Parmatma Prakash (Gujarati Hindi).

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अज्जउ आर्यः किं नामा सन्ति शान्तिः भणेइ भणति कथयति इति तथाहि
सम्यक्त्वपूर्वकदेवशास्त्रगुरुभक्त्या मुख्यवृत्त्या पुण्यमेव भवति न च मोक्षः अत्राह प्रभाकरभट्टः
यदि पुण्यं मुख्यवृत्त्या मोक्षकारणं न भवत्युपादेयं च न भवति तर्हि भरतसगररामपाण्डवादयोऽपि
निरन्तरं पञ्चपरमेष्ठिगुणस्मरणदानपूजादिना निर्भरभक्ताः सन्तः किमर्थं पुण्योपार्जनं कुर्युरिति
भगवानाह यथा कोऽपि रामदेवादिपुरुषविशेषो देशान्तरस्थितसीतादिस्त्रीसमीपागतानां पुरुषाणां
तदर्थं संभाषणदानसन्मानादिकं करोति तथा तेऽपि महापुरुषाः वीतरागपरमानन्दैकरूप-
અધિકાર-૨ઃ દોહા-૬૧ ]પરમાત્મપ્રકાશઃ [ ૩૨૧
पुण्य ही होता है, और परम्पराय मोक्ष होता है जो सम्यक्त्व रहित मिथ्यादृष्टि हैं, उनके भाव
-भक्ति तो नहीं है, लौकिक बाह्य भक्ति होती है, उससे पुण्यका ही बंध है, कर्मका क्षय नहीं
है
ऐसा कथन सुनकर श्रीयोगीन्द्रदेवसे प्रभाकरभट्टने प्रश्न किया हे प्रभो, जो पुण्य मुख्यतासे
मोक्षका कारण नहीं है, तो त्यागने योग्य ही है, ग्रहण योग्य नहीं है जो ग्रहण योग्य नहीं
है, तो भरत, सगर, राम, पांडवादिक महान् पुरुषोंने निरंतर पंचपरमेष्ठीके गुणस्मरण क्यों किये ?
और दान-पूजादि शुभ क्रियाओंसे पूर्ण होकर क्यों पुण्यका उपार्जन किया ? तब श्रीगुरुने उत्तर
दिया
कि जैसे परदेशमें स्थित कोई रामादिक पुरुष अपनी प्यारी सीता आदि स्त्रीके पाससे
आये हुए किसी मनुष्यसे बातें करता हैउसका सम्मान करता है, और दान करता है, ये
सब कारण अपनी प्रियाके हैं, कुछ उसके प्रसादके कारण नहीं है उसी तरह वे भरत, सगर,
राम, पांडवादि महान् पुरुष वीतराग परमानंदरूप मोक्षसे लक्ष्मीके सुख अमृतरसके प्यासे हुए
संसारकी स्थितिके छेदनके लिये विषय कषायकर उत्पन्न हुए आर्त रौद्र खोटे ध्यानोंके नाशका
कारण श्रीपंचपरमेष्ठीके गुणोंका स्मरण करते हैं, और दान पूजादिक करते हैं, परंतु उनकी दृष्टि
केवल निज परिणतिपर है, पर वस्तुपर नहीं है
पंचपरमेष्ठीकी भक्ति आदि शुभ क्रियाको
परिणत हुए तो भरत आदिक हैं, उनके बिना चाहे पुण्यप्रकृतिका आस्रव होता है जैसे
એવું કથન સાંભળીને પ્રભાકરભટ્ટ પૂછે છે કે જો પુણ્ય મુખ્યપણે મોક્ષનું કારણ નથી
અને ઉપાદેય નથી તો પછી ભરત, સગર, રામ, પાંડવાદિ પણ નિરંતર પંચપરમેષ્ઠીનાં ગુણ,
સ્મરણ, દાન, પૂજાદિથી નિર્ભર (અત્યંત) ભક્ત થઈને શા માટે પુણ્ય ઉપાર્જન કરતા હતા?
ભગવાન શ્રીયોગીન્દ્રદેવ કહે છે કેજેવી રીતે કોઈ રામદેવાદિ પુરુષવિશેષ
દેશાંતરમાં રહેલ સીતાદિસ્ત્રીની પાસેથી આવેલ પુરુષોનાં સીતાદિ અર્થે સંભાષણ, દાન,
સન્માનાદિક કરે છે તેવી રીતે તે મહાપુરુષો પણ વીતરાગ પરમાનંદ જ જેનું એક રૂપ
છે એવા મોક્ષલક્ષ્મીના સુખસુધારસના પિપાસુ થઈને સંસારસ્થિતિને છેદવાને કારણભૂત અને
વિષયકષાયથી ઉત્પન્ન દુર્ધ્યાનના વિનાશના હેતુભૂત એવા, પરમેષ્ઠીના ગુણસ્મરણ, દાન,
પૂજાદિક કરતા હતા.