Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
শ্রী দিগংবর জৈন স্বাধ্যাযমংদির ট্রস্ট, সোনগঢ - ৩৬৪২৫০
৩৫৬ ]যোগীন্দুদেববিরচিত: [ অধিকার-২ : দোহা-৮৩
जो ण हणेइ वियप्पु यः कर्ता शास्त्राभ्यासफ लभूतस्य रागादिविकल्परहितस्य निजशुद्धात्मस्व-
भावस्य प्रतिपक्षभूतं मिथ्यात्वरागादिविकल्पं न हन्ति । न केवलं विकल्पं न हन्ति । देहि वसंतु
वि देहे वसन्तमपि णिम्मलउ निर्मलं कर्ममलरहितं णवि मण्णइ नैव मन्यते न श्रद्धत्ते । कम् ।
परमप्पु निजपरमात्मानमिति । अत्रेदं व्याख्यानं ज्ञात्वा त्रिगुप्तसमाधिं कृत्वा च स्वयं भावनीयम् ।
यदा तु त्रिगुप्तिगुप्तसमाधिं कर्तुं नायाति तदा विषयकषायवञ्चनार्थं शुद्धात्मभावनास्मरण-
द्रढीकरणार्थं च बहिर्विषये व्यवहारज्ञानवृद्धयर्थं च परेषां कथनीयं किंतु तथापि
परप्रतिपादनव्याजेन मुख्यवृत्त्या स्वकीयजीव एव संबोधनीयः । कथमिति चेत् । इदमनुपपन्नमिदं
व्याख्यानं न भवति मदीयमनसि यदि समीचीनं न प्रतिभाति तर्हि त्वमेव स्वयं किं न
भावयतीति तात्पर्यम् ।।८३।।
বিকল্পথী রহিত নিজশুদ্ধাত্মস্বভাবনী প্রাপ্তি ছে এবা নিজশুদ্ধাত্মস্বভাবথী প্রতিপক্ষভূত
মিথ্যাত্ব, রাগাদি বিকল্পনো নাশ করতো নথী. মাত্র বিকল্পনো নাশ করতো নথী এটলুং জ
নহি, পণ দেহমাং রহেবা ছতাং পণ নির্মল-কর্মমল রহিত-নিজ পরমাত্মানে শ্রদ্ধতো নথী, তে
জড – মূর্খছে.
অহীং, আ ব্যাখ্যান জাণীনে অনে ত্রণগুপ্তিযুক্ত সমাধি করীনে পোতানে জ ভাববো,
অনে জ্যারে ত্রণ গুপ্তিথী গুপ্ত সমাধি করবানুং ন বনে ত্যারে বিষযকষাযনী বংচনা অর্থে
(বিষয কষাযনে ছোডবা মাটে) অনে শুদ্ধ আত্মানী ভাবনানুং স্মরণ দ্রঢ করবা মাটে অনে
বহির্বিষযমাং ব্যবহারজ্ঞাননী বৃদ্ধি অর্থে বীজা জীবোনে ধর্মোপদেশ আপবো, তেম ছতাং পণ
পরনে উপদেশবানা বহানা দ্বারা মুখ্যপণে স্বকীয জীব জ সংবোধবো. কেবী রীতে? তে আ
প্রমাণে : — আ যোগ্য নথী; আ গাথানুং ব্যাখ্যান মারা মনমাং বস্যুং নথী; জো সমীচীন
পণে (বরাবর সারী রীতে, যোগ্য রীতে) প্রতিভাসতুং নথী, তো তমে পণ স্বযং তেনো বিচার
করো. আবুং তাত্পর্য ছে. ৮৩.
और निज शुद्धात्माको ध्यावना । इसलिए इस व्याख्यानको जानकर तीन गुप्तिमें अचल हो
परमसमाधिमें आरूढ़ होके निजस्वरूपका ध्यान करना । लेकिन जबतक तीन गुप्तियाँ न हों,
परमसमाधि न आवे, (हो सके) तबतक विषय कषायोंके हटानेके लिये शुद्धात्मस्मरण
भावनाके दृढीकरण हेतु परजीवोंको धर्मोपदेश देना, उसमें भी परके उपदेशके बहानेसे
मुख्यताकर अपना जीव हीको संबोधना । वह इस तरह है, कि परको उपदेश देते अपनेको
समझावे । जो मार्ग दूसरोंको छुड़ावे, वह आप कैसे करे । इससे मुख्य संबोधन अपना ही है ।
परजीवोंको ऐसा ही उपदेश है, जो यह बात मेरे मनमें अच्छी नहीं लगती, तो तुमको भी भली
नहीं लगती होगी, तुम भी अपने मनमें विचार करो ।।८३।।