Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
শ্রী দিগংবর জৈন স্বাধ্যাযমংদির ট্রস্ট, সোনগঢ - ৩৬৪২৫০
৪৯২ ]যোগীন্দুদেববিরচিত: [ অধিকার-২ : দোহা-১৬৮
पात्राणां ण वि पुज्जिउ जलधारया सह गन्धाक्षतपुष्पाद्यष्टविधपूजया न पूजितः । कोऽसौ ।
जिण-णाहु देवेन्द्रधरणेन्द्रनरेन्द्रपूजितः केवलज्ञानाद्यनन्तगुणपरिपूर्णः पूज्यपदस्थितो जिननाथः पंच
ण वंदिय पञ्च न वन्दिताः । के ते । परम-गुरू त्रिभुवनाधीशवन्द्यपदस्थिता अर्हत्सिद्धाः
त्रिभुवनेशवन्द्यमोक्षपदाराधकाः आचार्योपाध्यायसाधवश्चेति पञ्च गुरवः, किमु होसइ सिव-लाहु
शिवशब्दवाच्यमोक्षपदस्थितानां तदाराधकानामाचार्यादीनां च यथायोग्यं दानपूजावन्दनादिकं न
कृतम्, कथं शिवशब्दवाच्यमोक्षसुखस्य लाभो भविष्यति न कथमपीति । अत्रेदं व्याख्यानं ज्ञात्वा
उपासकाव्याख्यानं ज्ञात्वा उपासकाध्ययनशास्त्रकथितमार्गेण विधिद्रव्यदातृपात्रलक्षणविधानेन दानं
दातव्यं पूजावन्दनादिकं च कर्तव्यमिति भावार्थः ।।१६८।।
নহি, দেবেন্দ্র, ধরণেন্দ্র অনে নরেন্দ্রথী পূজিত, কেবলজ্ঞানাদি অনংত গুণোথী পরিপূর্ণ, পূজ্যপদমাং
স্থিত জিননাথনে জলধারা সহিত, গংধ, অক্ষত, পুষ্প আদি অষ্টবিধ পূজাথী (জল, চংদন,
অক্ষত, ফল, নৈবেদ্য, দীপ, ধূপ, ফলথী) পূজ্যা নহি, অনে ত্রণ ভুবননা অধিপতিথী বংদ্যপদমাং
স্থিত এবা অর্হংত, সিদ্ধ অনে ত্রণ ভুবননা ইশথী বংদ্য মোক্ষপদনা আরাধক, আচার্য,
উপাধ্যায অনে সাধু এ পাংচ গুরুওনে বংদন কর্যুং নহি, ‘শিব’ শব্দথী বাচ্য এবা মোক্ষপদমাং
স্থিত অর্হংত অনে সিদ্ধনে অনে তেমনা আরাধক আচার্যাদিনে যথাযোগ্য দান, পূজা, বংদনা
আদি কর্যাং নহি তো কেবী রীতে ‘শিব’ শব্দথী বাচ্য এবা মোক্ষসুখনী প্রাপ্তি থশে? কোঈ পণ
রীতে থশে নহি.
অহীং, আ ব্যাখ্যান জাণীনে উপাসকাধ্যযন শাস্ত্রমাং কহেলা মার্গ প্রমাণে বিধি, দ্রব্য,
দাতা, পাত্রনা লক্ষণানুসারে দান দেবুং জোঈএ অনে পূজাবংদনাদি করবা জোঈএ, এবো ভাবার্থ
ছে. ১৬৮.
उनको चार प्रकारका दान भक्तिकर नहीं दिया, और भूखे जीवोंको करुणाभावसे दान नहीं दिया ।
इन्द्र, नागेन्द्र, नरेन्द्र आदिकर पूज्य केवलज्ञानादि अनंतगुणोंकर पूर्ण जिननाथकी पूजा नहीं कीं;
जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप फ लसे पूजा नहीं की; और तीन लोककर वंदने
योग्य ऐसे अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु इन पाँचपरमेष्ठियोंकी आराधना नहीं की ।
सो हे जीव, इन कार्योंके बिना तुझे मुक्तिका लाभ कैसे होगा ? क्योंकि मोक्षकी प्राप्तिके ये
ही उपाय हैं । जिनपूजा, पंचपरमेष्ठीकी वंदना, और चार संघको चार प्रकारका दान, इन बिना
मुक्ति नहीं हो सकती । ऐसा व्याख्यान जानकर सातवें उपासकाध्ययन अंगमें कही गई जो दान,
पूजा, वंदनादिककी विधि वही करने योग्य है । शुभ विधिसे न्यायकर उपार्जन किया अच्छा
द्रव्य वह दातारके अच्छे गुणोंको धारणकर विधिसे पात्रको देना, जिनराजकी पूजा करना, और
पंचपरमेष्ठीकी वंदना करना, ये ही व्यवहारनयकर कल्याणके उपाय हैं ।।१६८।।