव कर
होता है, पाँच महाव्रतोंमें ब्रह्मचर्य व्रत प्रबल है, और तीन गुप्तियोंमेंसे मनोगुप्ति पालना कठिन
है
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संजातनित्यानन्दैकसुखामृतास्वादपरिणतस्य ध्यानस्य विषयः
है, अर्थात् वेद, शास्त्र, ये दोनों शब्द अर्थस्वरूप हैं, आत्मा शब्दातीत है, तथा इन्द्रिय, मन
विकल्परूप हैं, और मूर्तीक पदार्थको जानते हैं, वह आत्मा निर्विकल्प है, अमूर्तीक है, इसलिए
इन तीनोंसे नहीं जान सकते
निर्विकल्प अपने स्वरूपके ध्यानकर स्वरूपकी प्राप्ति है
सकते हैं, जिन्होंने पाया, उन्होंने ध्यानसे ही पाया है, और शास्त्र सुनना तो ध्यानका उपाय है,
ऐसा समझकर अनादि अनंत चिद्रूपमें अपना परिणमन लगाओ
है, वह परमतत्त्व तो केवल आनन्दरूप है, और ये लोक अन्य ही मार्गमें लगे हुए हैं, सो वृथा
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दर्शनवाला है, [केवलसुखस्वभावः ] जिसका केवलसुख स्वभाव है, और जो [केवलवीर्यः ]
अनंतवीर्यवाला है, [स एव ] वही [परापरभावः ] उत्कृष्ट अर्हंतपरमेष्ठीसे भी अधिक
स्वभाववाला सिद्धरूप शुद्धात्मा है [मन्यस्व ] ऐसा मानो
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सर्वप्रकारेणोपादेय इति तात्पर्यार्थः
ऐसे निष्कल परमात्मा निराकारस्वरूप सिद्धपरमेष्ठी हैं, वे सकल परमात्मासे भी उत्तम हैं, वही
सिद्धरूप शुद्धात्मा ध्यान करने योग्य है
आहारक, तैजस, कार्माण ये पाँच शरीर जिसके नहीं है, अर्थात् निराकार है, [देवः ] तीन
लोककर आराधित जगतका देव है, [यः ] ऐसा जो परमात्मा सिद्ध है, [सः ] वही [तत्र
परमपदे ] उस लोकके शिखर पर [निवसति ] विराजमान है, [यः] जो कि [त्रैलोक्यस्य ]
तीन लोकका [ध्येयः ] ध्येय (ध्यान करने योग्य) है
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pramāṇeḥ
देहमें भी शक्तिरूप है, ऐसा कहते हैं
गुणरूप सिद्धपरमेष्ठी [देवः ] देवाधिदेव परम आराध्य [सिद्धौ ] मुक्तिमें [निवसति ] रहता है,
[ता
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मुक्तौ निवसति तिष्ठति देवः परमाराध्यः ता
kāryasamayasārarūp param ārādhya evā dev muktimān rahe chhe tevo ja pūrvokta lakṣhaṇavāḷo
parabrahma shuddha buddha jeno ek svabhāv chhe evo utkr̥uṣhṭa brahmā-paramātmā-
shuddhadravyārthikanayathī shaktirūpe dehamān rahe chhe. tethī he prabhākarabhaṭṭa! tun siddhabhagavān ane
potāmān bhed na kar. mokṣhaprābhr̥ut (gāthā 103)mān shrī kundakundāchāryadeve kahyun
paṇ chhe ke
āchāryaparameṣhṭhī ādithī paṇ jemane dhyāvavāmān āve chhe ane bījāo vaḍe jemane
stavavāmān āve chhe evā satpuruṣhothī paṇ jemane stavavāmān āve chhe evo je koī
(jīvapadārtha) dehamān rahel chhe te paramātmāne tun jāṇ.
