Parmatma Prakash (Gujarati Hindi).

< Previous Page   Next Page >


Page 370 of 565
PDF/HTML Page 384 of 579

 

background image
૩૭૦ ]
યોગીન્દુદેવવિરચિતઃ
[ અધિકાર-૨ઃ દોહા-૯૧
मिथ्यात्वरागादिरूपः सचित्तः, द्रव्यकर्मनोकर्मरूपः पुनरचित्तः, द्रव्यकर्मभावकर्मरूपस्तु मिश्रः
वीतरागत्रिगुप्तसमाधिस्थपुरुषापेक्षया सिद्धरूपः सचित्तः पुद्गलादिपञ्चद्रव्यरूपः पुनरचित्तः,
गुणस्थानमार्गणास्थानजीवस्थानादिपरिणतः संसारी जीवस्तु मिश्रश्चेति
एवंविधबाह्याभ्यन्तर-
परिग्रहरहितं जिनलिङ्गं गृहीत्वापि ये शुद्धात्मानुभूतिविलक्षणमिष्टपरिग्रहं गृह्णन्ति ते
छर्दिताहारग्राहकपुरुषस
द्रशा भवन्तीति भावार्थः तथा चोक्त म्‘‘त्यक्त्वा स्वकीयपितृ-
मित्रकलत्रपुत्रान् सक्तोऽन्य गेहवनितादिषु निर्मुमुक्षुः दोर्भ्यां पयोनिधिसमुद्गतनक्रचक्रं प्रोत्तीर्य
गोष्पदजलेषु निमग्नवान् सः ।।’’ ।।९१।।
અચિત્ત પરિગ્રહ છે અને દ્રવ્યકર્મ, ભાવકર્મરૂપ મિશ્ર પરિગ્રહ છે. વીતરાગ ત્રણ ગુપ્તિથી ગુપ્ત
સમાધિસ્થ પુરુષની અપેક્ષાએ સિદ્ધરૂપ સચિત્ત પરિગ્રહ છે અને પુદ્ગલાદિ પાંચ દ્રવ્યરૂપ અચિત્ત
પરિગ્રહ છે અને ગુણસ્થાન, માર્ગણાસ્થાન, જીવસ્થાન આદિ રૂપે પરિણત સંસારી જીવ મિશ્ર
પરિગ્રહ છે. આ પ્રકારના બાહ્ય અભ્યંતર પરિગ્રહ રહિત જિનલિંગને ગ્રહીને પણ જેઓ શુદ્ધ
આત્માની અનુભૂતિથી વિલક્ષણ ઇષ્ટ પરિગ્રહનું ગ્રહણ કરે છે, તેઓ વમન કરેલા આહારને ગ્રહણ
કરનાર પુરુષ જેવા છે.
કહ્યું પણ છે કે‘‘त्यक्त्वा स्वकीयपितृमित्रकलत्रपुत्रान् सक्तोऽन्य गेहवनितादिषु निर्मुमुक्षुः दोर्भ्यों
पयोनिधिसमुद्गतनक्रचक्रं प्रोत्तीर्य गोष्पदजलेषु निमग्नवान् सः ।।’’
(અર્થજે નિર્મુમુક્ષુ પોતાનાં પિતા, મિત્ર, પત્ની અને પુત્રોને છોડીને અન્ય ઘરનાં
कमंडलु, पुस्तकादि सहित शिष्यादि अथवा साधुके भावोंकी अपेक्षा सचित्त परिग्रह मिथ्यात्व
रागादि, अचित परिग्रह द्रव्यकर्म, नोकर्म और मिश्र परिग्रह द्रव्यकर्म, भावकर्म दोनों मिले हुए
अथवा वीतराग त्रिगुप्तिमें लीन ध्यानी पुरुषकी अपेक्षा सचित्त परिग्रह सिद्धपरमेष्ठीका ध्यान,
अचित्त परिग्रह पुद्गलादि पाँच द्रव्यका विचार, और मिश्र परिग्रह गुणस्थान मार्गणास्थान
जीवसमासादिरूप संसारीजीवका विचार
इस तरह बाहिरके और अंतरके परिग्रहसे रहित जो
जिनलिंग उसे ग्रहण कर जो अज्ञानी शुद्धात्माकी अनुभूतिसे विपरीत परिग्रहको ग्रहण करते हैं,
वे वमन करके पीछे आहार करनेवालोंके समान निंदाके योग्य होते हैं
ऐसा दूसरी जगह भी
कहा है, कि जो जीव अपने माता, पिता, पुत्र, मित्र, कलत्र इनको छोड़कर परके घर और
पुत्रादिकमें मोह करते हैं, अर्थात् अपना परिवार छोड़कर शिष्य
शाखाओंमें राग करते हैं, वे
भुजाओंसे समुद्रको तैरके गायके खुरसे बने हुए गढ़ेके जलमें डूबते हैं, कैसा है समुद्र, जिसमें
जलचरोंके समूह प्रगट हैं, ऐसे अथाह समुद्रको तो बाहोंसे तिर जाता है, लेकिन गायके खुरके
जलमें डूबता है
यह बड़ा अचंभा है घरका ही संबंध छोड़ दिया तो पराये पुत्रोंसे क्या राग
करना ? नहीं करना ।।९१।।