तदनन्तरं द्रव्यगुणपर्यायनिरूपणमुख्यत्वेन सूत्रत्रयं कथयति । तद्यथा —
५६) अप्पा जणियउ केण ण वि अप्पेँ जणिउ ण कोइ ।
दव्व-सहावेँ णिच्चु मुणि पज्जउ विणसइ होइ ।।५६।।
आत्मा जनितः केन नापि आत्मना जनितं न किमपि ।
द्रव्यस्वभावेन नित्यं मन्यस्व पर्यायः विनश्यति भवति ।।५६।।
आत्मा न जनितः केनापि आत्मना कर्तृभूतेन जनितं न किमपि, द्रव्यस्वभावेन
नित्यमात्मानं मन्यस्व जानीहि । पर्यायो विनश्यति भवति चेति । तथाहि । संसारिजीवः
ए प्रमाणे त्रण प्रकारना आत्माना प्रतिपादक प्रथम महाधिकारमां जे परमात्मा
व्यवहारनयथी ज्ञाननी अपेक्षाए लोकालोकव्यापक कहेवामां आव्यो छे, ते ज परमात्मा
निश्चयनयथी असंख्य प्रदेशी होवा छतां पण पोताना देहमां रहे छे, एवी व्याख्याननी मुख्यताथी
छ सूत्रो समाप्त थयां.
त्यार पछी द्रव्य-गुण-पर्यायना कथननी मुख्यताथी त्रण सूत्रो कहे छे ते आ
प्रमाणेः —
भावार्थः — संसारी जीव शुद्धआत्मानी संवित्तिना अभावथी उपार्जन करेला कर्मथी
जो के व्यवहारथी उत्पन्न थाय छे अने पोते शुद्धआत्मानी संवित्तिथी च्युत थई कर्मोने उत्पन्न
ऐसे जिसमें तीन प्रकारकी आत्माका कथन है, ऐसे पहले महाधिकारमें जो ज्ञानकी
अपेक्षा व्यवहानयसे लोकलोकव्यापक कहा गया, वही परमात्मा निश्चयनयसे असंख्यातप्रदेशी
है, तो भी अपनी देहके प्रमाण रहता है, इस व्याख्यानकी मुख्यतासे छह दोहा-सूत्र कहे गये ।
आगे द्रव्य, गुण, पर्यायके कथनकी मुख्यतासे तीन दोहे कहते हैं —
गाथा – ५६
अन्वयार्थ : — [आत्मा ] यह आत्मा [केन अपि ] किसीसे भी [न जनितं ] उत्पन्न
नहीं हुआ, [आत्मना ] और इस आत्मासे [किमपि ] कोई द्रव्य उत्पन्न नहीं हुआ,
[द्रव्यस्वभावेन ] द्रव्यस्वभावकर [नित्यं मन्यस्व ] नित्य जानो, [पर्यायः विनश्यति भवति ]
पर्यायभावसे विनाशीक है ।
भावार्थ : — यह संसारी-जीव यद्यपि व्यवहारनयकर शुद्धात्मज्ञानके अभावसे उपार्जन
किये ज्ञानावरणादि शुभाशुभ कर्मोंके निमित्तसे नर-नारकादि पर्यायोंसे उत्पन्न होता है, और
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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-५६