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યોગીન્દુદેવવિરચિતઃ
[ અધિકાર-૧ઃ દોહા-૧૦૮
भणिदो णाणी य णिच्छदे धम्मं । अपरिग्गहो दु धम्मस्स जाणगो तेण सो होदि ।।’’ ।।१०७।।
अथ —
१०८) णाणिय णाणिउ णाणिएण णाणिउँ जा ण मुणेहि ।
ता अण्णाणिं णाणमउँ किं पर बंभु लहेहि ।।१०८।।
ज्ञानिन् ज्ञानी ज्ञानिना ज्ञानिनं यावत् न मन्यस्व ।
तावद् अज्ञानेन ज्ञानमयं किं परं ब्रह्म लभसे ।।१०८।।
णाणिय हे ज्ञानिन् णाणिउ ज्ञानी निजात्मा णाणिएण ज्ञानिना निजात्मना करणभूतेन ।
है, कि निज सिद्धांतमें परिग्रह रहित और इच्छा रहित ज्ञानी कहा गया है, जो धर्मको भी नहीं
चाहता है, अर्थात् जिसके व्यवहारधर्मकी भी कामना नहीं है, उसके अर्थ तथा कामकी इच्छा
कहाँसे होवे ? वह आत्मज्ञानी सब अभिलाषाओंसे रहित है, जिसके धर्मका भी परिग्रह नहीं
है, तो अन्य परिग्रह कहाँसे हो ? इसलिये वह ज्ञानी परिग्रही नहीं है, केवल निजस्वरूपका
जाननेवाला ही होता है ।।१०७।।
आगे ज्ञानसे ही परब्रह्मकी प्राप्ति होती है, ऐसा कहते हैं —
गाथा – १०८
अन्वयार्थ : — [ज्ञानिन् ] हे ज्ञानी [ज्ञानी ] ज्ञानवान् अपना आत्मा [ज्ञानिना ]
सम्यग्ज्ञान करके [ज्ञानिनं ] ज्ञान लक्षणवाले आत्माको [यावत् ] जब तक [न ] नहीं
[जानासि ] जानता, [तावद् ] तब तक [अज्ञानेन ] अज्ञानी होनेसे [ज्ञानमयं ] ज्ञानमय [परं
ब्रह्म ] अपने स्वरूपको [किं लभसे ] क्या पा सकता है ? कभी नहीं पा सकता । जो कोई
आत्माको पाता है, तो ज्ञानसे ही पा सकता है ।
भावार्थ : — जब तक यह जीव अपनेको आपकर अपनी प्राप्तिके लिये आपसे अपनेमें
य णिच्छदे धम्मं । अपरिग्गहो दु धम्मस्स जाणगो तेण सो होदि ।। [અર્થઃ — અનિચ્છકને અપરિગ્રહી
કહ્યો છે અને જ્ઞાની ધર્મને (પુણ્યને) ઇચ્છતો નથી, તેથી તે ધર્મનો પરિગ્રહી નથી, (ધર્મનો) જ્ઞાયક
જ છે.] ૧૦૭.
હવે, જ્ઞાનથી જ પરબ્રહ્મની પ્રાપ્તિ થાય છે, એમ કહે છેઃ —
ભાવાર્થ
ઃ — જ્યાં સુધી કર્તારૂપ આત્મા કર્મરૂપ આત્માને, કરણરૂપ આત્મા વડે,