Page 127 of 565
PDF/HTML Page 141 of 579
single page version
[भवतीरम् ] भवसागरका पार [प्राप्नोषि ] पायेगा
ही समयमें मोक्षको पाता है
भावार्थः
स्वभावान्निश्चयेन भिन्नं पृथग्भूतं हे जीव णियमिं बुज्झहि सव्वु नियमेन निश्चयेन बुध्यस्व जानीहि
Page 128 of 565
PDF/HTML Page 142 of 579
single page version
जानो, अर्थात् ये सब कर्मके उदयसे उत्पन्न हुए हैं, आत्माका स्वभाव निर्मल ज्ञान दर्शनमयी
है
छोड़कर [आत्मस्वभावम् ] अपने शुद्धात्म स्वभावको [भावय ] चितंवन कर
देहादिपरभावः सो छंडेविणु जीव तुहुं भावहि अप्पसहाउ तं पूर्वोक्तं शुद्धात्मनो विलक्षणं परभावं
Page 129 of 565
PDF/HTML Page 143 of 579
single page version
छोड़कर केवलज्ञानादि अनंतचतुष्टयरूप कार्यसमयसारका साधक जो अभेदरत्नत्रयरूप
कारणसमयसार है, उस रूप परिणत हुए अपने शुद्धात्म स्वभावको चिंतवन कर और उसीको
उपादेय समझ
[दर्शनज्ञानचारित्रमयं ] शुद्धोपयोगके साथ रहनेवाले अपने सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप
[आत्मानं ] आत्माको [निश्चितम् ] निश्चयकर [भावय ] चिंतवन कर
vyaktirūp kāryasamayasāranā sādhak abhedaratnatrayātmak kāraṇasamayasārarūpe pariṇat
shuddhātmasvabhāvane bhāv.
have, nishchayanayathī āṭh karma ane sarva doṣhothī rahit, samyagdarshan, samyaggnān ane
Page 130 of 565
PDF/HTML Page 144 of 579
single page version
निकटभव्योंको उपादेय है, ऐसा तात्पर्य हुआ
svashuddhātmānān samyagdarshan, samyaggnān, samyakchāritrathī rachāyel ātmāne nishchayathī bhāv arthāt
dekhelā, sāmbhaḷelā ane anubhavelā bhogākāṅkṣhārūp nidānabandhādi samasta vibhāvapariṇāmone
chhoḍīne shuddhātmane bhāv.
evo bhāvārtha chhe. 75.
ज्ञानचारित्रैर्निर्वृत्तं अप्पा भावि णिरुत्तु तमित्थंभूतमात्मानं भावय
एवाभेदरत्नत्रयपरिणतानां भव्यानामुपादेय इति भावार्थः
Page 131 of 565
PDF/HTML Page 145 of 579
single page version
हुआ संता [लघु ] जल्दी [कर्मणा ] कर्मोंसे [मुच्यते ] छूट जाता है
शीघ्र ही छूट जाता है
वीतराग सम्यक्त्व है, वही ध्यावने योग्य है, ऐसा अभिप्राय हुआ
chhe. nishchayasamyaktvanī bhāvanānun phaḷ kahevāmān āve chhe. samyagdraṣhṭi jīv shīghra gnānāvaraṇādi
karmathī mukāy chhe.
evo abhiprāy chhe. shrīkundakundāchārye mokṣhaprābhr̥ut (gāthā-14)mān nishchayasamyaktvanun lakṣhaṇ kahyun chhe
ke
हवेइ वीतरागसम्यग्
Page 132 of 565
PDF/HTML Page 146 of 579
single page version
वह सम्यग्दृष्टि सम्यक्त्वरूप परिणमता हुआ दुष्ट आठ कर्मोंको क्षय करता है
अनेक प्रकारके कर्मोंको [बध्नाति ] बाँधता है, [येन ] जिनसे कि [संसारं ] संसारमें [भ्रमति ]
भ्रमण करता है
हैं, वह मिथ्यादृष्टि कहलाता है
मिथ्या वितथा व्यलीका च सा
pariṇamelo te shramaṇ duṣhṭa āṭh karmano kṣhay kare chhe.] 76.
