लोकालोकं जानाति, देहमध्ये स्थितोऽपि निश्चयनयेन स्वात्मानं जानाति, तेन कारणेन
व्यवहारनयेन ज्ञानापेक्षया रूपविषये द्रष्टिवत्सर्वगतो भवति न च प्रदेशापेक्षयेति । कश्चिदाह । यदि
व्यवहारेण लोकालोकं जानाति तर्हि व्यवहारनयेन सर्वज्ञत्वं, न च निश्चयनयेनेति ।
परिहारमाह — यथा स्वकीयमात्मानं तन्मयत्वेन जानाति तथा परद्रव्यं तन्मयत्वेन न जानाति तेन
कारणेन व्यवहारो भण्यते न च परिज्ञानाभावात् । यदि पुनर्निश्चयेन स्वद्रव्यवत्तन्मयो भूत्वा परद्रव्यं
जानाति तर्हि परकीयसुखदुःखरागद्वेषपरिज्ञातो सुखी दुःखी रागी द्वेषी च स्यादिति महद्दूषणं
रहेवा छतां पण, निश्चयनयथी पोताना आत्माने जाणे छे ते कारणे नेत्रवत् (जेवी रीते
व्यवहारनयथी रूपना विषयने देखवाथी नेत्र ‘पदार्थगत’ छे, पण ते पदार्थोमां जतुं नथी तेवी
रीते,) व्यवहारनयथी ज्ञान-अपेक्षाए आत्मा ‘सर्वगत’ छे, पण प्रदेशनी अपेक्षाए नहि.
अहीं कोई प्रश्न करे छे के जो आत्मा व्यवहारनयथी लोकालोकने जाणे छे तो
व्यवहारनयथी सर्वज्ञपणुं ठर्युं पण निश्चयनयथी नहि?
तेनो परिहारः — जेवी रीते आत्मा तन्मय थईने पोताना आत्माने जाणे छे तेवी रीते
परद्रव्यमां तन्मय थईने तेमने जाणतो नथी ते कारणे व्यवहार कहेवामां आवे छे, पण ज्ञानना
अभावथी नहि. (पण सर्वज्ञपणानो अभाव छे माटे व्यवहार कहेवामां आवे छे एम नथी.)
वळी जो आत्मा निश्चयनयथी, स्वद्रव्यनी जेम परद्रव्यमां तन्मय थईने तेमने जाणे तो
बीजानां सुख-दुःख, राग-द्वेष जाणवामां आवतां, पोते सुखी-दुःखी अने रागी-द्वेषी थाय एवो
महान दोष आवे.
व्यवहारनयसे सर्वगत है, प्रदेशोंकी अपेक्षा नहीं है । जैसे रूपवाले पदार्थोंको नेत्र देखते हैं, परंतु
उन पदार्थोंसे तन्मय नहीं होते, उसरूप नहीं होते हैं । यहाँ कोई प्रश्न करता है, कि जो
व्यवहारनयसे लोकालोकको जानता है, और निश्चयनयसे नहीं, तो व्यवहारसे सर्वज्ञपना हुआ,
निश्चयनयकर न हुआ ? उसका समाधान करते हैं — जैसे अपनी आत्माको तन्मयी होकर जानता
है, उस तरह परद्रव्यको तन्मयीपनेसे नहीं जानता, भिन्नस्वरूप जानता है, इस कारण
व्यवहारनयसे कहा, कुछ ज्ञानके अभावसे नहीं कहा । ज्ञानकर जानना तो निज और परका
समान है । जैसे अपनेको सन्देह रहित जानता है, वैसा ही परको भी जानता है, इसमें सन्देह
नहीं समझना, लेकिन निज स्वरूपसे तो तन्मयी है, और परसे तन्मयी नहीं । और जिस तरह
निजको तन्मयी होकर निश्चयसे जानता है, उसी तरह यदि परको भी तन्मय होकर जाने, तो
परके सुख, दुःख, राग, द्वेषके ज्ञान होने पर सुखी, दुःखी, रागी, द्वेषी हो, यह बड़ा दूषण है ।
सो इस प्रकार कभी नहीं हो सकता । यहाँ जिस ज्ञानसे सर्वव्यापक कहा, वही ज्ञान उपादेय
अतीन्द्रियसुखसे अभिन्न है, सुखरूप है, ज्ञान और आनन्दमें भेद नहीं है, वही ज्ञान उपादेय
अधिकार-१ः दोहा-५२ ]परमात्मप्रकाशः [ ८९