इसलिये हे प्रभाकरभट्ट, तूँ [भेदम् ] सिद्ध भगवान्में और अपनेमें भेद [मा कुरु ] मत कर
सत्पुरुषोंसे स्तुति किया गया है, और ध्यान करने योग्य आचार्यपरमेष्ठी वगैरहसे भी ध्यान करने
योग्य ऐसा जीवनामा पदार्थ इस देहमें बसता है, उसको तूँ परमात्मा जान
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अन्तर्मुहूर्तेन
bhāvathī) upārjit karelān pūrvakr̥ut karmonā shīghra-antarmuhūrtamān seṅkaḍo chūrechūrā thaī jāy chhe te
उपार्जित [कर्माणि ] कर्म [त्रुटयन्ति ] चूर्ण हो जाते हैं, अर्थात् सम्यग्ज्ञानके अभावसे
(अज्ञानसे) जो पहले शुभ अशुभ कर्म कमाये थे, वे निजस्वरूपके देखनेसे ही नाश हो जाते
हैं, [तं परं ] उस सदानंदरूप परमात्माको [देहं वसन्तं ] देहमें बसते हुए भी [हे योगिन् ]
हे योगी [किं न जानासि ] तू क्यों नहीं जानता ?
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हे योगिन्
paṇ he yogī! tene tun kem jāṇato nathī?
tyār pachhī pāñch prakṣhepakone kahe chhe. te ā pramāṇeḥ
उपादेय है, अन्य कोई नहीं है
नहीं हैं, [यत्र ] जिसमें [मनोव्यापारः ] संकल्प-विकल्परूप मनका व्यापार भी [न ] नहीं है,
अर्थात् विकल्प रहित परमात्मासे व्यापार जुदे हैं, [तं ] उस पूर्वोक्त लक्षणावालेको [हे जीव
त्वं ] हे जीव, तू [आत्मानं ] आत्माराम [मन्यस्व ] मान, [अन्यत्परम् ] अन्य सब विभावोंको
[अपहर ] छोड़
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नित्यानन्दैकरूपं वीतरागनिर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा जानीहि हे जीव, त्वम् अन्य-
त्परमात्मस्वभावाद्विपरीतं पञ्चेन्द्रियविषयस्वरूपादिविभावसमूहं परस्मिन् दूरे सर्वप्रकारेणापहर
त्यजेति तात्पर्यार्थः
nirvikalpa paramātmāthī vilakṣhaṇ, saṅkalpavikalparūp manovyāpār nathī te nij shuddhātmāne he
jīv! tun jāṇ
dūrathī ja sarva prakāre chhoḍ. e tātpayārtha chhe.
samādhimān rahīe chhīe em jeo kahe chhe temanā niṣhedh arthe; athavā shvetashaṅkhanī jem
ā svarūpavisheṣhaṇ chhe em samajavā māṭe, (jem shaṅkh chhe te shvet ja hoy chhe tem je
nirvikalpa samādhi hoy chhe te vītarāg rūp ja hoy chhe, e rīte svarūp pragaṭ karavā māṭe)
त्याग, उनका सर्वथा ही त्याग कर
हम निर्विकल्पसमाधिमें स्थित हैं, उनके निषेधके लिये वीतरागता सहित निर्विकल्पसमाधिका
कथन किया गया है, अथवा सफे द शंखकी तरह स्वरूप प्रगट करनेके लिये कहा गया है,
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योजनीयम्
वीतरागतारूप ही होगी
निश्चयनयकर अपने आत्मस्वभावमें ठहरा हुआ है, अर्थात् व्यवहारनयकर तो देहसे अभेदरूप
(तन्मय) है, और निश्चयसे सदा कालसे अत्यन्त जुदा है, अपने स्वभावमें स्थित है, [तं ] उसे
[हे जीव त्वं ] हे जीव, तूँ [आत्मानं ] परमात्मा [मन्यस्व ] जान
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स्वदेहाद्भिन्ने स्वात्मनि वसति यः तमात्मानं मन्यस्व जानीहि हे जीव
नित्यानन्दैकवीतरागनिर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा भावयेत्यर्थः
tene he jīv! tun ātmā jāṇ
सम्बन्धसे उत्पन्न हुए रागादि विभाव (विकार) हैं, [तत्परं ] उनको पर (अन्य) [मन्यस्व ]
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nathī evo ane jeno koī ākār kahevāto nathī evo jāṇ.