Page 133 of 565
PDF/HTML Page 147 of 579
single page version
जिनसे कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भावरूपी पाँच प्रकारके संसारमें भटकता है
मरण किया हो, ऐसा कोई काल नहीं है, कि जिसमें इसने जन्म-मरण न किये हों, ऐसा कोई
भव नहीं, जो इसने पाया न हो, और ऐसे अशुद्ध भाव नहीं हैं, जो इसके न हुए हों
मिथ्यादृष्टि ही हैं, सम्यग्दृष्टि नहीं और मिथ्यात्वकर परिणमते दुःख देनेवाले आठ कर्मोंको बाँधते
हैं
प्रतिपक्षभूतानि बहुविधकर्माणि बध्नाति तैश्च कर्मभिर्द्रव्यक्षेत्रकालभवभावरूपं पञ्चप्रकारं
संसारं परिभ्रमतीति
(khoṭī) vyalīk (banāvaṭī) draṣhṭi
kundakundāchāryadevakr̥ut) mokṣhaprābhr̥ut (gāthā 15)mān nishchayamithyādraṣhṭinun lakṣhaṇ paṇ kahyun chhe keḥ
karmane bāndhe chhe. ) vaḷī teoe paṇ kahyun chhe ke (pravachanasār 2--94)
Page 134 of 565
PDF/HTML Page 148 of 579
single page version
है, ऐसा जानो
चिकने हैं, [गुरुकाणि ] भारी हैं, [वज्रसमानि ] और वज्रके समान अभेद्य हैं
jāṇavā.)
Page 135 of 565
PDF/HTML Page 149 of 579
single page version
आच्छादन करके अभेदरत्नत्रयरूप निश्चयमोक्षमार्गसे विपरीत खोटे मार्गमें डालते हैं, अर्थात्
मोक्ष-मार्गसे भुलाकर भव-वनमें भटकाते हैं
निश्चयमोक्षमार्ग है, वह उपादेय है
श्रद्धान करता है, यथार्थ नहीं जानता
पातयन्तीति
च यथावद् वस्तुस्वरूपमपि विपरीतं मिथ्यात्वरागादिपरिणतं जानाति
Page 136 of 565
PDF/HTML Page 150 of 579
single page version
है, उसको मिथ्यात्व रागादिरूप जानता है
अर्थात् भेदविज्ञानके अभावसे गोरा, श्याम, स्थूल, कृश, इत्यादि कर्मजनित देहके स्वरूपको
अपना जानता है, इसीसे संसारमें भ्रमण करता है
शुद्ध आत्माका ज्ञान होता है
विशिष्टभेदज्ञानाभावाद्गौरस्थूलकृशादिकर्मजनितदेहधर्मानं जानातीत्यर्थः
vastusvarūpane paṇ viparīt ane rāgādirūpe pariṇamelun jāṇe chhe, ke jethī te karmathī banelā bhāvone
potārūp kahe chhe
Page 137 of 565
PDF/HTML Page 151 of 579
single page version
मोटा हूँ, [एतं ] इसप्रकार मिथ्यात्व परिणामकर परिणत मिथ्यादृष्टि जीवको तू [मूढं ] मूढ
[मन्यस्व ] मान
भिन्न है, तो भी पुरुष विषय कषायोंके आधीन होकर शरीरके भावोंको अपने जानता है, वह
अपनी स्वात्मानुभूतिसे रहित हुआ मूढात्मा है
विषयकषायाधीनतया स्वशुद्धात्मानुभूतेश्च्युतः सन् मूढात्मा भवतीति
jīvamān, je joḍe chhe te viṣhayakaṣhāyane ādhīn thaīne svashuddhātmānī anubhūtithī chyut thayo thako
mūḍhātmā chhe, evo ahīn bhāvārtha chhe. 80.
