मार्गः । अथवा साधको व्यवहारमोक्षमार्गः, साध्यो निश्चयमोक्षमार्गः । अत्राह शिष्यः । निश्चय-
मोक्षमार्गो निर्विकल्पः तत्काले सविकल्पमोक्षमार्गो नास्ति कथं साधको भवतीति । अत्र
परिहारमाह । भूतनैगमनयेन परंपरया भवतीति । अथवा सविकल्पनिर्विकल्पभेदेन निश्चय-
मोक्षमार्गो द्विधा, तत्रानन्तज्ञानरूपोऽहमित्यादि सविकल्परूपसाधको भवति, निर्विकल्प-
समाधिरूपो साध्यो भवतीति भावार्थः ।। सविकल्पनिर्विकल्पनिश्चयमोक्षमार्गविषये संवाद-
व्यवहारके बिना निश्चयकी प्राप्ति नहीं होती । यह कथन सुनकर शिष्यने प्रश्न किया कि हे
प्रभो; निश्चयमोक्ष – मार्ग जो निश्चयरत्नत्रय वह तो निर्विकल्प है, और व्यवहाररत्नत्रय विकल्प
सहित है, सो वह विकल्प – दशा निर्विकल्पपनेकी साधन कैसे हो सकती है ? इस कारण
उसको साधक मत कहो । अब इसका समाधान करते हैं । जो अनादिकालका यह जीव विषय
कषायोंसे मलिन हो रहा है, सो व्यवहार – साधनके बिना उज्ज्वल नहीं हो सकता, जब मिथ्यात्व
अव्रत कषायादिककी क्षीणतासे देव-गुरु-धर्मकी श्रद्धा करे, तत्त्वोंका जानपना होवे, अशुभ
क्रिया मिट जावे, तब गुरु वह अध्यात्मका अधिकारी हो सकता है । जैसे मलिन कपड़ा धोनेसे
रँगने योग्य होता है, बिना धोये रंग नहीं लगता, इसलिये परम्पराय मोक्षका कारण
व्यवहाररत्नत्रय कहा है । मोक्षका मार्ग दो प्रकारका है, एक व्यवहार, दूसरा निश्चय, निश्चय
तो साक्षात् मोक्ष – मार्ग है, और व्यवहार परम्पराय है । अथवा सविकल्प निर्विकल्पके भेदसे
निश्चयमोक्षमार्ग भी दो प्रकारका है । जो मैं अनंतज्ञानरूप हूँ, शुद्ध हूँ, एक हूँ, ऐसा ‘सोऽहं’
का चिंतवन है, वह तो सविकल्प निश्चय मोक्षमार्ग है, उसको साधक कहते हैं, और जहाँ
पर कुछ चिंतवन नहीं है, कुछ बोलना नहीं है, और कुछ चेष्टा नहीं है, वह निर्विकल्प-
समाधिरूप साध्य है, यह तात्पर्य हुआ । इसी कथनके बारेमें द्रव्यसंग्रहकी साक्षी देते हैं । ‘‘मा
चिट्ठह’’ इत्यादि । सारांश यह है, कि हे जीव, तू कुछ भी कायकी चेष्टा मत कर, कुछ बोल
भी मत, मौनसे रहे, और कुछ चिंतवन मत कर । सब बातोंको छोड, आत्मामें आपको लीन
कर, यह ही परमध्यान है । श्रीतत्त्वसारमें भी सविकल्प-निर्विकल्प निश्चयमोक्ष – मार्गके
આ કથન સાંભળીને અહીં શિષ્યે પ્રશ્ન કર્યો કે નિશ્ચયમોક્ષમાર્ગ તો નિર્વિકલ્પ છે, તે
સમયે (નિર્વિકલ્પ નિશ્ચયમોક્ષમાર્ગ વખતે તો) સવિકલ્પ મોક્ષમાર્ગ તો હોતો નથી. તો પછી
વ્યવહારમોક્ષમાર્ગ કેવી રીતે સાધક છે? અહીં પ્રશ્નનો પરિહાર કરે છેઃ — ભૂતનૈગમનયથી
પરંપરાએ (સાધક) છે. અથવા નિશ્ચયમોક્ષમાર્ગ સવિકલ્પ નિર્વિકલ્પના ભેદથી બે પ્રકારનો છે.
ત્યાં ‘હું અનંતજ્ઞાનરૂપ છું ઇત્યાદિ સવિકલ્પરૂપ સાધક છે અને નિર્વિકલ્પ સમાધિરૂપ સાધ્ય છે,
એવો ભાવાર્થ છે.’
સવિકલ્પ, નિર્વિકલ્પ નિશ્ચયમોક્ષમાર્ગના વિષયમાં આ જ અર્થની સાક્ષીભૂત (મેળવાળી)
અધિકાર-૨ઃ દોહા-૧૪ ]પરમાત્મપ્રકાશઃ [ ૨૨૫