pudgalādi pāñch dravyarūp te jīv sāthe sambandh vinānun chhe ke je ajīvanun lakṣhaṇ chhe, kāraṇ
ke jīvathī ajīvanun lakṣhaṇ bhinna chhe, te kāraṇe je par evā rāgādik chhe tene par jāṇo-
je bhedya ane abhedya chhe. (arthāt je jīv sāthe sambandh vinānā chhe ane jīv sāthe
sambandhavāḷā chhe.)
ऐसा मैं कहता हूँ
पाँच तरहके वर्ण रहित है, सुगन्ध, दुर्गंध इन दो तरहके गंध उसमें नहीं हैं, प्रगट (दृष्टिगोचर)
नहीं है, चैतन्यगुण सहित है, शब्दसे रहित है, पुल्लिंग आदि करके ग्रहण नहीं होता, अर्थात्
लिंग रहित है, और उसका आकार नहीं दिखता, अर्थात् निराकार वस्तु है
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संबंधी नहीं हैं, अजीवसंबंधी ही हैं, इसलिये अजीव हैं, जीवसे भिन्न हैं
संबंधसे हैं, इसलिये पर ही समझो
[ज्ञानमयः ] लोक और अलोकके प्रकाशनेवाले केवलज्ञानस्वरूप है, [मूर्तिविरहितः ]
अमूर्तीक आत्मासे विपरीत स्पर्श, रस, गंध, वर्णवाली मूर्तिरहित है, [चिन्मात्रः ] अन्य द्रव्योंमें
नहीं पाई जावे, ऐसी शुद्धचेतनास्वरूप ही है, और [इन्द्रियविषयः नैव ] इन्द्रियोंके गोचर नहीं
है, वीतराग स्वसंवेदनसे ही ग्रहण किया जाता है
have te shuddhātmānā gnānādi lakṣhaṇone visheṣhapaṇe kahe chheḥ
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विपरीतलक्षणया स्पर्शरसगन्धवर्णवत्या मूर्त्या वर्जितत्वान्मूर्तिविरहितः, अन्यद्रव्यासाधारणया-
शुद्धचेतनया निष्पन्नत्वाच्चिन्मात्रः
atīndriy chhe, lokālokanā prakāshak kevaḷagnānathī rachāyelo hovāthī gnānamay chhe, amūrta
ātmāthī viparīt lakṣhaṇavāḷī sparsha, ras, gandh, varṇarūp mūrtithī rahit hovāthī mūrti rahit
chhe. anya dravyonī sāthe asādhāraṇ evī shuddha chetanāthī niṣhpanna hovāthī chinmātra chhe ane
vītarāg svasamvedanarūp gnānathī grāhya hovā chhatān indriyone agochar chhe. āvun lakṣhaṇ (shuddha
ātmānun) nishchitapaṇe kahevāmān āvyun chhe.
