Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
শ্রী দিগংবর জৈন স্বাধ্যাযমংদির ট্রস্ট, সোনগঢ - ৩৬৪২৫০
৩৭৪ ]যোগীন্দুদেববিরচিত: [ অধিকার-২ : দোহা-৯৪
न जानातीति तात्पर्यम् ।।९३।।
ग्रन्थेनात्मानं महान्तं मन्यमानः सन् परमार्थं कस्मान्न जानातीति चेत् —
२२१) बुज्झंतहँ परमत्थु जिय गुरु लहु अत्थि ण कोइ ।
जीवा सयल वि बंभु परु जेण वियाणइ सोइ ।।९४।।
बुध्यमानानां परमार्थं जीव गुरुः लघुः अस्ति न कोऽपि ।
जीवाः सकला अपि ब्रह्म परं येन विजानाति सोऽपि ।।९४।।
बुध्यमानानाम् । कम् । परमार्थम्, हे जीव गुरुत्वं लघुत्वं वा नास्ति । कस्मान्नास्ति ।
जीवाः सर्वेऽपि परमब्रह्मस्वरूपाः तदपि कस्मात् । येन कारणेन ब्रह्मशब्दवाच्यो मुक्त ात्मा
केवलज्ञानेन सर्वं जानाति यथा तथा निश्चयनयेन सोऽप्येको विवक्षितो जीवः संसारी सर्वं
जानातीत्यभिप्रायः ।।९४।। एवमेकचत्वारिंशत्सूत्रप्रमितमहास्थलमध्ये परिग्रहपरित्यागव्याख्यानमुख्य-
হবে, শিষ্য প্রশ্ন করে ছে কে পরিগ্রহথী আত্মানে মহান মানতো জীব পরমার্থনে কেম
জাণতো নথী? (তেনুং সমাধান আচার্য করে ছে)
এবী রীতে একতালীস সূত্রোনা মহাস্থলমাং পরিগ্রহত্যাগনা কথননী মুখ্যতাথী আঠ
आगे शिष्य प्रश्न करता है, कि जो ग्रंथसे अपनेको महंत मानता है, वह परमार्थको
क्यों नहीं जानता ? इसका समाधान आचार्य करते हैं —
गाथा – ९४
अन्वयार्थ : — [जीव ] हे जीव, [परमार्थं ] परमार्थको [बुध्यमानानां ] समझनेवालोंके
[कोऽपि ] कोई जीव [गुरुः लघुः ] बड़ा छोटा [न अस्ति ] नहीं है, [सकला अपि ] सभी
[जीवाः ] जीव [परब्रह्म ] परब्रह्मस्वरूप हैं, [येन ] क्योंकि निश्चयनयसे [सोऽपि ] वह
सम्यग्दृष्टि शुद्धरूप ही [विजानाति ] सबको जानता है ।
भावार्थ : — जो परमार्थको नहीं जानता, वह परिग्रहसे गुरुता समझता है, और परिग्रहके
न होनेसे लघुपना जानता है, यही भूल है । यद्यपि गुरुता-लघुता कर्मके आवरणसे जीवोंमें पायी
जाती है, तो भी शुद्धनयसे सब समान हैं, तथा ब्रह्म अर्थात् सिद्धपरमेष्ठी केवलज्ञानसे सबको
जानते हैं, सबको देखते हैं, उसी प्रकार निश्चयनयसे सम्यग्दृष्टि सब जीवोंको शुद्धरूप ही देखता
है ।।९४।।
इस तरह इकतालीस दोहोंके महास्थलमें परिग्रह त्यागके व्याख्यानकी मुख्यतासे आठ