Parmatma Prakash (Gujarati Hindi).

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भेदाभेदरत्नत्रयभावनाप्रियाः परमात्मभावनोत्थवीतरागपरमानन्दसुधारसपिपासिता वीतराग-
निर्विकल्पसमाधिसमुत्पन्नसुखामृतविपरीतनारकादिदुःखभयभीता भव्यवरपुण्डरीका भरत-सगर-राम
-पाण्डव-श्रेणिकादयोऽपि वीतरागसर्वज्ञतीर्थंकरपरमदेवानां समवसरणे सपरिवारा भक्ति -
भरनमितोत्तमाङ्गाः सन्तः सर्वागमप्रश्नानन्तरं सर्वप्रकारोपादेयं शुद्धात्मानं पृच्छन्तीति
अत्र
त्रिविधात्मस्वरूपमध्ये शुद्धात्मस्वरूपमुपादेयमिति भावार्थः ।।११।।
પરમાનંદરૂપ સુધારસના પિપાસુ, વીતરાગ નિર્વિકલ્પ સમાધિથી સમુત્પન્ન સુખામૃતથી વિપરીત,
નારકાદિ દુઃખથી ભયભીત, ભવ્યોમાં મહા શ્રેષ્ઠ ભરત, સગર, રામચંદ્ર, પાંડવ, શ્રેણિક, વગેરે
પણ પરિવાર સહિત, વીતરાગ સર્વજ્ઞ તીર્થંકર પરમદેવના સમવસરણમાં અત્યંત ભક્તિભાવથી
મસ્તક નમાવતા સર્વ આગમોના પ્રશ્નો કર્યા પછી, સર્વ પ્રકારે ઉપાદેયભૂત શુદ્ધ આત્માનું સ્વરૂપ
જ પૂછતાં હતાં.
અહીં ત્રણ પ્રકારના આત્માના સ્વરૂપમાંથી શુદ્ધ આત્માનું સ્વરૂપ ઉપાદેય છે એવો ભાવાર્થ
છે. ૧૧.
અધિકાર-૧ઃ દોહા ૧૧ ]પરમાત્મપ્રકાશઃ [ ૩૩
रामचंद्र, बलभद्र, पांडव तथा श्रेणिक आदि : बड़े बड़े राजा, जिनके भक्ति-भारकर नम्रीभूत
मस्तक हो गये हैं, महा विनयवाले परिवारसहित समोसरणमें आके, वीतराग सर्वज्ञ परमदेवसे
सर्व आगमका प्रश्नकर, उसके बाद सब तरहसे ध्यान करने योग्य शुद्धात्माका ही स्वरूप पूछते
थे
उसके उत्तरमें भगवन्ने यही कहा, कि आत्म-ज्ञानके समान दूसरा कोई सार नहीं है
भरतादि बड़े बड़े श्रोताओंमेंसे भरतचक्रवर्तीने श्रीऋषभदेव भगवानसे पूछा, सगरचक्रवर्तीने श्री
अजितनाथसे, रामचंद्र बलभद्रने देशभूषण कुलभूषण केवलीसे तथा सकलभूषण केवलीसे,
पांडवोंने श्रीनेमिनाथभगवान्से और राजा श्रेणिकने श्रीमहावीरस्वामीसे पूछा
कैसे हैं ये श्रोता
जिनको निश्चयरत्नत्रय और व्यवहाररत्नत्रयकी भावना प्रिय है, परमात्माकी भावनासे उत्पन्न
वीतराग परमानंदरूप अमृतरसके प्यासे हैं, और वीतराग निर्विकल्पसमाधिकर उत्पन्न हुआ जो
सुखरूपी अमृत उससे विपरीत जो नारकादि चारों गतियोंके दुःख, उनसे भयभीत हैं
जिस
तरह इन भव्य जीवोंने भगवंतसे पूछा, और भगवंतने तीन प्रकार आत्माका स्वरूप कहा, वैसे
ही मैं जिनवाणीके अनुसार तुझे कहता हूँ
सारांश यह हुआ, कि तीन प्रकार आत्माके स्वरूपोंसे
शुद्धात्म स्वरूप जो निज परमात्मा वही ग्रहण करने योग्य है जो मोक्षका मूलकारण रत्नत्रय
कहा है, वह मैंने निश्चयव्यवहार दोनों तरहसे कहा है, उसमें अपने स्वरूपका श्रद्धान, स्वरूपका
ज्ञान और स्वरूपका ही आचरण यह तो निश्चयरत्नत्रय है, इसीका दूसरा नाम अभेद भी है,
और देव-गुरु-धर्मकी श्रद्धा, नवतत्वोंकी श्रद्धा, आगमका ज्ञान तथा संयम भाव ये
व्यवहाररत्नत्रय हैं, इसीका नाम भेदरत्नत्रय है
इनमेंसे भेदरत्नत्रय तो साधन हैं और
अभेदरत्नत्रय साध्य हैं ।।११।।