Parmatma Prakash (Gujarati Hindi).

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અધિકાર-૨ઃ દોહા-૧૩૫ ]પરમાત્મપ્રકાશઃ [ ૪૪૧
સમાધિના બળથી રાગાદિના ત્યાગ વડે ચિત્તશુદ્ધિ કરવી જોઈએ. જેણે ચિત્તશુદ્ધિ ન કરી તે
આત્મવંચક છે. વળી, કહ્યું પણ છે કે
‘‘चित्ते बद्धे बद्धो मुक्के मुक्को त्ति णत्थि संदेहो अप्पा
विमलसहावो मइलिज्जइ मइलिए चित्ते’’ (અર્થચિત્ત બંધાતાં (ચિત્ત ધન, ધાન્યાદિ પરિગ્રહમાં
આસક્ત થતાં) બંધાય છે, અને ચિત્ત પરિગ્રહથી, આશાતૃષ્ણાથી અલગ થતાં, મૂકાય છે, એમાં
સંદેહ નથી. આત્મા વિમળસ્વભાવી છે પણ તે ચિત્ત મલિન થતાં મલિન થાય છે. ૧૩૫.)
અહીં, પાંચ ઇન્દ્રિયોનો વિજય દર્શાવે છેઃ
किम् तवयरणु बाह्याभ्यन्तरतपश्चरणम् किं कृत्वा णिम्मलु चित्तु करेवि काम-
क्रोधादिरहितं वीतरागचिदानन्दैकसुखामृततृप्तं निर्मलं चित्तं कृत्वा अप्पा वंचिउ तेण पर
आत्मा वञ्चितः तेन परं नियमेन किं कृत्वा लहेवि लब्ध्वा किम् माणुसजम्म
मनुष्यजन्मेति तथाहि दुर्लभपरंपरारूपेण मनुष्यभवे लब्धे तपश्चरणेऽपि, च
निर्विकल्पसमाधिबलेन रागादिपरिहारेण चित्तशुद्धिः कर्तव्येति येन चित्तशुद्धिर्न कृता स
आत्मवञ्चक इति भावार्थः तथा चोक्त म्‘‘चित्ते बद्धे बद्धो मुक्के मुक्को त्ति णत्थि
संदेहो अप्पा विमलसहावो मइलिज्जइ मइलिए चित्ते ।।’’ ।।१३५।।
अत्र पञ्चेन्द्रियविजयं दर्शयति
और क्रोधादि रहित वीतराग चिदानंद सुखरूपी अमृतकर प्राप्त अपना निर्मल चित्त करके
अनशनादि तप न किया, वह आत्मघाती है, अपने आत्माका ठगनेवाला है
एकेंद्री पर्यायसे
विकलत्रय होना दुर्लभ है, विकलत्रयसे असैनी पंचेंद्री होना, असैनी पंचेंद्रियसे सैनी होना, सैनी
तिर्यंचसे मनुष्य, होना दुर्लभ है
मनुष्यमें भी आर्यक्षेत्र, उत्तमकुल, दीर्घ आयु, सतसंग,
धर्मश्रवण, धर्मका धारण और उसे जन्मपर्यन्त निभाना ये सब बातें दुर्लभ हैं, सबसे दुर्लभ
(कठिन) आत्मज्ञान है, जिससे कि चित्त शुद्ध होता है
ऐसी महादुर्लभ मनुष्यदेह पाकर
तपश्चरण अंगीकार करके निर्विकल्प समाधिके बलसे रागादिका त्याग कर परिणाम निर्मल
करने चाहिये, जिन्होंने चित्तको निर्मल नहीं किया, वे आत्माको ठगनेवाले हैं
ऐसा दूसरी जगह
भी किया है, कि चित्तके बँधनसे यह जीव कर्मोंसे बँधता है जिनका चित्त परिग्रहसे धन
धान्यादिकसे आसक्त हुआ, वे ही कर्मबंधनसे बँधते हैं, और जिनका चित्त परिग्रहसे छूटा आशा
(तृष्णा) से अलग हुआ, वे ही मुक्त हुए
इसमें संदेह नहीं है यह आत्मा निर्मल स्वभाव
है, सो चित्तके मैले होनेसे मैला होता है ।।१३५।।
आगे पाँच इंद्रियोंका जीतना दिखलाते हैं
૧. અનગાર ધર્મામૃત અધ્યાય ૬, ગાથા ૪૧ની સંસ્કૃત ટીકામાં આ શ્લોક છે.
स = स आत्मा