Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Bengali transliteration).

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Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
শ্রী দিগংবর জৈন স্বাধ্যাযমংদির ট্রস্ট, সোনগঢ - ৩৬৪২৫০
৩৯৮ ]যোগীন্দুদেববিরচিত: [ অধিকার-২ : দোহা-১০৮
परु जाणंतु वि इत्यादि पदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते परु जाणंतु वि परद्रव्यं
जानन्तोऽपि के ते परम-मुणि वीतरागस्वसंवेदनज्ञानरताः परममुनयः किं कुर्वन्ति पर-
संसग्गु चयंति परसंसर्गं त्यजन्ति निश्चयेनाभ्यन्तरे रागादिभावकर्मज्ञानावरणादिद्रव्यकर्मशरीरादि-
नोकर्म च बहिर्विषये मिथ्यात्वरागादिपरिणतासंवृतजनोऽपि परद्रव्यं भण्यते
तत्संसर्गं परिहरन्ति
यतः कारणात् पर-संगइँ [?] पूर्वोक्त बाह्याभ्यन्तर परद्रव्यसंसर्गेण परमप्पयहं वीतराग-
नित्यानन्दैकस्वभावपरमसमरसीभावपरिणतपरमात्मतत्त्वस्य
कथंभूतस्य लक्खहं लक्ष्यस्य
ध्येयभूतस्य धनुर्विद्याभ्यासप्रस्तावे लक्ष्यरूपस्यैव जेण चलंति येन कारणेन चलन्ति त्रिगुप्तिसमाधेः
सकाशात् च्युता भवन्तीति
अत्र परमध्यानाविघातकत्वान्मिथ्यात्वरागादिपरिणामस्तत्परिणतः
पुरुषरूपो वा परसंसर्गस्त्यजनीय इति भावार्थः ।।१०८।।
ভাবার্থ:বীতরাগ স্বসংবেদনজ্ঞানমাং রত পরমমুনিও পরদ্রব্যনে জাণতা থকা
পরসংসর্গনে ছোডে ছেনিশ্চযথী অভ্যংতরমাং রাগাদি ভাবকর্ম, জ্ঞানাবরণাদি দ্রব্যকর্ম অনে শরীরাদি
নোকর্ম তথা বহারমাং মিথ্যাত্ব, রাগাদিরূপে পরিণত অসংবৃতজন (অসংযমী জীব) এ বধুং পরদ্রব্য
কহেবায ছে, তেনো সংগ ছোডে ছে; কারণ কে জেবী রীতে ধনুর্বিদ্যানা অভ্যাস সমযে বীজে লক্ষ জতাং,
ধনুর্ধারী লক্ষ্যরূপথী চলিত থায ছে তেবী রীতে মুনিও পূর্বোক্ত বাহ্য, অভ্যংতর পরদ্রব্যনা সংসর্গথী
ধ্যেযভূত, বীতরাগনিত্যানংদ জ জেনো এক স্বভাব ছে এবা পরমসমরসী ভাবরূপে পরিণত
পরমাত্মতত্ত্বথী চলিত থায ছে
ত্রণ গুপ্তিযুক্ত সমাধিথী চ্যুত থায ছে.
অহীং, পরমধ্যাননা বিঘাতক হোবাথী মিথ্যাত্ব, রাগাদি পরিণামরূপ অথবা
মিথ্যাত্ব রাগাদি পরিণামোমাং পরিণত পুরুষরূপ এবো পরসংসর্গ ছোডবা যোগ্য ছে, এবো ভাবার্থ
ছে. ১০৮.
[त्यजंति ] छोड़ देते हैं [येन ] क्योंकि [परसंगेन ] परद्रव्यके सम्बन्धसे [लक्ष्यस्य ] ध्यान
करने योग्य जो [परमात्मनः ] परमपद उससे [चलंति ] चलायमान हो जाते हैं
भावार्थ :शुद्धोपयोगी मुनि वीतराग स्वसंवेदनज्ञानमें लीन हुए परद्रव्योंके साथ
सम्बन्ध छोड़ देते हैं अंदरके विकार रागादि भावकर्म और बाहरके शरीरादि ये सब परद्रव्य
कहे जाते हैं वे मुनिराज एक आत्मभावके सिवाय सब परद्रव्यका संसर्ग (सम्बन्ध) छोड़
देते हैं तथा रागी, द्वेषी, मिथ्यात्वी, असंयमी जीवोंका सम्बन्ध छोड़ देते हैं इनके संसर्गसे
परमपद जो वीतरागनित्यानंद अमूर्तस्वभाव परमसमरसीभावरूप जो परमात्मतत्त्व ध्यावने योग्य
है, उससे चलायमान हो जाते हैं, अर्थात् तीन गुप्तिरूप परमसमाधिसे रहित हो जाते हैं
यहाँ
पर परमध्यानके घातक जो मिथ्यात्व रागादि अशुद्ध परिणाम तथा रागी-द्वेषी पुरुषोंका संसर्ग
सर्वथा त्याग करना चाहिये, यह सारांश है
।।१०८।।