Page 138 of 565
PDF/HTML Page 152 of 579
single page version
[अहं ] मैं [क्षत्रियः ] क्षत्री हूँ, [अहं ] मैं [शेषः ] इनके सिवाय शूद्र हूँ, [अहं ] मैं [पुरुषः
नपुंसकः स्त्री ] पुरुष हूँ, और स्त्री हूँ
आराधने योग्य वीतराग सदा आनंदस्वभाव निज शुद्धात्मामें इन भेदोंको लगाता हैं, अर्थात्
अपनेको ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र मानता है; स्त्री, पुरुष, नपुंसक, मानता है, वह कर्मोंका
बंध करता है, वही अज्ञानसे परिणत हुआ निज शुद्धात्म तत्त्वकी भावनासे रहित हुआ मूढात्मा
हैं, ज्ञानवान् नहीं है
करोति
brāhmaṇādi bhedone, nishchayanayathī upādeyabhūt vītarāg sadānand ja jeno ek svabhāv chhe evā
svashuddhātmāmān joḍe chhe
Page 139 of 565
PDF/HTML Page 153 of 579
single page version
योजयति
vītarāgasahajānand jeno ek svabhāv chhe evā paramātmāthī bhinna chhe. karmodayathī utpanna
taruṇ, vr̥uddhādi vibhāvaparyāyo hey hovā chhatān paṇ temane, sākṣhāt upādeyabhūt
nijashuddhātmatattvamān yoje chhe (
[वन्दकः ] बोद्धमतका आचार्य हूँ [श्वेतपटः ] और मैं श्वेताम्बर हूँ, इत्यादि [सर्वम् ] सब
शरीरके भेदोंको [मूढ़ः ] मूर्ख [मन्यते ] अपना मानता है
उससे भिन्न हैं
है, वह अज्ञानी जीव बड़ाई, प्रतिष्ठा, धनका लाभ इत्यादि विभाव परिणामोंके आधीन होकर
परमात्माकी भावनासे रहित हुआ मूढात्मा हैं, वह जीवके ही भाव मानता है
Page 140 of 565
PDF/HTML Page 154 of 579
single page version
मण्णइ सव्वु मायाजालमप्यसत्यमपि कृत्रिममपि आत्मीयं स्वकीयं मन्यते
नाना, मामा, भाई, बंधु और [द्रव्यं ] रत्न, माणिक, मोती, सुवर्ण, चांदी, धन, धान्य, द्विपदवांदी
धाय, नौकर, चौपाये-गाय, बैल, घोड़ी, ऊँट, हाथी, रथ, पालकी, बहली, ये [सर्व ] सर्व
[मायाजालमपि ] असत्य हैं, कर्मजनित हैं, तो भी [मूढ़ः ] अज्ञानी जीव [आत्मीयं ] अपने
[मन्यते ] मानता है
भी हैं, उनको जो जीव साक्षात् उपादेयरूप अनाकुलतास्वरूप परमार्थिक सुखसे अभिन्न वीतराग
परमानंदरूप एकस्वभाववाले शुद्धात्मद्रव्यमें लगाता है, अर्थात अपने मानता है, वह मन, वचन
duḥkhanān kāraṇ hovāthī hey chhe topaṇ, temane sākṣhāt upādeyabhūt ane anākuḷatā jenun lakṣhaṇ
chhe evā pāramārthik saukhyathī abhinna, vītarāgaparamānand ja jeno ek svabhāv chhe evā
Page 141 of 565
PDF/HTML Page 155 of 579
single page version
अर्थात् अतीन्द्रियसुखरूप आत्मामें परवस्तुका क्या प्रयोजन है
है, वह [मिथ्यादृष्टिः जीवः ] मिथ्यादृष्टि जीव [अत्र ] इस संसारमें [किं न करोति ] क्या
पाप नहीं करता ? सभी पाप करता है, अर्थात् जीवोंकी हिंसा करता है, झूठ बोलता है, दूसरेका
धन हरता है, दूसरेकी स्त्री सेवन करता है, अति तृष्णा करता है, बहुत आरंभ करता है, खेती
करता है, खोटे-खोटे व्यसन करता है, जो न करनेके काम हैं उनको भी करता है
Page 142 of 565
PDF/HTML Page 156 of 579
single page version
सुखहेतून् मत्वा अनुभवतीत्यर्थः
यह जीव [दर्शनं ] सम्यग्दर्शनको [लभते ] पाता है, फि र [नियमेन ] निश्चयसे [आत्मानं ]
अपने स्वरूपको [मनुते ] जानता है
anubhave chhe, e tātpayārtha chhe. 84.