have je sansār, sharīr, ane bhogothī virakta thaīne shuddha ātmānun dhyān kare chhe tenī
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शुद्धात्मानं ध्यायति तस्य गुरुक्की महती संसारवल्ली त्रुटयति नश्यति शतचूर्णा भवतीति
तात्पर्यार्थः
[गुर्वी ] मोटी [सांसारिकी वल्ली ] संसाररूपी बेल [त्रुटयति ] नाशको प्राप्त हो जाती है
शुद्धात्म-सुखमें अनुरागी कर शरीरादिकमें वैराग्यरूप हुआ जो शुद्धात्माको विचारता है, उसका
संसार छूट जाता है, इसलिये जिस परमात्माके ध्यानसे संसाररूपी बेल दूर हो जाती है, वही
ध्यान करने योग्य (उपादेय) है
vyāvr̥utta karīne (pāchhun vāḷīne) nij shuddhātmasukhamān rat thavāthī sansār, sharīr ane bhogothī
virakta manavāḷo thayo thako je shuddha ātmāne dhyāve chhe tenī sansārarūpī moṭī velanā seṅkaḍo kaṭakā
thaī jāy chhe
tyār pachhī, deharūpī devālayamān je rahe chhe te ja shuddhanishchayanayathī paramātmā chhe em
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शुद्धद्रव्यार्थिकनयेनानाद्यनन्तः, यद्यपि देहो जडस्तथापि स्वयं लोकालोकप्रकाशकत्वात्केवलज्ञान-
स्फु रिततनुः, केवलज्ञानप्रकाशरूपशरीर इत्यर्थंः
है, महा पवित्र है, [देवः ] आराधने योग्य है, पूज्य है, देह आराधने योग्य नहीं है,
[अनाद्यनन्तः ] जो परमात्मा आप शुद्ध द्रव्यार्थिकनयकर अनादि अनंत है, तथा यह देह आदि
अंतकर सहित है, [केवलज्ञानस्फु रत्तनुः ] जो आत्मा निश्चयनयकर लोक अलोकको
प्रकाशनेवाले केवलज्ञानस्वरूप है, अर्थात् केवलज्ञान ही प्रकाशरूप शरीर है, और देह जड़
है, [सः परमात्मा ] वही परमात्मा [निर्भ्रान्तः ] निःसंदेह है, इसमें कुछ संशय नहीं
समझना
paramātmā-dev-ārādhya-pūjya
kevalagnānaprakāsharūp sharīravāḷo chhe te niḥsandeh paramātmā chhe.
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निश्चयेन य एव देहं न स्पृशति, तथाविधदेहेन न स्पृश्यते योऽपि तं मन्यस्व जानीहि परमात्मानं
अपि ] वह भी [नैव स्पृश्यते ] नहीं छुआ जाता
अर्थात् अपना स्वरूप ही परमात्मा है
व्यवहारनयकर बसता हुआ भी निश्चयकर देहको नहीं छूता, उसको तुम परमात्मा जानो, उसी
vyavahāranayathī rahevā chhatān paṇ nishchayathī je dehane sparshato nathī, te paramātmāne ja
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इति भावार्थः
ममत्वसे रहित (विवेकी) पुरुषोंके आराधने योग्य है
chhe. 34.
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परमयोगिनां कश्चित् स्फु रति संवित्तिमायाति
सम्यक्चारित्ररूप अभेदरत्नत्रय जिसका स्वरूप है, ऐसी वीतरागनिर्विकल्पसमाधिमें तिष्ठे हुए
हैं, उन योगीश्वरोंके हृदयमें [परमानन्दं जनयन् ] वीतराग परम आनन्दको उत्पन्न करता
हुआ [यः कश्चित् ] जो कोई [स्फु रति ] स्फु रायमान होता है, [स स्फु टं ] वही प्रकट
[परमात्मा ] परमात्मा [भवति ] है, ऐसा जानो
शुद्ध निश्चयमें तिष्ठते हैं, उन योगियोंके ध्यान करके अपूर्व परमानन्द उत्पन्न होता है
है
हैं, उनको आत्मरुचि नहीं हो सकती यह तात्पर्य हुआ
abhed-ratnatrayātmak vītarāg nirvikalpa samādhimān sthit paramayogīone vītarāg paramānandane
utpanna karato je koī paramātmā sphurāyamān thāy chhe
thāy chhe.
chhe evo tātparyārtha chhe. 35.