અધિકાર-૨ઃ દોહા-૪૭ ]પરમાત્મપ્રકાશઃ [ ૨૯૫
सकलोऽज्ञानी जनः सा णिसि मणिवि सुवेइ तां रात्रिं मत्वा त्रिगुप्तिगुप्तः सन् वीतराग-
निर्विकल्पपरमसमाधियोगनिद्रायां स्वपिति निद्रां करोतीति । अत्र बहिर्विषये शयनमेवोपशमो
भण्यत इति तात्पर्यार्थः ।।४६❃१।।
अथ ज्ञानी पुरुषः परमवीतरागरूपं समभावं मुक्त्वा बहिर्विषये रागं न गच्छतीति
दर्शयति —
१७४) णाणि मुएप्पिणु भाउ समु कित्थु वि जाइ ण राउ ।
जेण लहेसइ णाणमउ तेण जि अप्प – सहाउ ।।४७।।
ज्ञानी मुक्त्वा भावं शमं क्वापि याति न रागम् ।
येन लभिष्यति ज्ञानमयं तेन एव आत्मस्वभावम् ।।४७।।
યોગી ત્રણ ગુપ્તિથી ગુપ્ત થયો થકો વીતરાગનિર્વિકલ્પ પરમસમાધિરૂપ યોગનિદ્રામાં સૂવે છે.
અહીં, બાહ્ય વિષયમાં શયનને જ ઉપશમ કહેવામાં આવેલ છે, એવો તાત્પર્યાર્થ
છે. ૪૬❃૧.
હવે, જ્ઞાની પુરુષ પરમ વીતરાગરૂપ સમભાવને છોડીને બાહ્ય વિષયમાં રાગ કરતા નથી,
એમ દર્શાવે છેઃ —
रहे हैं, उस अवस्थामें विभावपर्यायके स्मरण करनेवाले महामुनि सावधान (जागते) नहीं रहते ।
इसलिये संसारकी दशासे सोते हुए मालूम पड़ते हैं । जिनको आत्मस्वभावके सिवाय विषय –
कषायरूप प्रपंच मालूम भी नहीं है । उस प्रपंचको रात्रिके समान जानकर उसमें याद नहीं रखते,
मन, वचन, कायकी तीन गुप्तिमें अचल हुए वीतराग निर्विकल्प परम समाधिरूप योग – निद्रामें
मगन हो रहे हैं । सारांश यह है, कि ध्यानी मुनियोंको आत्मस्वरूप ही गम्य है, प्रपंच गम्य
नहीं है, और जगतके प्रपंची मिथ्यादृष्टि जीव, उनको आत्मस्वरूपकी गम्य (खबर) नहीं है,
अनेक प्रपंचोंमें (झगड़ोंमें) लगे हुए हैं । प्रपंचकी सावधानी रखनेको भूल जाना वही परमार्थ
है, तथा बाह्य विषयोंमें जाग्रत होना ही भूल है ।।४६❃१।।
आगे जो ज्ञानी पुरुष हैं, वे परमवीतरागरूप समभावको छोड़कर शरीरादि परद्रव्यमें राग
नहीं करते, ऐसा दिखलाते हैं —
गाथा – ४७
अन्वयार्थ : — [ज्ञानी ] निजपरके भेदका जाननेवाला ज्ञानी मुनि [शमं भावं ]
समभावको [मुक्त्वा ] छोड़कर [क्वापि ] किसी पदार्थ में [रागम् न याति ] राग नहीं करता,