Page 143 of 565
PDF/HTML Page 157 of 579
single page version
दुःप्राप्ता काललब्धिः, कथंचित्काकतालीयन्यायेन तां लब्ध्वा परमागमकथितमार्गेण मिथ्यात्वादि-
भेदभिन्नपरमात्मोपलंभप्रतिपत्तेर्यथा यथा मोहो विगलति तथा तथा शुद्धात्मैवोपादेय इति रूचिरूपं
सम्यक्त्वं लभते
‘काकतालीय न्यायसे’ काललब्धिको पाकर सब दुर्लभ सामग्री मिलने पर भी जैन-शास्त्रोक्त
मार्गसे मिथ्यात्वादिके दूर हो जानेसे आत्मस्वरूपकी प्राप्ति होते हुए, जैसा जैसा मोह क्षीण होता
जाता है, वैसा शुद्ध आत्मा ही उपादेय है, ऐसा रुचिरूप सम्यक्त्व होता है
prakāre ‘kākatālīy nyāyathī’ pāmīne paramāgamamān kahelā mārgathī mithyātvādi bhedothī bhinna
paramātmānī upalabdhi thavāthī, jem jem moh gaḷato jāy chhe tem tem ‘shuddha ātmā ja upādey
chhe’ evun ruchirūp samyaktva jīv pāme chhe, shuddha ātmā ane karmanā bhedagnānathī shuddha ātmāne
jāṇe chhe.
Page 144 of 565
PDF/HTML Page 158 of 579
single page version
स्वशुद्धात्मतत्त्वे तान् न योजयति संबद्धान्न करोतीति भावार्थः
कहते हैं
नैव ] सूक्ष्म भी नहीं है, और स्थूल भी नहीं है, [ज्ञानी ] ज्ञानस्वरूप है, [ज्ञानेन ] ज्ञानदृष्टिसे
[पश्यति ] देखा जाता है, अथवा ज्ञानी पुरुष योगी ही ज्ञानकर आत्माको जानता है
समझता है
svashuddhātmatattvamān yojato nathī ane sambaddha karato nathī. e bhāvārtha chhe. 86.
Page 145 of 565
PDF/HTML Page 159 of 579
single page version
नैव
वीतरागनिर्विकल्पसमाधिच्युतो बहिरात्मा स्वात्मनि योजयति तानेव तद्विपरीतभावनारतोऽन्तरात्मा
नपुंसकः स्त्री नापि ] पुरुष, नपुंसक, स्त्रीलिंगरूप भी नहीं है, [ज्ञानी ] ज्ञानस्वरूप हुआ
[अशेषम् ] समस्त वस्तुओंको ज्ञानसे [मनुते ] जानता है
हैं, और साक्षात् त्यागने योग्य हैं, उनको वीतरागनिर्विकल्पसमाधिसे रहित मिथ्यादृष्टि जीव अपने
जानता है, और उन्हींको मिथ्यात्वसे रहित सम्यग्दृष्टि जीव अपने नहीं समझता
chhe ane sākṣhāt hey chhe temane potānā ātmāmān joḍe chhe, tenāthī viparīt bhāvanāmān rat evo
antarātmā temane svashuddhātmasvarūpamān yojato nathī. e tātpayārtha chhe. 87.
Page 146 of 565
PDF/HTML Page 160 of 579
single page version
[एकः अपि ] कोई भी [लिंगी ] वेशका धारी [न ] नहीं है, अर्थात् एकदंडी, त्रिदंडी, हंस,
परमहंस, सन्यासी, जटाधारी, मुंडित, रुद्राक्षकी माला, तिलक, कुलक, घोष वगैरेः भेषोंमें कोई
भी भेषधारी नहीं है, एक [ज्ञानी ] ज्ञानस्वरूप है, उस आत्माको [योगी ] ध्यानी [मुनि ]
ध्यानारूढ़ होकर [जानाति ] जानता है, ध्यान करता है