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યોગીન્દુદેવવિરચિતઃ
[ અધિકાર-૨ઃ દોહા-૧૪૩
ચતુષ્ટયસહિત, ક્ષુધાદિ અઢાર દોષ રહિત જિનસ્વામી કે જે પરમ-આરાધ્ય છે. (૨) ‘સમ્યક્ત્વ’
શબ્દથી નિશ્ચયથી શુદ્ધાત્માનુભૂતિલક્ષણ વીતરાગ-સમ્યક્ત્વ અને વ્યવહારથી વીતરાગ સર્વજ્ઞપ્રણીત
સત્દ્રવ્યાદિના શ્રદ્ધાનરૂપ સરાગ સમ્યક્ત્વ, એમ ભાવાર્થ છે. [जिणु सामिउ सम्मतु] ને બદલે
‘शिवसंगमु सम्मत्तु [(૧) શિવનો સંગ અને (૨) સમ્યક્ત્વ] એ પાઠાન્તરમાં તે જ જિનસ્વામી
જ) ‘શિવ’ શબ્દથી વાચ્ય છે, બીજો કોઈ પુરુષ વિશેષ નહિ. ૧૪૩.
किम् । जिणु सामिउ सम्मत्तु अनन्तज्ञानादिचतुष्टयसहितः क्षुधाद्यष्टादशदोषरहितो जिनस्वामी
परमाराध्यः ‘सिवसंगमु सम्मत्तु’ इति पाठान्तरे स एव शिवशब्दवाच्यो न चान्यः पुरुषविशेषः,
सम्यक्त्वशब्देन तु निश्चयेन शुद्धात्मानुभूतिलक्षणं वीतरागसम्यक्त्वम्, व्यवहारेण तु
वीतरागसर्वज्ञप्रणीतसद्द्रव्यादिश्रद्धानरूपं सरागसम्यक्त्वं चेति भावार्थः ।।१४३।।
सब पाये, परंतु ये दो वस्तुयें न मिलीं, एक तो सम्यग्दर्शन न पाया, दूसरे श्रीजिनराजस्वामी
न पाये । यह जीव अनादिका मिथ्यादृष्टी है, और क्षुद्र देवोंका उपासक है । श्रीजिनराज
भगवान्की भक्ति इसके कभी नहीं हुई, अन्य देवोंका उपासक हुआ सम्यग्दर्शन नहीं हुआ ।
यहाँ कोई प्रश्न करे, कि अनादिका मिथ्यादृष्टी होनेसे सम्यक्त्व नहीं उत्पन्न हुआ, यह तो ठीक
है, परन्तु जिनराजस्वामी न पाये, ऐसा नहीं हो सकता ? क्योंकि ‘‘भवि भवि जिण पुज्जिउ
वंदिउ’’ ऐसा शास्त्रका वचन है, अर्थात् भव भवमें इस जीवने जिनवर पूजे और गुरू वंदे ।
परंतु तुम कहते हो, कि इस जीवने भव – वनमें भ्रमते जिनराजस्वामी नहीं पाये, उसका
समाधान — जो भाव – भक्ति इसके कभी न हुई, भाव – भक्ति तो सम्यग्दृष्टीके ही होती है, और
बाह्यलौकिकभक्ति इसके संसारके प्रयोजनके लिये हुई वह गिनतीमें नहीं । ऊ परकी सब बातें
निःसार (थोथी) हैं, भाव ही कारण होते हैं, सो भाव – भक्ति मिथ्यादृष्टीके नहीं होती । ज्ञानी
जीव ही जिनराजके दास हैं, सो सम्यक्त्व बिना भाव – भक्ति मिथ्यादृष्टीके नहीं होती । ज्ञानी
जीव ही जिनराजके दास हैं, सो सम्यक्त्व बिना भाव – भक्तिके अभावसे जिनस्वामी नहीं पाये,
इसमें संदेह नहीं है । जो जिनवरस्वामीको पाते, तो उसीके समान होते, ऊ परी लोग – दिखावारूप
भक्ति हुई, तो किस कामकी, यह जानना । अब श्रीजिनदेवका और सम्यग्दर्शनका स्वरूप
सुनो । अनंत ज्ञानादि चतुष्टय सहित और क्षुधादि अठारह दोष रहित हैं । वे जिनस्वामी हैं, वे
ही परम आराधने योग्य हैं, तथा शुद्धात्मज्ञानरूप निश्चयसम्यक्त्व (वीतराग सम्यक्त्व) अथवा
वीतराग सर्वज्ञदेवके उपदेशे हुए षट् द्रव्य, सात तत्त्व, नौ पदार्थ और पाँच अस्तिकाय उनका
श्रद्धानरूप सराग सम्यक्त्व यह निश्चय व्यवहार दो प्रकारका सम्यक्त्व है । निश्चयका नाम
वीतराग है, व्यवहारका नाम सराग है । एक तो चौथे पदका यह अर्थ है, और दूसरे ऐसा
‘‘सिवसंगमु सम्मत्तु’’ इसका अर्थ ऐसा है, कि शिव जो जिनेन्द्रदेव उनका संगम अर्थात् भाव –