Parmatma Prakash (Gujarati Hindi). Gatha: 78 (Adhikar 1).

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૧૩૪ ]
યોગીન્દુદેવવિરચિતઃ
[ અધિકાર-૧ઃ દોહા-૭૮
भगवान्ने कहा है, और जो उपयोग लक्षणरूप निजभावमें लिप्त रहे है वे स्वसमयरूप सम्यग्दृष्टि
है, ऐसा जानो
सारांश यह है, कि जो परपर्यायमें रत हैं, वे तो परसमय (मिथ्यादृष्टि) हैं और
जो आत्म-स्वभावमें लगे हुए हैं, वे स्वसमय (सम्यग्दृष्टि) हैं, मिथ्यादृष्टि नहीं है यहाँ पर
आत्मज्ञानरूपी वीतराग सम्यक्त्वसे पराङ्मुख जो मिथ्यात्व है, वह त्यागने योग्य है ।।७७।।
आगे मिथ्यात्वकर अनेक प्रकार उपार्जन किये कर्मोंसे यह जीव संसार-वनमें भ्रमता
है, उस कर्मशक्तिको कहते हैं
गाथा७८
अन्वयार्थ :[तानि कर्माणि ] वे ज्ञानावरणादि कर्म [ज्ञानविचक्षणं ] ज्ञानादि गुणसे
चतुर [जीवं ] इस जीवको [उत्पथे ] खोटे मार्गमें [पातयंति ] पटकते (डालते) हैं कैसे
हैं, वे कर्म [दृढघनचिक्कणानि ] बलवान हैं, बहुत हैं, विनाश करनेको अशक्य हैं, इसलिये
चिकने हैं, [गुरुकाणि ] भारी हैं, [वज्रसमानि ] और वज्रके समान अभेद्य हैं
भावार्थ :यह जीव एक समयमें लोकालोकके प्रकाशनेवाले केवलज्ञान आदिका
मिथ्यात्वं हेयमिति भावार्थः ।।७७।।
अथ मिथ्यात्वोपार्जितकर्मशक्तिं कथयति
७८) कम्मइँ दिढ-घण-चिक्कणइँ गरुवइँ वज्जसमाइँ
णाणवियक्खणु जीवडउ उप्पहि पाडहिँ ताइँ ।।७८।।
कर्माणि द्रढघनचिक्कणानि गुरुकाणि वज्रसमानि
ज्ञानविचक्षणं जीवं उत्पथे पातयन्ति तानि ।।७८।।
कम्मइं दिढघणचिक्कणइं गरुवइं वज्जसमाइं कर्माणि भवन्ति किंविशिष्टानि द्रढानि
बलिष्ठानि घनानि निबिडानि चिक्कणान्यपनेतुमशक्यानि विनाशयितुमशक्यानि गुरुकाणि महान्ति
લીન છે તેમને પરસમય કહેવામાં આવે છે, જે જીવો આત્મસ્વભાવમાં સ્થિત છે તે સ્વસમય
જાણવા.)
અહીં, સ્વસંવિત્તિરૂપ વીતરાગસમ્યક્ત્વથી પ્રતિપક્ષભૂત મિથ્યાત્વ હેય છે, એવો ભાવાર્થ
છે. ૭૭.
હવે, મિથ્યાત્વથી ઉપાર્જન કરવામાં આવેલાં કર્મની શક્તિનું કથન કરે છેઃ