Parmatma Prakash (Gujarati Hindi).

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वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानेन कं जानीहि यं परात्मस्वभावम् किंविशिष्टम् ज्ञानमयं
केवलज्ञानेन निर्वृत्तमिति अत्र योऽसौ स्वसंवेदनज्ञानेन परमात्मा ज्ञातः स एवोपादेय इति
भावार्थः स्वसंवेदनज्ञाने वीतरागविशेषणं किमर्थमिति पूर्वपक्षः, परिहारमाहविषयानुभव-
અધિકાર-૧ઃ દોહા-૧૨ ]પરમાત્મપ્રકાશઃ [ ૩૫
अवस्थाके निषेधके लिये वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान ऐसा कहा है रागभाव है, वह कषायरूप
है, इस कारण जबतक मिथ्यादृष्टिके अनंतानुबंधीकषाय है, तबतक तो बहिरात्मा है, उसके तो
स्वसंवेदन ज्ञान अर्थात् सम्यक्ज्ञान सर्वथा ही नहीं है, व्रत और चतुर्थ गुणस्थानमें सम्यग्दृष्टिके
मिथ्यात्व तथा अनंतानुबंधीके अभाव होनेसे सम्यग्ज्ञान तो हो गया, परंतु कषायकी तीन चौकड़ी
बाकी रहनेसे द्वितीयाके चंद्रमाके समान विशेष प्रकाश नहीं होता, और श्रावकके पाँचवें
गुणस्थानमें दो चौकड़ीका अभाव है, इसलिये रागभाव कुछ कम हुआ, वीतरागभाव बढ़ गया,
इस कारण स्वसंवेदनज्ञान भी प्रबल हुआ, परंतु दो चौकड़ीके रहनेसे मुनिके समान प्रकाश नहीं
हुआ
मुनिके तीन चौकड़ीका अभाव है, इसलिये रागभाव तो निर्बल हो गया, तथा वीतरागभाव
प्रबल हुआ, वहाँपर स्वसंवेदनज्ञानका अधिक प्रकाश हुआ, परंतु चौथी चौकड़ी बाकी है,
इसलिये छट्ठे गुणस्थानवाले मुनिराज सरागसंयमी हैं
वीतरागसंयमीके जैसा प्रकाश नहीं है
सातवें गुणस्थानमें चौथी चौकड़ी मंद हो जाती है, वहाँपर आहार-विहार क्रिया नहीं होती, ध्यानमें
आरूढ़ रहते हैं, सातवेंसे छठे गुणस्थानमें आवें, तब वहाँपर आहारादि क्रिया है, इसी प्रकार
छट्ठा सातवाँ करते रहते हैं, वहाँपर अंतर्मुहूर्तकाल है
आठवें गुणस्थानमें चौथी चौकड़ी अत्यंत
मंद होजाती है, वहाँ रागभावकी अत्यंत क्षीणता होती है, वीतरागभाव पुष्ट होता है,
स्वसंवेदनज्ञानका विशेष प्रकाश होता है, श्रेणी माँडनेसे शुक्लध्यान उत्पन्न होता है
श्रेणीके दो
भेद हैं, एक क्षपक, दूसरी उपशम, क्षपकश्रेणीवाले तो उसी भवसे केवलज्ञान पाकर मुक्त हो
जाते हैं, और उपशमवाले आठवें नवमें दशवेंसे ग्यारहवाँ स्पर्शकर पीछे पड़ जाते हैं, सो कुछ
एक भव भी धारण करते हैं, तथा क्षपकवाले आठवेंसे नवमें गुणस्थानमें प्राप्त होते हैं, वहाँ
कषायोंका सर्वथा नाश होता है, एक संज्वलनलोभ रह जाता है, अन्य सबका अभाव होनेसे
वीतराग भाव अति प्रबल हो जाता है, इसलिये स्वसंवेदनज्ञानका बहुत ज्यादा प्रकाश होता है,
परंतु एक संज्वलनलोभ बाकी रहनेसे वहाँ सरागचरित्र ही कहा जाता है
दशवें गुणस्थानमें
सूक्ष्मलोभ भी नहीं रहता, तब मोहकी अट्ठाईस प्रकृतियोंके नष्ट हो जानेसे वीतरागचारित्र की
सिद्धि हो जाती है
दशवेंसे बारहवेंमें जाते हैं, ग्यारहवें गुणस्थानका स्पर्श नहीं करते, वहाँ निर्मोह
પૂર્વપક્ષ :::::સ્વસંવેદનજ્ઞાનને ‘વીતરાગ’ વિશેષણ શા માટે લગાડ્યું છે?
તેનું સમાધાાન :વિષયોના અનુભવરૂપ સ્વસંવેદનજ્ઞાન સરાગ પણ જોવામાં આવે છે
તેથી તેના નિષેધ અર્થે ‘વીતરાગ’ એવું વિશેષણ જ્ઞાનને લગાડ્યું છે એવો અભિપ્રાય છે. ૧૨.